February 16, 2012

संस्कृति -1941 में डूबे ब्रिटिश जहाज से चांदी का खजाना मिला, कोलकाता से ब्रिटेन जा रहा था

1941 में डूबे ब्रिटिश जहाज से चांदी का खजाना मिला, कोलकाता से ब्रिटेन जा रहा था

लंदन, एजेंसी : अमेरिका की एक अन्वेषण कंपनी ने डूबे हुए एक ब्रिटिश जहाज से भारी मात्रा में चांदी का खजाना बरामद किया है, जिसकी अंतरराष्ट्रीय बाजार में कीमत 15 करोड़ पाउंड (करीब 1155 करोड़ रुपये) हो सकती है। यह जहाज कोलकाता से लंदन की यात्रा पर रवाना हुआ था लेकिन अटलांटिक में 1941 में एक जर्मन यू बोट ने इसे डुबो दिया था।


परिवहन विभाग के अनुसार अन्वेषण कंपनी ओडिसी मैरिन इस माल का 80 फीसदी हिस्सा रखेगी। परिवहन विभाग ने कंपनी को डूबे विशालकाय जहाज के मलबे की खोज की जिम्मेदारी सौंपी थी। एसएस गैरसोप्पा नामक यह जहाज दिसंबर 1940 में कोलकाता से रवाना हुआ था और इस पर 240 टन चांदी, लोहा और चाय लदी थी। यह पोत ब्रिटिश स्टीम नेवीगेशन कंपनी से ताल्लुक रखता था।

यह जहाज लिवरपूल जाने वाला था लेकिन मजबूरन इसे अपने सैन्य काफिले से अलग होकर अपना रास्ता बदलना पड़ा था। चूंकि आयरलैंड के पास मौसम बहुत खराब हो गया था और इस जहाज में ईंधन भी बहुत कम बचा था। जब यह जहाज एक छोटा रास्ता अपनाकर आयरिश हार्बर के दक्षिण-पश्चिम में पहुंचा तो 17 फरवरी 1941 को जर्मन पनडुब्बी यू101 ने इस पर हमला कर दिया। एक ही तारपीडो में यह जहाज डूब गया।

इस हमले में जहाज में मौजूद 85 चालक दल मारे गए। जहाज में बस एक ही व्यक्ति जीवित बचा था। इस विशालकाय 412 फीट ऊंचे जहाज का मलबा हाल ही में आयरिश तट से 300 मील दूर उत्तरी अटलांटिक महासागर के 4700 मीटर गहरे तल में मिला। लेकिन यह वही जहाज है इस बात की पुष्टि एसएस गैयरसोप्पा ने पिछले हफ्ते ही की है।

इस अभियान दल के एक वरिष्ठ अधिकारी के अनुसार इस जहाज के मलबे को बाहर निकालने का काम 2012 के शुरुआती तीन महीनों में ही शुरू हो पाएगा। इस पूरे काम को अंजाम देने और खजाना बाहर निकालने में एक-दो साल तक लग सकते हैं।

"Ek jahaj me Rs. 1155 crore ka maal. Lord clive ne to 700 jahaj gold - silver le kar gaya tha. Isse pata chalta hai ki angrejo ne bharat ko kitna loota hai. aur hamare PM kahte hai ki angrejo ne to hume jine sikhaya. To 15 Aug ko shok divas Q nahi manate? hamare desh me aise kaale angrej bahut hai."
Ajay Yadav IIT Kharagpur student

February 15, 2012

इलाज -Blow shell to get rid from diseases

यदि पाना हें रोगों से छुटकारा तो शंख बजाइए और रोग भगाइए ; Blow shell to get rid from diseases



(जानिए क्या हें शंख ,इसके प्रभाव और परिणाम)

भारतीय संस्कृति में शंख को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। माना जाता है कि समुद्र मंथन से प्राप्त चौदह रत्नों में से एक शंख भी था। अथर्ववेदके अनुसार, शंख से राक्षसों का नाश होता है-शंखेन हत्वारक्षांसि।भागवत पुराण में भी शंख का उल्लेख हुआ है। शंख में ओम ध्वनि प्रतिध्वनितहोती है, इसलिए ओम से ही वेद बने और वेद से ज्ञान का प्रसार हुआ। पुराणों और शास्त्रों में शंख ध्वनि को कल्याणकारी कहा गया है। इसकी ध्वनि विजय का मार्ग प्रशस्त करती है।

शंख का महत्व धार्मिक दृष्टि से ही नहीं, वैज्ञानिक रूप से भी है। वैज्ञानिकों का मानना है कि इसके प्रभाव से सूर्य की हानिकारक किरणें बाधक होती हैं। इसलिए सुबह और शाम शंखध्वनिकरने का विधान सार्थक है। जाने-माने वैज्ञानिक डॉ. जगदीश चंद्र बसु के अनुसार, इसकी ध्वनि जहां तक जाती है, वहां तक व्याप्त बीमारियों के कीटाणु नष्ट हो जाते हैं। इससे पर्यावरण शुद्ध हो जाता है। शंख में गंधक, फास्फोरस और कैल्शियम जैसे उपयोगी पदार्थ मौजूद होते हैं। इससे इसमें मौजूद जल सुवासित और रोगाणु रहित हो जाता है। इसीलिए शास्त्रों में इसे महाऔषधिमाना जाता है।

पूजा, यज्ञ एवं अन्य विशिष्ट अवसरों पर शंखनाद हमारी परंपरा में था। क्योंकि शंख से निकलने वाली ध्वनितरंगों में हानिकारक वायरस को नष्ट करने की क्षमता होती है।
1928 में बर्लिन विश्वविद्यालय के विज्ञानियों ने शंख ध्वनि पर अनुसंधान कर इस बात को प्रमाणित किया था। दरअसल, शंखनाद करने के पीछे मूलभावना यही थी कि इससे शरीर निरोगी हो जाता है। घर में शंख रखना और उसे बजाना वास्तु दोष को भी खत्म कर देता है। यह भारतीय संस्कृति की अनुपम धरोहर है।

मंदिरों में नियमित रूप से और बहुत से घरों में पूजा-पाठ, धार्मिक अनुष्ठान, व्रत, कथाएं, जन्मोत्सव के अवसरों पर शंख बजाना शुभ माना जाता है। ज्योतिषाचार्यो के अनुसार शंख बजाने से आसुरी शक्तियां घर के भीतर प्रवेश नहीं कर पाती।
समुद्र मंथन में मिले रत्नों में 6वां —-
समुद्र मंथन के समय मिले 14 रत्नों में छठवां रत्न शंख था। शंखनाद से निकली ध्वनि में अ-उ-म् (ओम्) अथवा ‘ओम्’ शब्द उद्धोषित होता है जहां तक ‘ओम्’ का नाद पहुंचता है वहां तक नकारात्मक ऊर्जा नष्ट हो जाती है।

देवतुल्य है शंख —–
ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार शंख चंद्रमा और सूर्य के समान ही देवस्वरूप है। इसके मध्य में वरुण, पृष्ठ भाग में ब्रह्मा और अग्र भाग में गंगा व सरस्वती का निवास है। शंख से शिवलिंग, कृष्ण या लक्ष्मी विग्रह पर जल या पंचामृत अभिषेक करने पर देवता प्रसन्न होते हैं। पांचजन्य व विष्णु शंख को दुकान, कार्यालय, फैक्टरी में स्थापित करने से व्यवसाय में लाभ होता है।

शंख की उत्पत्ति —-
हमारे धर्म ग्रंथों के अनुसार शंख की उत्पत्ति सृष्टी आत्मा से, आत्मा आकाश से, आकाश वायु से, वायु अग्रि से, आग जल से और जल पृथ्वी से उत्पन्न हुआ है और इन सभी तत्वों से मिलकर शंख की उत्पत्ति मानी गई है। वैसे शंख समुद्र में पाए जाने वाले एक प्रकार के घोंघे का खोल है, जिसे वह अपनी सुरक्षा के लिए बनाता है।
पाप नाशक —
शंख को सनातन धर्म का प्रतीक माना जाता है। यह निधि का प्रतीक है। इसे घर के पूजास्थल में रखने से अरिष्टों एवं अनिष्टों का नाश होता है और सौभाग्य की वृद्धि होती है। स्वर्गलोक में अष्टसिद्धियों एवं नवनिधियों में शंख का महत्वपूर्ण स्थान है। माना जाता है कि शंख का स्पर्श पाकर जल गंगाजल के समान पवित्र हो जाता है। शंख में जल भरकर ओम् नमोनारायण का उच्चारण करते हुए भगवान को स्नान कराने से पापों का नाश होता है। शंख नाद का प्रतीक है। नाद जगत में आदि से अंत तक व्याप्त है। सृष्टि का आरंभ भी नाद से होता है और विलय भी उसी में होता है।
स्वास्थ्य लाभ—–—-शंख बजाना स्वास्थ्य की दृष्टि से बहुत लाभदायक है। इससे पूरक, कुम्भक और रेचक जैसी प्राणायाम क्रियाएं एक साथ हो जाती हैं।
—–सांस लेने से पूरक, सांस रोकने से कुम्भक और सांस छोड़ने की क्रिया से रेचक सम्पन्न हो जाती हैं।
—-हृदय रोग, रक्तदाब, सांस सम्बन्धी रोग, मन्दाग्नि आदि में मात्र शंख बजाने से पर्याप्त लाभ मिलता है।
—-यदि कोई बोलने में असमर्थ है या उसे हकलेपन का दोष है तो शंख बजाने से ये दोष दूर होते हैं। इससे फेफड़ों के रोग भी दूर होते हैं :- जैसे दमा, कास प्लीहा यकृत और इन्फ्लूएन्जा रोगों में शंख ध्वनि फायदेमंद है।

——अगर आपको खांसी, दमा, पीलिया, ब्लडप्रेशर या दिल से संबंधित मामूली से लेकर गंभीर बीमारी है तो इससे छुटकारा पाने का एक सरल-सा उपाय है – शंख बजाइए और रोगों से छुटकारा पाइए।

——शंखनाद से आपके आसपास की नकारात्मक ऊर्जा का नाश तथा सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है। शंख से निकलने वाली ध्वनि जहां तक जाती है वहां तक बीमारियों के कीटाणुओं का नाश हो जाता है।
———–शंखनाद से सकारात्मक ऊर्जा का सर्जन होता है जिससे आत्मबल में वृद्धि होती है। शंख में प्राकृतिक कैल्शियम, गंधक और फास्फोरस की भरपूर मात्रा होती है। प्रतिदिन शंख फूंकने वाले को गले और फेफड़ों के रोग नहीं होते। शंख से मुख के तमाम रोगों का नाश होता है। शंख बजाने से चेहरे, श्वसन तंत्र, श्रवण तंत्र तथा फेफड़ों का व्यायाम होता है। शंख वादन से स्मरण शक्ति बढ़ती है।

शंख के प्रकार —

ये कई प्रकार के होते हैं और सबकी विशेषता एवं पूजन पद्धति भिन्न-भिन्न है। उच्च श्रेणी के श्रेष्ठ शंख कैलाश मानसरोवर, मालद्वीप, लक्षद्वीप, कोरामंडल द्वीप समूह, श्रीलंका और भारत में पाए जाते हैं।
दक्षिणावृत्ति शंख (दाहिने हाथ से पकड़ा जाता है), मध्यावृत्ति शंख (इसका मुंह बीच में खुलता है), वामावृत्ति शंख (यह बाएं हाथ से पकड़ा जाता है)। इनके अलावा लक्ष्मी शंख, गणोश शंख, गोमुखी शंख, कामधेनु शंख, विष्णु शंख, देवदत्त शंख, चक्र शंख, पौंड्र शंख, वीणा शंख, सुघोष शंख, गरुड़ शंख, मणिपुष्पक शंख, राक्षस शंख, शनि शंख, राहु शंख, केतु शंख, शेषनाग शंख, कच्छप शंख आदि होते हैं। इनकी दुर्लभता एवं चमत्कारिक गुणों के कारण ये अधिक मूल्यवान होते हैं।

विजय घोष का प्रतीक —-

शंख को विजय घोष का प्रतीक माना जाता है। कार्य के आरम्भ करने के समय शंख बजाना शुभता का प्रतीक है। इसकी नाद को सुनने वाले को सहज ही ईश्वर की उपस्थिति का अनुभव हो जाता है।

वैज्ञानिक पहलू—
शंख ध्वनि से सूर्य की किरणों बाधित होती हैं। अत: प्रात: व सायंकाल में ही शंख ध्वनि करने का विधान है। शंखोदक भस्म से पेट की बीमारियां, पीलिया, कास प्लीहा यकृत, पथरी आदि रोग ठीक हो जाते हैं।
ऋषि श्रृंग के अनुसार बच्चों के शरीर पर छोटे-छोटे शंख बांधने व शंख जल पिलाने से वाणी-दोष दूर हाते हैं। पुराणों में उल्लेख मिलता है कि मूक व श्वास रोगी हमेशा शंख बजाए तो बोलने की शक्ति पा सकते हैं।
आयुर्वेदाचार्य डा.विनोद वर्मा के अनुसार हकलाने वाले यदि नित्य शंख-जल पीएं तो वे ठीक हो जाएंगे।शंख जल स्वास्थ्य, हड्डियों, दांतों के लिए लाभदायक है। इसमें गंधक, फास्फोरस व कैल्शियम होते हैं।
संगीत सम्राट तानसेन ने भी अपने आरंभिक दौर में शंख बजाकर ही गायन शक्तिप्राप्त की थी। अथर्ववेद के अनुसार, शंख में राक्षसों का नाश करने की भी शक्ति होती है।
क्या रहस्य है शंख बजाने का?

—–मंदिर में आरती के समय शंख बजते सभी ने सुना होगा परंतु शंख क्यों बजाते हैं? इसके पीछे क्या कारण है यह बहुत कम ही लोग जानते हैं। शंख बजाने के पीछे धार्मिक कारण तो है साथ ही इसके पीछे वैज्ञानिक कारण भी है और शंख बजाने वाले व्यक्ति को स्वास्थ्य लाभ भी मिलता है।
—–शंख की उत्पत्ति कैसे हुई ? इस संबंध में हिन्दू धर्म ग्रंथ कहते हैं सृष्टी आत्मा से, आत्मा आकाश से, आकाश वायु से, वायु अग्रि से, आग जल से और जल पृथ्वी से उत्पन्न हुआ है और इन सभी तत्व से मिलकर शंख की उत्पत्ति मानी जाती है।
—-शंख की पवित्रता और महत्व को देखते हुए हमारे यहां सुबह और शाम शंख बजाने की प्रथा शुरू की गई है। शंख बजाने का स्वास्थ्य लाभ यह है कि यदि कोई बोलने में असमर्थ है या उसे हकलेपन का दोष है तो शंख बजाने से ये दोष दूर होते हैं। शंख बजाने से कई तरह के फेफड़ों के रोग दूर होते हैं जैसे दमा, कास प्लीहा यकृत और इन्फ्लून्जा आदि रोगों में शंख ध्वनि फायदा पहुंचाती है।
——शंख के जल से शालीग्राम को स्नान कराएं और फिर उस जल को यदि गर्भवती स्त्री को पिलाया जाए तो पैदा होने वाला शिशु पूरी तरह स्वस्थ होता है। साथ ही बच्चा कभी मूक या हकला नहीं होता।
——यदि शंखों में भी विशेष शंख जिसे दक्षिणावर्ती शंख कहते हैं इस शंख में दूध भरकर शालीग्राम का अभिषेक करें। फिर इस दूध को निरूसंतान महिला को पिलाएं। इससे उसे शीघ्र ही संतान का सुख मिलता है।
—–गोरक्षासंहिता, विश्वामित्र संहिता, पुलस्त्यसंहिता आदि ग्रंथों में दक्षिणावर्तीशंख को आयुर्वद्धकऔर समृद्धि दायक कहा गया है। ब्रह्मवैवर्तपुराण के अनुसार, शंख चंद्रमा और सूर्य के समान ही देवस्वरूपहै। इसके मध्य में वरुण, पृष्ठ भाग में ब्रह्मा और अग्र भाग में गंगा और सरस्वती का निवास है।
—–शंख बजाने से दमा, अस्थमा, क्षय जैसे जटिल रोगों का प्रभाव काफी हद तक कम हो सकता है। इसका वैज्ञानिक कारण यह है कि शंख बजाने से सांस की अच्छी एक्सरसाइज हो जाती है। ब्रह्मवैवर्तपुराण के अनुसार, शंख में जल भरकर रखने और उस जल से पूजन सामग्री धोने और घर में छिडकने से वातावरण शुद्ध रहता है।

—–तानसेनने अपने आरंभिक दौर में शंख बजाकर ही गायन शक्ति प्राप्त की थी।
——अथर्ववेदके चतुर्थ अध्याय में शंखमणिसूक्त में शंख की महत्ता वर्णित है।

भागवत पुराण के अनुसार, संदीपन ऋषि आश्रम में श्रीकृष्ण ने शिक्षा पूर्ण होने पर उनसे गुरु दक्षिणा लेने का आग्रह किया। तब ऋषि ने उनसे कहा कि समुद्र में डूबे मेरे पुत्र को ले आओ। कृष्ण ने समुद्र तट पर शंखासुरको मार गिराया। उसका खोल (शंख) शेष रह गया।

——-माना जाता है कि उसी से शंख की उत्पत्ति हुई। पांचजन्य शंख वही था। शंख से शिवलिंग,कृष्ण या लक्ष्मी विग्रह पर जल या पंचामृत अभिषेक करने पर देवता प्रसन्न होते हैं। शंख की ध्वनि से भक्तों को पूजा-अर्चना के समय की सूचना मिलती है। आरती के समापन के बाद इसकी ध्वनि से मन को शांति मिलती है।

——कल्याणकारी शंख दैनिक जीवन में दिनचर्या को कुछ समय के लिए विराम देकर मौन रूप से देव अर्चना के लिए प्रेरित करता है। यह भारतीय संस्कृति की धरोहर है।

——शंख की पूजा इस मंत्र के साथ की जाती है——

“”त्वं पुरा सागरोत्पन्न:विष्णुनाविघृत:करे देवैश्चपूजित: सर्वथैपाञ्चजन्यनमोऽस्तुते।”"





संस्कृति-Proud to be Indian - Mythology and Science

तांडव नृत्य व क्वांटम सिद्धांत


आज चर्चा भगवान शिव के तांडव नृत्य की....। सृष्टि के विनाश और पुनः निर्माण का द्योतक...। आधुनिक क्वांटम सिद्धांत पर नटराज की तुलना वैज्ञानिक Fritzof Capra की नजर से देखिए...। 1975 में Tao of Physics नामक पुस्तक लिखी इन्होंने...। उनके मुताबिक आधुनिक भौतिकी में पदार्थ निष्क्रिय और जड़ नहीं है। एक-दूसरे का विनाश व रचना करते वह सतत नृत्य में रत है...। दाएं हाथ का डमरू नए परमाणु की उत्पत्ति व बाएं हाथ की मशाल पुराने परमाणुओं के विनाश की कहानी बताता है। अभय मुद्रा में भगवान का दूसरा दांया हाथ हमारी सुरक्षा जबकि वरद मुद्रा में उठा दूसरा बांया हाथ हमारी जरुरतों की पूर्ति सुनिश्चित करता है...। अर्थात शिव जी का ताण्डव नृत्य ब्रह्माण्ड में हो रहे मूल कणों के नृत्य का प्रतीक है...। लिहाजा कोई आश्चर्य नहीं नाभिकीय अनुसंधान यूरोपीय संगठन (CERN) में नटराज की प्रतिमा की स्थापना पर...। 

On 18 June CERN unveiled an unusual new landmark - a statue of the Indian deity Shiva. The statue is a gift from CERN's Indian collaborators to celebrate CERN's long association with India, which began in the 1960s. It was unveiled by His Excellency K M Chandrasekhar, ambassador (WTO Geneva), shown above signing the visitors' book, Anil Kakodkar, chairman of the Atomic Energy Commission and secretary of the Indian Department of Energy, and CERN's director-general, Robert Aymar.


पृथ्वी का चुंबकीय गुण

यदि कोई चुंबक धागे से लटकाया जाता है तो यह हमेशा उत्तर व दक्षिण दिशा में रुकता है...। माना जाता है कि 1600 में विलियम गिलबर्ट ने बताया कि इसकी वजह पृथ्वी का चुंबकीय गुण है...। लेकिन हमारे पूर्वज इससे परिचित थे...। हमारे गंथ्रों में जो सिद्धांत मिलते हैं उनकी पुस्टि आधुनिक काल में ह्वेल के स्थिरांक से हुई है...।


खगोलीय पिंड का रास्ता

आज चर्चा खगोलीय पिंडों के रास्ते पर, उनकी कक्षा पर...। Copernicus (1473-1543 AD) तक पाश्चात्य विज्ञान मानता था कि ग्रह और अन्य खगोलीय पिंड गोल रास्ते पर घूमते हैं। 1605 AD में Johannes Kepler ने साफ किया कि गोल नहीं, इनका रास्ता दीर्घा वृत्त जैसा है। अब देखिए, अपने धार्मिक आख्यानों में छिपे ज्ञान के भंडार को। ऋग्वेद का एक मंत्र है...। प्रथम मंडल के 164 वें सूक्त का दूसरा मंत्र...। वहां अग्निहोत्र की प्रसंशा में इसे उच्चारित किया गया है...। इसका मतलब है...
"खगोलीय पिंडों की दीर्घवृत्ताकार कक्षा स्थायी और कसावयुक्त है।"
एक बात और, यूनिवर्स का संस्कृत शब्द ब्रह्मांड है। इसका एक अर्थ है विशाल अंडा...। अर्थात खगोलीय पिंडों के पथ जैसा...।





जीवा बनाम साइन्

आज चर्चा गणित के साइन् की। यहां हम विज्ञान लेखक गुणाकर मुले की पुस्तक आर्यभट्ट का संदर्भ देंगे। इसमें उन्होंने संस्कृत शब्दों के अरबी अनुवाद का जिक्र किया है। मुले के मुताबिक, "...अनुवादकों के सामने एक शब्द आया "जीवा"। अनुवादक जानते थे कि 'जीवा' खास अर्थ देता है। लिहाजा अनुवाद न कर उन्होंने इस शब्द को ज्यों का त्यों स्वीकार कर लिया। अब चूंकि अरबी साहित्य में स्वर नहीं हैं, इसलिए जीवा शब्द को अरबी में ज-ब लिख दिया गया। अरबी विद्वानों को तो इसकी समझ थी, लेकिन जब अरबी ग्रंथ यूरोप पहुंचे और इनका लैटिन में अनुवाद होने लगा तो ज-ब शब्द यूरोपीय विद्वानों को अबूझ लगा। उन्हें भान न था कि यह संस्कृत शब्द है। उनकी समझ से यह शब्द भी अरबी भाषा का है। यूरोपियों ने स्वर डालकर इसे जेब के इर्द-गिर्द समझा। यानि पाकिट या खीसा, जो कुर्ते में सीने के पास होता है। इस निष्कर्ष पर पहुंचते ही उन्होंने इसका तर्जुमा किया छाती। इसका लैटिन शब्द होता है सिनुस्। संक्षिप्त रुप में इसे साइन् से जाना गया।..."


एक सटीक टिप्पणी के साथ उन्होंने इस संदर्भ को खत्म किया। "दुनिया भर के कालेजों में आज गणित पढ़ने वाले छात्र साइन् से भली-भांति परिचित हैं। पर कितने अध्यापक व छात्र जानते हैं कि गणित का यह साइन शब्द संस्कृत के जीवा शब्द से बना है...????"


प्रत्यास्थता

आज चर्चा पदार्थों के उस गुण की, जिससे बाहरी दवाब पड़ने पर भी वह अपने आकार को दुबारा पा लेते हैं। वैज्ञानिक शब्दावली में इसे प्रत्यास्थता कहा जाता है। यह पदार्थों के ऐसा गुण है, जिससे वाह्य बल लगाने पर उसमें विकृति आती है। लेकिन बल हटते ही वह अपनी मूल स्थिति में आ जाता है। ब्रिटिश भौतिक शास्त्री Robert Hooke ने एक नियम भी दिया। 1676 AD में। इसके अनुसार, किसी प्रत्यास्थ वस्तु की लम्बाई में परिवर्तन, उस पर आरोपित बल के समानुपाती होता है।


अब भारतीय विद्वान श्रीधराचार्य की चर्चा करेंगे। 991 एडी में इन्होंने एक श्लोक लिखा...।

ये घना निबिड़ाः अवयवसन्निवेशाः तैः विशष्टेषु
स्पर्शवत्सु द्रव्येषु वर्तमानः स्थितिस्थापकः स्वाश्रयमन्यथा
कथमवनामितं यथावत् स्थापयति पूर्ववदृजुः करोति।

इसका मतलब देखिए...।

लचीलापन सघन बनावट वाले पदार्थों का मौलिक गुण है। यह वाह्य बल लगाने के बावजूद पदार्थ को वापस उसके मूल आकार में आने में मदद करता है।
 
स्वधा
 
आज नजर एक लेख पर गई। नाम था भारत विद्या का विज्ञान। विवरण ऋग्वेद की ऋचाओं व आधुनिक विज्ञान पर था। तुलना काफी रोचक तुलना लगी, लिहाजा आपसे साझा करने का लोभ छोड़ नहीं सका। ऋचा ऋग्वेद के नासदीय सूक्त की है। आप भी देखिए...।
'...ऋषि ने कहा- सृष्टि के निर्माण के पूर्व सत और असत दोनों ही नहीं थे, न ही सूर्य, चंद्र और तारे आदि थे। आकाश या अंतरिक्ष भी नहीं था। तो क्या था? ऋषि का जवाब था- तमः आसति। अंधकार था। इस अंधकार में 'एकमात्र' वह (ब्रह्म) था। इस 'एक' की अपनी शक्ति 'स्वधा' थी।
इस 'स्वधा' पर विशेष ध्यान नहीं गया है। स्वयं को धारण करने वाली यह शक्ति है, जो एक (ब्रह्म) से अलग नहीं है। स्वधा का परिणाम है जगत की उत्पत्ति, माया, प्रकृति, परमाणु का सृजन हुआ है। वास्तव में वह एकमात्र चैतन्य ही था। स्वधा के परिणामस्वरुप न्यूटन का गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत, आइंस्टीन का सापेक्षतावाद और क्वांटम सिद्धांत और वर्तमान में वैज्ञानिक स्टीफन हॉकिंग के स्ट्रिंग सिद्धांत का अध्ययन किया जा सकता है। इन सिद्धांतों के लिए मैं स्वधा को मूल रूप में देखता हूं। सिद्धांतों के लिए स्वधा को मूल स्त्रोत मानता हूं। इसी प्रकार मानवों पर प्रभाव डालने की ग्रहों की दृष्टि का स्त्रोत भी यह वैदिक स्वधा ही है...।'


हर कण प्रेमी

आज चर्चा पृथ्वी के प्रेम की...। छोटे-बड़ी सभी वस्तुओं के आपसी लगाव की...। यानि इनके गुरुत्वाकर्षण शक्ति की...। शुरुआत ब्रिटिश खगोलविद Isaac Newton (1642 – 1727AD) से...। इन्होंने बताया कि पृथ्वी ही नहीं, अपितु विश्व का प्रत्येक कण दूसरे कण को अपनी ओर खींचता रहता है। इसका एक भी फार्मूला दिया इन्होंने...। इसके मुताबिक दो कणों के बीच कार्य करने वाला आकर्षण बल उन कणों के द्रव्यमान के गुणनफल का समानुपाती तथा उनके बीच की दूरी के वर्ग का व्युत्क्रमानुपाती होता है। कणों के बीच कार्य करने वाले आकर्षण को गुरुत्वाकर्षण व उससे उत्पन्न बल को गुरुत्वाकर्षण बल कहा जाता है। यही न्यूटन का गुरुत्वाकर्षण नियम कहते हैं।


लेकिन भारतीय मनीषी भास्कराचार्य द्वितीय को देखिए। न्यूटन से करीब 500 साल पहले इन्होंने अपने ग्रंथ सिद्धांत शिरोमणि में साफ बताया कि पृथ्वी में ही नहीं, गुरुवाकर्षण शक्ति सभी भारी वस्तुओं में होती है....। इनका श्लोक पढि़ए...। इसका लब्बोलुबाब है, 'पृथ्वी में आकर्षण शक्ति है। इस शक्ति के सहारे पृथ्वी आकाश की तरफ से भारी वस्तुओं को अपनी तरफ खींचती है। वस्तुएं इसकी तरफ गिरती दिखतीं है। इसी तरह की शक्ति उस वस्तु में भी होती है, जो पृथ्वी पर गिरती है...।' यही नहीं, इनसे पहले संत कणाद ने बताया था कि यह पृथ्वी की शक्ति है, जो सब प्रकार के अणुओं को अपनी ओर खींचती है...।

सूर्य व धरती का संबंध

 
आज बात करते हैं सूर्य और धरती व अन्य ग्रहों के संबंध की। सबसे पहले हमारी जुबान पर नाम आता है पोलैंड के खगोल शास्त्री कोपरनिकस का। 1543 ईसवी में प्रकाशित उसकी पुस्तक 'De reveloutionibus Orbium Coelestium' का। माना गया कि सबसे पहले कोपरनिकस ने बताया कि सूर्य केंद्र में है, जबकि पृथ्वी समेत अन्य ग्रह इसके चारों ओर चक्कर लगाते हैं।


लेकिन हम यहां वैदिक और उत्तर वैदिक काल के तीन श्लोक का जिक्र करेंगे। इनमें कोपरनिकस जैसी स्पष्टता तो नहीं, फिर भी उस जैसी आवाज सुनी जा सकती है....।


नैवास्तमनमर्कस्य नोयदः सर्वदा सतः।
उदयास्तमनाख्यं हि दर्शनादर्शनं रवेः।।

सूर्य का न तो उदय है और न ही अस्त। यह हमेशा अपने स्थान पर बना रहता है। दोनों शब्द (उदय व अस्त) महज उनकी उपस्थिति और अनुपस्थिति का अर्थ देते हैं।

दाधर्थ पृथिवीमभितो मयूखैः।
(सूर्य) अपनी किरणों द्वारा चारों तरफ से पृथ्वी को पकड़े रहता है।

मित्रो दाधार पृथिवीमुतद्याम्। मित्रः कृष्टीः।
सूर्य पृथ्वी और आकाशीय क्षेत्र को बांधे रहता है। सूर्य में आकर्षण शक्ति है।

महर्षि रमण व कार्ल गुस्ताव जुंग

आज बात स्विस मनोचिकित्सक कार्ल गुस्ताव जुंग की। इन्होंने पॉल ब्रान्टन की पुस्तक 'इन सर्च ऑफ सीक्रेट इंडिया' पढ़ी। इसमें इन्हें भारतीय संत महर्षि रमण व उनकी आध्यात्म विद्या की अनुसंधान विधि का पता चला। जिज्ञासु जुंग की इनसे मिलने की इच्छा हुई। संयोगवश 1938 में उन्हें ब्रिटिश सरकार ने भारत बुलाया। इस प्रस्ताव को वह अस्वीकार न कर सके और सर्द मौसम में भारत आ गए। दिल्ली पहुंचकर उन्होंने सरकारी काम निपटाया, फिर निकल पड़े तिरुवन्नमलाई के अरूणाचलम पर्वत पर की तरफ। महर्षि रमण का यहीं निवास था। आश्रम में यह अंग्रजी के जानकार एक संत अन्नामलाई स्वामी से मिले। तय हुआ कि महर्षि रमण का दर्शन शाम में होगा।


कार्ल गुस्ताव जुंग (1875-1961)ः स्विस मनोचिकित्सक, प्रभावशाली विचारक व विश्लेषणात्मक मनोविज्ञान के संस्थापकों में से एक। जुंग को पहला ऐसा मनोविज्ञानी माना जाता है जिनके अनुसार मानव मन स्वभाव से धार्मिक है। इसका गहराई तक परीक्षण भी किया जा सकता है। फ्रायड की तरह इनका मानना था कि चेतन व्यवहार के पीछे अदृश्य अचेतन का हाथ रहता है। लेकिन कामवासना और उसके दमन के इर्द-गिर्द सिमटे फ्रायड से उनका मतभेद रहा। क्योंकि जुंग मानते थे कि जीवन के अचेतन की चेतना के पार भी कुछ आध्यात्मिक आयाम होते हैं।

शाम को अरूणाचलम की तलहटी में खुले स्थान पर महर्षि से जुंग की मुलाकात हुई। पहली मुलाकात में ही जुंग को इस योगी से अपनत्व महसूस हुआ। हालांकि उनके मन में यह शंका थी कि क्या महर्षि उनके वैज्ञानिक मन की जिज्ञासाओं का समाधान कर पाएंगे। जुंग सोच ही रहे थे कि मुस्कराते हुए महर्षि रमण ने कहा, प्रचीन भारतीय ऋषियों की आध्यात्म विद्या पूरी तरह वैज्ञानिक है। आपकी शब्दावली में इसे वैज्ञानिक आध्यात्म कहना सही रहेगा। देखा जाए तो इसके पांच मूल तत्व हैं, 1. जिज्ञासा, विज्ञान इसे शोध समस्या कहता है, 2. प्रकृति एवं स्थिति के अनुरुप साधना का चयन अर्थात अनुसंधान, 3. शरीर की विकारहीन प्रयोगशाला में किए जाने वाले त्रुटिहीन प्रयोग। विज्ञान इसे नियंत्रित स्थिति में की जाने वाली वह क्रिया, प्रयोग मानता है, जिसका सतत सर्वेक्षण जरुरी होता है, 4. किए जा रहे प्रयोग का निश्चित क्रम से परीक्षण एवं सतत आकलन, 5. इन सबके परिणाम में सम्यक निष्कर्ष। सहज भाव से महर्षि ने अपनी बात पूरी की।

महर्षि फिर आसन छोड़कर टहलने लगे।

टहलते-टहलते उन्होंने बताया, मेरे आध्यात्मिक प्रयोग की वैज्ञानिक जिज्ञासा थी कि मैं कौन हूं? इसके समाधान के लिए मैंने मनन एवं ध्यान की अनुसंधान विधि का चयन किया। इसी अरुणाचलम पर्वत की विरूपाक्षी गुफा में शरीर व मन की प्रयोगशाला में मेरे प्रयोग चलते रहे। इन प्रयोगों के परिणाम रहा कि अपरिष्कृत अचेतन लगातार परिष्कृत होता गया। चेतना की नई-नई परतें खुलती गईं। अंत में मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि मेरा अहं आत्मा में विलीन हो गया। बाद में आत्मा परमात्मा से एकाकार हो गई। अहं का आत्मा में स्थानान्तरण मनुष्य को भगवान में रुपान्तरित कर दिया। बात सुनते-सुनते जुंग ने अपना चश्मा उतारा और रूमाल से उसे साफ कर फिर लगा लिया। उनके चेहरे पर पूर्ण प्रसन्नता व गहरी संतुष्टि के भाव थे। कुछ ऐसा कि उनकी दृष्टि का धुंधलका साफ सा हो गया हो। अब सब-कुछ स्पष्ट था। वैज्ञानिक आध्यात्म का मूल तत्व उनकी समझ में आ गया था।

भारत से लौटने के बाद येले विश्वविद्यालय में जुंग व्याख्यान दिया। इसका विषय था मनोविज्ञान और धर्म। इसमें उनके नवीन दृष्टिकोण का परिचय मिलता है। बाद के वर्षों में उन्होंने श्री रमण एंड हिज मैसेज टू माडर्न मैन की प्रस्तावना में लिखा कि श्री रमण भारत भूमि के सच्चे पुत्र हैं। वह आध्यात्म की वैज्ञानिक अभिव्यक्ति के प्रकाश स्तंभ हैं और साथ ही कुछ अद्भुत भी। उनके जीवन एवं शिक्षा में हमें उस पवित्रतम भारत के दर्शन होते हैं, जो समूची मानवता को वैज्ञानिक आध्यात्म के मूलमंत्र का संदेश दे रहा है।


आदि शक्ति व सुप्रीम एनर्जी

सप्तशती में वर्णित है कि सृष्टि का निर्माण आदिशक्ति से हुआ है। एक कथा भी है इसकी...। एक बार देव-असुर संग्राम हुआ...। युद्ध में देवता पराजित हुए...। इसके बाद उन्होंने आदिशक्ति (आदि=मूल, शक्ति=ऊर्जा) की पूजा की...। इससे प्रसन्न होकर मां देवी ने अपने अंदर से बहुत सारी शक्तियां उत्पन्न की और दानवों को परास्त किया...। दानवराज बोला, आपके पास इतनी शक्ति है। कोई आश्चर्य नहीं, कि आप सर्व शक्तिशाली हैं...। मां आदिशक्ति ने उसे जवाब दिया, यह सब मेरी शक्तियां हैं...। इसके बाद सारी शक्तियों को खुद में विलीन कर मां वहां से चली गईं।
पुस्तक में यह वर्णन कहानी के फार्म में है। यहां इसका वैज्ञानिक निहितार्थ नहीं बताया गया है। आइए इसे वैज्ञानिक सिद्धांत पर परखते हैं। आदि शक्ति यानि असीम ऊर्जा का स्रोत। इसी से महाविस्फोट हुआ। 12-14 अरब वर्ष पहले। ब्रह्मांड बना, लगातार विस्तार होता हुआ। आज तक। देश-काल भी तभी अस्तित्व में आया।
एक बात और। पुराणों में शक्ति की व्याख्या नहीं है। अवर्णनीय भर कहा गया इन्हें...। लेकिन आज अगर हम व्याख्या करना चाहें, तो इसके सबसे उपयुक्त हाइजेनवर्ग होंगे। जैसा कि पहले भी हमने बताया है कि शुरुआत में विज्ञान पदार्थ और ऊर्जा को भिन्न मानता था। लेकिन आंइस्टीन व हाइजेनबर्ग ने इसे झुठलाया। आइंस्टीन ने पदार्थ को ऊर्जा में रूपांतरित किया तो हाइजेनबर्ग ने बताया कि परमाणु के नाभिक के चारों ओर चक्कर लगाने वाले इलेक्ट्रान की स्थिति शुद्धता से नहीं जांची जा सकती। इनकी अनुभूति दृष्टा या आब्जर्वर व उसके द्वारा अपनाई गई प्रक्रिया पर निर्भर करती है...।
अब बताइए, सुप्रीम एनर्जी को अवर्णनीय कहने का पौराणिक कथन वैज्ञानिक था या नहीं??


इंद्रधनुष


अठारहवीं सदी में खोजे गए स्पेक्टम के वैज्ञानिक तथ्य का वर्णन वेदों में काव्यात्मक तरीके से किया गया है कि सूर्य के एकचक्रीय रथ को सात रंगों के घोड़े चलाते हैं। यही नहीं, सर्य की किरणों के हानिकारक प्रभाव पर भी चर्चा की गई है। ऋग्वेद में इन्हें पुरुसाद कहा गया है। जिसका अर्थ ऐसी किरणों से है जो व्यक्ति को खा जाती हैं और इनसे सारा संसार भयभीत रहता है।




प्रकाश की चाल और हम

भौतिक विज्ञान 19 वीं सदी में प्रकाश की चाल की गणना करता है। अमेरिकी भौतिकविदों (Michelson and Morley) ने बताया कि यह 30,00,00,000 मीटर/ सेकेंड (1,86,000 मील/ सेकेंड या 3,00,000 किमी/ सेकेंड) होती है। जहां तक हिंदू धर्म शास्त्रों का सवाल है, तो 14 वीं शदी के दक्षिण भारतीय टीकाकार सायण या सयानाचार्य ने इस पर टिप्पणी की है। आप ताज्जुब करेंगे कि ऋग्वेद के आधार पर की गई गणना आधुनिक परिकल्पना के काफी नजदीक है।


जीवाणु और बीमारी



1969 में पाश्चात्य विद्वान जेजी हॉलवेल, एमआरएस ने कॉलेज ऑफ फिजिशियन, लंदन की एक सभा में लिखित रिपोर्ट दाखिल की थी कि भारत के चिकित्सकों के अनुसार असंख्य अदृश्य जीवाणुओं के कारण बीमारियां फैलती हैं।



वैमानिकी और हम




उत्तर वैदिक काल के मनीषी महर्षि भरद्वाज को उद्धृत कर रहा हूं। अपने ग्रंथ में इन्होंने विमान में प्रयुक्त होने वाली धातुओं के निर्माण की विधि का वर्णन किया है...। साथ ही एक अन्य प्रसंग का भी वर्णन करुंगा....। राइट बंधुओं से तो आप सब वाकिफ होंगे...। हमें बचपन से पढ़ाया जाता है कि इन्होंने स्वनिर्मित विमान से पहली हवाई यात्रा की...। 1905 ईसवी में 120 फिट उचांई तक सैर भी किया...। आविष्कारक बताया जाता है इन्हें विमान का...। लेकिन हममें से कितनों का पता है शिवकर बापूजी तलपड़े के बारे में..। मुंबई के मशहूर संस्कृत विद्वान थे तलपड़े...। 1864 में इनका जन्म हुआ था...। राइट बंधुओं से आठ साल पहले, 1895 में इन्होंने एक विमान बनाया...। वैदिक तकनीक पर...। मरुताक्षी नाम दिया इसका...। मुंबई के चैपाटी समुद्र तट पर मानव रहित विमान उड़ाया भी...। 1500 फीट की उंचाई तक...। महशूर जज व राष्टवादी महादेव गोविंद रानाडे, बड़ोदरा के महाराज शिवाजी राव गायकवाड़ के साथ भारी दर्शकों के बीच....। लेकिन दुर्भाग्य से वह वहीं क्रैश हो गया....।


क्या कहेंगे आप विमान के प्रथम भारतीय आविष्कारक पर...????


यज्ञ का विज्ञान

03 दिसंबर 1984 की भोपाल गैस त्रासदी पर एक किताब पढ़ते समय अग्रेंजी समाचार पत्र "द हिंदू" की एक स्टोरी पर नजर पड़ी...। आपको भी सुनाता हूं...।


....जहरीली गैस मिथाइल आइसोसाइनेट का रिसाव होने के थोड़ी देर बाद अध्यापक एसएल कुशवाहा ने अपने घर में अग्निहोत्र यज्ञ करना शुरु कर दिया। इसके करीब बीस मिनट बाद गैस का असर उसके घर पर खत्म हो गया और उनकी जिंदगी बच गई....।


शल्य चिकित्सा और हम

भारतीय शल्य चिकित्सा का एक विवरण मद्रास गजेट (1793) में आया है...। इसके मुताबिक अग्रेजों की सहायता करने के नाराज टीपू सुल्तान ने 1793 में मराठा केवशजी सहित चार सैनिकों की नाक काट दी। ब्रिटिश कमांडिग अधिकारी इन्हें एक वैद्य के पास ले गया। वैद्य ने सर्जरी कर इनकी नाक ठीक की। 1794 में यह स्टोरी लंदन की जेंटलमेन मैगजीन में भी प्रकाशित हुई। इससे प्रेरित होकर ब्रिटिश सर्जन J.C. Carpue ने दो भारतीयों की सर्जरी की। बाद में यही काम जर्मन सर्जन Greafe ने भी किया।

कहने का मतलब यह कि भारतीय शल्य चिकित्सा पद्धति मराठा प्रदेश से यूरोप पहुंची। फिर 200 साल बाद प्लास्टिक सर्जरी के रूप में इसका यूरोप से आयात किया गया। जबकि हमारे यहां यह बहुत पहले से ही विकसित थी। ईसा पूर्व में ही। सुश्रुत संहिता में नाक, ओठ व कान की सर्जरी का विस्तार से वर्णन है।

मिट्टी और मकान

मकान बनाने के लिए मिट्टी की क्वालिटी जाननी जरूरी होती है। 5 वीं सदी ईसा पूर्व के कई संस्कृत ग्रंथों में इसका विस्तार से वर्णन है। आपको हैरत हो सकती है कि एक तकनीक का आज भी धड़ल्ले से प्रयोग होता है। इसके मुताबिक पहले जमीन में गहरा गड्ढा खोदा जाता है। फिर इससे निकली मिट्टी से दुबारा गड्ढ़ा भरा जाता है। अगर गड्ढा भरने के बाद भी मिट्टी बची रहती है तो पता चलता है कि संबंधित जमीन मजबूत है और यहां मकान बनाना उपयुक्त रहेगा।


पौराणिक आख्यान और फोटान सिद्धांत



आइए पौराणिक आख्यानों और फोटान सिद्धांत की तुलना की जाए। भगवान सूर्य, इनका सात रंग के सात घोड़ों का रथ, लगाम के तौर पर सांप...। इसकी जानकारी तो आपको होगी ही...। बात सर्प की करते हैं...। देखा जाए तो बनावट में इसका पिछला हिस्सा पतला और मुख चैड़ा होता है...। इसके फण पर मणि होती है और चाल तरंग जैसी होती है...। वहीं आधुनिक विज्ञान प्रकाश को फोटान नामक कणों का प्रवाह मानता है...। इसका न द्रव्यमान होता है न भार...। सारे मौलिक कणों की तरह इनमें भी तरंग व कण दोनों की प्रवृत्ति होती है...। इसका पिछला सिरा पतला और आगे धीरे-धारे चैड़ा होता जाता है। संस्कृत ग्रंथो में प्रकाश किरणों को प्रिथु मुखः कहा गया है...। इस तरह कहा जा सकता है कि बेशक हमारे पूर्वजों ने फोटान शब्द का उल्लेख नहीं किया...। इसका श्रेय आइंस्टीन को जाता है। लेकिन इसकी संभावना पूरी है कि वह इसके गुणों से परिचित थे...।


अर्जुन की छाल



28 जून 2003 को Wolfson Institute के Dr. N.J.Wald व Dr. M.R.Law की ब्रिटिश मेडिकल जर्नल में थिसिस प्रकाशित हुई थी...। इसमें पाॅलीपिल (Palypill) नामक एक टेबलेट हार्ट अटैक के लिए उपयुक्त बताई गई। हालांकि अभी यह दवा अभी भी निर्मित होने के चरण में है, लेकिन इस क्षेत्र के जानकारों ने इसका स्वागत किया है। आपको हैरत होगी कि इस दवा की बहुत सारी खूबियां अर्जुन की छाल में मौजूद हैं।

February 10, 2012

संस्कृति-Different Expressions-Hindu Mythology, Leadership.

A young girl and her father were on a pilgrimage. When they reached the temple of Shiva, her father said, “Lets collect bilva leaves and dhatura flowers and offer them to Shiva to show our devotion.” This is what the father and daughter did. Then, they reached a Vishnu temple, and her father said, “Lets collect tulsi leaves and offer it to Vishnu to show our devotion.” This is what the father and daughter did. Then they reached a Ganesha temple. On the father’s advice, the daughter offered blades of grass. At the temple of the Kali, the daughter was told to offer neem leaves and lemons. At the temple of Hanuman, she offered sesame oil.

The daughter was confused, “You say all gods are actually one.” “Yes,” the father confirmed. “Then why different offerings to different gods?” “Because,” said the father, “Each form is different and different forms need to be told the same thing in different ways. Each time we have expressed our devotion but the vehicle of communication has changed depending on the preferences of the recipient. That is why: the wild bilva and poisonous dhatura for the hermit Shiva, the fragrant tulsi for the romantic Vishnu, the rapidly regenerating grass for Ganesha who was resurrected with an elephant head, the sour lemon and bitter neem for Kali who consumes all things, negativity included, and sesame for Hanuman, the mighty wrestler, feared even by death.”

Often we want to communicate an idea to our customers. But we do not pay adequate attention to the method of communication. The method chosen should be the function of the customer. Different customers need different methods. But most corporations find the idea of customizing methods of communication rather inefficient. So they try to come up with an efficient standard method of communication, often at the cost of effectiveness.

Vishal had learnt in a training workshop the value of an ‘elevator speech’ to express his idea to a customer in less than a minute. He had used it many times. But it never had the desired effect – an appointment with the client. He wondered why. His colleague who had greater success with the elevator speech asked him over a cup of coffee, “In which language was the elevator speech for Mr. Masand?” English, said Vishal. “But you and I both know Mr. Masand prefers speaking in Hindi.”

At that moment the penny dropped. While speaking to the customer, Vishal was focusing on what he wanted to communicate and not on how it was received by the customer. Communication is not so much about the idea but about the customer. The method of communication depends on the capacity, capability and intent of the customer, and not so much on the capacity, capability and intent of the communicator. The reference point is the customer and not the communicator. This is often forgotten.

That is why the same devotion is expressed differently for different gods: bilva for Shiva, tulsi for Vishnu, grass for Ganesha, hibiscus for Kali and sesame for Hanuman!

संस्कृति-The waxing of the waning employee-Leadership

Chandra, the moon-god, disobeyed his father-in-law, Daksha Prajapati. Daksha had given him 27 wives and told him that he should love all wives equally. Chandra, however, preferred only one of them. An angry Daksha, therefore cursed Chandra, that he would suffer from the wasting disease. Each day, his luster would wane and eventually he would disappear forever. As a result, the moon started to wane. A terrified Chandra did not know what to do. Being a Deva, a sky-god, he turned to his king, Indra, and begged him for help. “The only person you can turn to is Shiva,” said Indra, “because he is not a Deva. He is a Maha-Deva, greater than all gods put together.”

Chandra went to Shiva but Shiva was a silent god, with eyes shut, deep in meditation. Chandra sat before him, trembling, afraid, desperate for help. Shiva opened his eyes, looked at the miserable moon-god. Without speaking a word, Shiva picked Chandra up and gently placed him on his forehead. Instantly, the moon began to wax once again. Daksha had caused Chandra to degenerate; Shiva had helped him regenerate. Chandra realized why Indra had addressed Shiva as Maha-deva; he was not just god (spelt without capitals). He was God (spelt in capitals). Chandra established the festival of Shiva-ratri each month, at the tail end of the waning half of the lunar month. And once a year, he established the Maha-Shiva-ratri, to mark the end of the winter months and the waxing of the summer seasons.

Offices are filled with Daksha Prajapatis and Shivas. Daksha Prajapatis are colleagues who cause us to wane. Meeting Daksha results in loss of luster, mood and enthusiasm. We feel depressed. Shivas ,on the other hand, have a calming effect. Without doing too much, just by their mere presence, they can energize and bring back enthusiasm in the most depressed of colleagues. Shiva is the colleague we seek out when we have the blues. Daksha is the colleague who we shun as he causes the blues.

Sandipani Mukherjee, an architect, is terrified of meeting Rakesh Rathod who works in the same design firm. Every time Rakesh joins a meeting, Sandipani feels depressed. Rathod is cynical and shoots every proposal down. When Sandipani comes up with an idea, Rakesh finds holes in them, and invariably makes Sandipani feel small and incompetent. But Sandipani cannot wish Rakesh away, they work in the same team and the same department and are on many common projects. Sandipani tries to rationalize the situation. He knows Rakesh does not mean ill but that is the way he is, unfortunately. The only way to survive is to walk across and meet Paritosh.

Paritosh is the admin manager who seems to be at peace with himself. He never gets angry, never raises his voice, and somehow gets every job done without much effort. Sandipani just goes to Paritosh’s workstation and sits there. They don’t talk. Paritosh simply goes about doing his work and just the gentle rhythm with which things gets done around Paritosh, energizes Sandipani. The world no longer feels like a terrible place as it does after an encounter with Rakesh. A cup of tea later, Sandipani returns to his desk, like the full moon, shining brightly, secure in the knowledge that should Rakesh make him wane, there is always Paritosh who will help him wax.

Source - My great leader Dr.Devdutt ji sahab..

संस्कृति-Elastic Time - Leadership Article







A king wanted the perfect groom for his daughter. So he travelled to the abode of the gods to find out who was the perfect man ever created. When he returned with the information, the world had changed dramatically: a hundred years had passed, his daughter and his entire family had died and no one remembered him. He was told that time flows faster in the realm of the gods, what is a day there is a hundred years on earth.

In another story, the gods asked a hermit to fetch them a pot of water. As the hermit dipped the pot in the water, he saw a beautiful girl and fell in love with her and asked her to marry him. She agreed then and there and so the hermit became a householder and had children by the woman, and the children had children of their own. In his old age, there was suddenly a great flood. The river broke its banks and washed away everything: his home, his children, his grandchildren, even his wife. He was left alone, without anything, when suddenly he heard the gods shout, “Please pull the pot out and give us the water!” The hermit realized he was dreaming while dipping the pot in the water.

In the first story, what seems like a day turn out to be a lifetime while in the second story, what seems like a lifetime turns out to be a second. In the former, time contracts. In the latter, time expands. This is a common theme in Hindu mythology. What makes time change qualitatively is attention. When you are concentrating, time contracts. When you are not concentrating,time expands.

Nikhilesh loves working with Mark. Mark has the ability to turn every project into a game with so much fun that everyone comes early to work, leaves late, no one feels tired. Time passes so quickly and weekends feel boring and terrible. Nikhilesh does not speak of work-life balance. Work is life and life is work. His wife enjoys seeing Nikhilesh this way as he brings the energy and joy of work back home to the delight of everybody.

Nikhilesh had a very different experience when he worked with Dinakar. Dinakar was no fun. Every meeting was a drag. Everybody had to fill in long reports and long forms. Everything was read and discussed but no one really paid attention. Every minute of the meeting was documented and filed and circulated. It was torture to go to work and joy to return home. But the boredom and irritable mood at office travelled home and Nikhilesh would often snap at his wife.

Mark managed to contract time by making everything a joyful activity. Dinakar expanded time by making everything a boring chore. Time passes fast when we are having a good time. Time moves slowly when we are not.

The best way to figure out organization culture is to see how people behave during lunchtime. If they are eagerly waiting for the break, then it means time is passing slowly at the workstation. If they forget the lunch break, then they clearly are doing something at the workstation they are enjoying a lot. Time is constantly contracting and expanding at the workplace.

February 09, 2012

संस्कृति - Proud to be indian -4 ( laws of planetary motion)

जर्मन खगोलविद Johannes Kepler ने ग्रहों की गति का नियम दिया। 1609 AD में।


लेकिन भारतीय विद्वान आर्यभट्ट ने इसका वर्णन किया है। केपलर से बहुत बहुत पहले, 5 वीं ईसवी सदी में।

आर्यभटीयम के अध्याय 3 का 17 वां श्लोक देखिए....इसका मतलब निकलता है कि...

सारे ग्रहों-उपग्रहों में गति होती है। धुरी पर घूमने के साथ यह अपनी दीर्घवृत्ताकार कक्षा में भी चक्कर लगाते हैं। दोनों गतियों की दिशा नियत रहती है।

साभार - अनिल कुमार त्रिवेदी जी




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आज चर्चा धरती की लट्टुई गति पर...। यह अपनी धुरी पर चक्कर लगाती है...। पश्चिम से पूर्व की ओर 23.5 अंश झुककर...। 23 घंटे 56 मिनट और 4 .091 सेकंड में...। माना जाता है कि फ्रांसीसी भौतिक विद Jean Bernard Leon Foucault ने 'Foucault पेंडुलम' बनाया। 1851 में। इससे धरती की दैनिक गति का पता चला...।

अब जिक्र आर्यभट्ट का करुंगा। 5 वीं सदी में इन्होंने आर्यभटीय लिखा। पुस्तक के अध्याय 4 का 9 वां श्लोक देखिए....।

अनुलोमगतिनौस्थः पश्यत्यचलं विलोमगं यद्वत्।
अचलानि भानि तद्वत् समपश्चिमगानि लड्.कायाम्।।

यानि जैसे ही एक व्यक्ति समुद्र में नाव से आगे बढ़ता है, उसे किनारे की स्थिर चीजें विपरीत दिशा में चलती दिखती हैं। इसी तरह स्थिर तारे लंका (भूमध्य रेखा) से पश्चिम की जाते दिखते हैं...।

February 08, 2012

संस्कृति - आजकल हम जन्मदिन किस प्रकार मनाते हैं ?(RITUALS and BIRTHDAY)

RITUALS and BIRTHDAY

आजकल हम जन्मदिन किस प्रकार मनाते हैं ?

पश्चिमी सभ्यता का अन्धानुकरण करने के युग में हम अपनी संस्कृति, सभ्यता एवं मनोबल को इतना अधिक गिरा चुके हैं की उन्हें उठने में और हमारा विश्वास जीतने में न जाने कितने युग बीत जायें कहा नहीं जा सकता ... हमारी वर्तमान संस्कृति में अधकचरापन आ गया है “ न पूरी ताकत से विदेशी हो पाए , न पूरी ताकत से भारतीय हो पाए, हम बीच के हो गए, खिचड़ी हो गए !! “ इसी कड़ी में जन्मदिवस को मनाये जाने पर हम एक चर्चा करने निकलें हैं आइये कुछ बातों पर ध्यान दें



१. आज हम जन्मदिन दिनांक अनुसार मनाते हैं तिथि के अनुसार नहीं, तिथि नुसार जन्मदिन मनाने से उस दिन हमारे सभी सूक्ष्म देह के द्वार आशीर्वाद हेतु खुल जाते हैं

२. आज हम अन्धानुकरण करते हुए अर्धरात्रि को शुभकामनायें देते हैं जो वास्तविक रूप में अशुभ की घड़ी होती है, किसी भी शुभकार्य को अर्धरात्रि में न कर उसे टालना चाहिए
वैदिक संस्कृति के अनुसार दिवस का आरम्भ सूर्योदय से होता है अतः शुभकामनायें सूर्योदय उपरांत ही देनी चाहिए

३. आज हम जन्मदिवस पर मोमबत्ती जलाते हैं, मोमबत्ती 'तम' प्रधान है� वहीँ 'दीप' राज-सत्त्व प्रधान होता है अतः जन्मदिन जैसे शुभ दिवस पर हम मोमबत्ती जलाकर तमो गुण का प्रभाव अपने अन्दर बढ़ाते हैं जबकि जन्मदिन पर हमें आरती उतारनी चाहिए

४. आज हम मोमबत्ती को जलाकर बुझाते हैं, ज्योत को मुख से फूंकना या उसे बुझाना दोनों ही अशुभ है इससे हमारे जीवन के अनिष्ट शक्ति के कष्ट बढ़ते हैं और तेज तत्त्व जो हमें तेजस्वी बनाता है उसके स्थान पर हम तमोगुणी बनाने का प्रयास करते है

५. किसी चीज को काटना एक विध्वंशक कृति है परन्तु हम केक काटते हैं और अन्नपूर्ण मां की अवकृपा उस शुभ दिवस में प्राप्त करते हैं जबकि हमें इस दिन दरिद्र, अनाथ या संत जन को अन्नदान करना चाहिए जिससे हम पर अन्नपूर्ण माँ की कृपा बनी रहे और घर पर खीर, हलवा जैसा भोग कुलदेवी को चढ़ाकर ग्रहण करना चाहिए और बांटना चाहिए

६. हम एक दूसरे को प्रेम का दिखावा करते हुए एक दूसरे को झूठन खिलाते हैं वस्तुतः झूठन कभी नहीं ग्रहण करना चाहिए इससे जिस व्यक्ति को अनिष्ट शक्ति का कष्ट होता है वह हमसे सहज ही संक्रमित हो जाता है (आज समाज में ३०% साधारण व्यक्ति को और ५०% अच्छे साधक को अनिष्ट शक्ति का कष्ट है )

७. उस दिन हम सहर्ष उपहार स्वीकार करते हैं इससे आध्यात्मिक दृष्टि से हमारा लेन-देन बढ़ता है और हम जन्म मृत्यु के चक्र में और जकड जाते हैं


८. हम होटल में जाकर तमोगुणी भोजन ग्रहण करते हैं




-संस्कृति अकबर से भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन तक : अयोध्या एक यात्रा PART 3

From Akbar to Indian Independence : Ayodhya - a journey through time




हुमायूँ के बाद अकबर का शासन काल आया, उसने अपने राज्य को १२ भागो मे विभक्त किया, अनुमानित है कि अकबर के शासन काल मे हिंदुओं ने लगभग २० बार जन्मभूमि को स्वतंत्र कराने की लडाईयां लडी, अकबर ने हिंदुओं के अधिकार को मान्यता देते हुए मस्जिद के बिल्कुल आगे एक चबूतरा बनाने और पूजा करने का अधिकार दिया, यही चबूतरा आज राम चबूतरा के नाम से जाना जाता है। इसके साथ ही अकबर ने राम और सीता मुद्रित चांदी के सिक्के (रामटका) भी बनवाये. और रामायण की सचित्र किताबे भी बनवाई. अकबरनामा व आइना ए अकबरी के लेखक अबुल फजल अयोध्या को राम का निवास व हिंदुओ की पुण्यभूमि मानते हैं।




जहांगीर के शासन काल मे १६०८ व १६११ के बीच विलियम फिंच ने अयोध्या की यात्रा की, उन्होंने भी अयोध्या में राम के होने की पुष्टि अपने लेख में की जिसे विलियम फोस्टर ने अपनी पुस्तक " अर्ली� ट्रेवल्स इन इंडिया " मे शामिल किया। १८५८ के बाद औरंगजेब के सरदार जांबाज खान ने अयोध्या पर हमला किया किंतु परास्त हुआ, गुरु गोविंद सिंह जी के अकालियों ने उसे रुदाली और सादातगंज मे हराया। १६६४ मे औरंगजेब स्वयं अयोध्या पहुंचा और राम चबूतरा तोडने के साथ साथ १०००० हिंदुओ को भी मार डाला.� लेकिन उसके बाद भी रामनवमी का पर्व अयोध्या मे मनाया जाता रहा. नवाब सलामत खान ने भी अमेठी के राजा गुरदत्त सिंह और पिंपरा के राजकुमार सिंह के साथ लडाई की। सादिक अली ने भी जन्मस्थान पर कब्जा करने की ५ लडाईयां छेडी।


१७५१ मे अवध के दूसरे नवाब सफदरजंग ने मराठाओं के सरदार मल्हार राव होल्कर को पठानों के विरुद्ध लडने के लिये आमंत्रित किया। मल्हार राव होल्कर ने समर्थन के लिये एक शर्त रखी कि हिंदुओं को उनके ३ तीर्थ स्थल अयोध्या, काशी और प्रयाग वापस दिये जाने चाहिये। १७५६ मे दोबारा शुजाउद्दौला ने अफगानियों के विरुद्ध मराठों से सहायता मांगी, मराठों ने ३ तीर्थ स्थान वापस हिंदुओं को देने की मांग की, किंतु दुर्भाग्यवश मराठाओं को पानीपत के युद्ध मे हार का सामना करना पडा। अनेकों मुस्लिम और यूरोपीय लेखकों ने इस बात को लिखा है कि मीरबाकी ने बाबर के आदेशानुसार रामकोट मे एक मंदिर को तोड कर उस पर मस्जिद बनाई, वो ये भी कहते हैं कि राम जन्म भूमि पर राम की पूजा की परंपरा रही है, और ये भी कहते हैं कि रामनवमी के दिन संपूर्ण भारत से लोग यहां उत्सव के लिये आते हैं। इनमे से कुछ लेखक इस प्रकार हैं ...



" डी हिस्ट्री एंड जियोग्राफी ऑफ इंडिया " जोसफ ताईपेनथालर, द्वारा १७८५;

" सफियाई चहल नसाई बहादुर शाही " बहादुर शाह की पुत्री द्वारा, १७वीं/ १८वीं शताब्दी;

" रिपोर्ट बाई मोंट कमरी मार्टिन " एक ब्रिटिश सर्वेक्षक, १८३८;

" द इस्ट इन्डिया कंपनी गजेटीयर " एडवर्ड फाऊनटेन द्वारा, १८५४;

" हडियोकाई शहादत " मिर्ज़ा जान द्वारा, १८५६;



इसके बाद के अपेक्षाकृत शांतिकाल मे भी ऊधवदास और बाबा रामचरन दास ने नसीरुद्दीन हैदर और वाजिद अली शाह के शासन काल मे जन्मभूमि की मुक्ति के प्रयास जारी रखे। १८५७ मे आमिर अली ने जिहाद की घोषणा की और १७० आदमियों के साथ हनुमान गढी पर आक्रमण किया किंतु अपने जिहाद के साथ वह भी हार गया। इसके पश्चात १८५७ की क्रांति आई, जब हिंदू और मुस्लिम दोनों ने मिलकर अंग्रेजों के विरुद्ध लडाई की, तब एक मौलवी आमिर अली ने स्थानीय मुस्लिमो को समझा कर रामजन्मभूमि हिंदुओ को सौंपनी के लिये तैयार कर लिया। किंतु अंग्रेजो ने फूट डाल कर राज करने की अपनी रणनीति के द्वारा आमिर अली और बाबा रामचंद्र दास को अयोध्या मे ही एक इमली के पेड पर लटका कर फांसी दे दी। आज भी वह इमली का पेड उस घटना का प्रत्यक्षदर्शी बना अयोध्या मे खडा है।


सार्जेंट जनरल एडवर्ड बॉल्फर के एन्साइक्लोपिडिया ऑफ इंडिया में मंदिर के स्थान पर तीन मस्जिदों का उल्लेख किया गया है। एक जन्मस्थल पर, दूसरी स्वर्गद्वार पर और तीसरी त्रेता का ठाकुर पर ऊपर बताई गयी। किताबों के अतिरिक्त अन्य पुस्तकें भी हैं जिसमे इन बातों का उल्लेख आता है, यह किताबें हैं ...



" फ़साना-ए-इबरत " मिर्ज़ा राजम अली बेग द्वारा, १८६७;

" तरीक-ए-अवध " शेख मोहम्मद अली जरत द्वारा, १८६९;

" अ हिस्टोरिकल ऑफ फैजाबाद " पी.कार्नेगी द्वारा, १८७०;

" द गजेटीयर ऑफ द प्रोविंस ऑफ आगरा एंड ओउध " १८७७;

" द इम्पीरियल गजेटीयर ऑफ फैजाबाद " १८८१;

" गुमश्ते-हालात-ए-अयोध्या " मौलवी अब्दुल करीम द्वारा;



1१८८६ मे मौहम्मद असगर की याचिका पर न्यायमूर्ति कर्नल एफ ई ए शॉमायर ने अपने फैसले मे कहा.. " हिंदुओ की पवित्र भूमि पर मस्जिद बनाना दुर्भाग्यपूर्ण है, किंतु यह कार्य ३५६ वर्ष पूर्व १५३० मे किया गया। अतः इसका आज हल निकालना संभव नही है। " १९३४ मे अयोध्या मे हिंदू मुस्लिम दंगा हुआ, मस्जिद के आस पास हुए दंगे से ढांचे को नुकसान हुआ ...






संस्कृति - राम से बाबर तक : अयोध्या एक यात्रा PART 2

 From Ram to Babur : Ayodhya - a journey through time





इसके पश्चात फिर से राम भक्ति की परंपरा चलती रही, कई साहित्यिक एवं धार्मिक श्रोत अयोध्या महात्म्य में नज़र आते हैं जो १२ या १३ शताब्दी मे लिखा गया। अयोध्या महात्म्य में अनेकों जगह ऐसी कई बातें हैं, जो अयोध्या को महानतम मोक्ष मुक्तिदायक बनाते हैं।


तस्मात स्थानवं एशाने रामजन्म प्रवर्तते, जन्मस्थातं इदं प्रोक्त मोक्षादिफलसाधनं

विघ्नेश्वरात्पूर्वमागे वसिष्ठात उत्तरेतथा लौमशात पश्च्मे भागे जन्मस्थानं तत



अयोध्या मयात्म्य मे जन्मस्थान का विवरण और उसके निश्चित जगह का ब्यौरा है, और इसके साथ ही यह भी लिखा है कि रामनवमी के दिन जन्मस्थान के दर्शन से पुनर्जन्म टलता है। मोक्ष मिलता है, लाखों हिंदु अयोध्या महात्म्य मे लिखी बातों का विश्वास कर अयोध्या जाते रहे।

१५२६ मे मध्य एशिया के फरगाना प्रांत से बाबर का प्रवेश हुआ, १६ मार्च १५२७ को बाबर ने राणा सांगा को हरा कर दिल्ली पर कब्जा किया, यह मुगल साम्राज्य की शुरुआत थी, कुछ समय बाद बाबर ने अपने� सिपहसालार मीर बाकी को अयोध्या पर आक्रमण करने का आदेश दिया। " शहंशाह हिंद बादशाह बाबर के हुक्म व हजरत जलालशाह के हुक्म के बामुजिन अयोध्या मे रामजन्मभूमि को मिस्मार कर के उसकी जगह पर उसी के मलबे और मसाले से मस्जिद तामीर करने की इजाजत दे दी गई है, बाजरिये इस हुक्म नामे के तुमको बतौर इत्तिला से आगाह किया जाता है कि हिंदुस्तान के किसी सूबे से कोई भी हिंदू अयोध्या ना जाने पावे, जिस शख्स पर ये शुबहा हो कि वो वहॉ जाना चाहता है, उसे फौरन गिरफ्तार कर के दाखिल ए जिंदा कर दिया जावे, हुक्म का सख्ती से तामील हो, फर्ज समझ कर। "

(यह आदेश पत्र ६ जुलाई १९२४ के मॉडर्न रिव्यू के दिल्ली से प्रकाशित अंक मे प्रकाशित हुआ है.)



२३ मार्च १५२८ तक एक लाख सत्तर हजार से अधिक लोग जन्म भूमि स्थान पर लडते लडते मारे गये और अंत मे हार गये। मीर बाकी ने बाबर के आदेशों का पालन करते हुए जन्मस्थल मंदिर को ध्वस्त किया और उसी स्थान पर मस्जिद बनाई। कहा जाता है जब मीर बाकी के लोग मस्जिद बना रहे थे, तो प्रत्येक दिन को होने वाला काम रात को ढह जाता था. बाबर ने अपने आत्म चरित्र ताजुक ए बाबरी मे लिखा है।

" अयोध्या के राम जन्मभूमि मंदिर को मिस्मार करके जो मस्जिद तामीर की जा रही है उसकी दीवारें शाम को आप से आप गिर जाती हैं। इस पर मैने खुद जा के सारी बातें अपनी ऑखो से देख कर चंद हिंदू ओलियाओं कीरों को बुला कर ये मसला उन के सामने रखा। इस पर उन लोगों ने कई दिनों तक गौर करने के बाद मस्जिद में चंद तरमीमें करने की राय दी। जिनमें पाँच ख़ास बातें थी... यानी मस्जिद का नाम सीता पाक या रसोई रखा जाए, परिक्रमा रहने दी जाए, सदर गुंबद के दरवाजे में लकड़ी लगा दी जाए, मीनारें गिना दी जाए, और हिंदुओं को भजन पाठ करने दिया जावे। उनकी राय मैने मान ली, तब मस्जिद तैयार हो सकी। "

यहां एक विचार बहुत आश्चर्यजनक है, मीनारें किसी भी मस्जिद का एक प्रमुख हिस्सा होती है, जबकि परिक्रमा हिंदू मंदिरों का, बनाई गई मस्जिद में ये दो अपवाद हिंदुओं के मंदिर को बिना मूर्ति के मंदिर मे परिवर्तित करने जैसा ही है। इस ढांचे का नाम सीता पाक रखा गया जो बाद मे बाबरी मस्जिद नाम से प्रचारित किया गया।

१२ अप्रैल १५२८ से १८ सितंबर १५२८ तक के बाबर की दिनचर्या के विवरण उपलब्ध नही हैं, शायद दिनचर्या के ये पन्ने १७ मई १५२९ के तूफान मे या १५४० के हुमांयु के रेगिस्तान में निवास के कारण नष्ट हुए हों। ३ जून १५२८ को सनेथु के देवीदीन पांडे और महावत सिंह ने मीरबाकी पर हमला किया, स्वयं देवीदीन पांडे ने ५ दिन मे ६०० सैनिको को मार गिराया। किंतु बाद मे देवीदीन को मीरबाकी ने मार गिराया। १५२९ को ईद के दिन राणा रण विजय ने जन्मस्थल की मुक्ति के लिये फिर प्रयास किया, किंतु कुछ ना हो सका। १५३० मे बाबर की मृत्यु हुई, उसके पश्चात उसके पुत्र हुमायू ने गद्दी संभाली, उसके शासन काल मे १५३० से १५५६ तक रानी जयराज कुमारी और स्वामी महेश्वरा नंद ने जन्मस्थान की मुक्ति हेतु १० बार प्रयास किया। जन्मभूमि का नियंत्रण बार बार एक पक्ष से दूसरे पक्ष की ओर जाता रहा।



संस्कृति -अपराजेय अयोध्या : अयोध्या एक यात्रा PART 1

Ayodhya - the ‘Unconquerable’ : Ayodhya - a journey through time







अयोध्या अपने शाब्दिक अर्थ के अनुसार यह अपराजित है.. यह नगर अपने २२०० वर्षों के इतिहास मे अनेकों युद्धों व संघर्षो का प्रत्यक्ष दर्शी रहा है, अयोध्या को राजा मनु द्वारा निर्मित किया गया और यह श्री राम जी का जन्मस्थल है। इसका उल्लेख प्राचीन संस्कृत ग्रंथों जिसमे रामायण व महाभारत सम्मिलित हैं, में आता है। वाल्मिकि रामायण के एक श्लोक मे इसका वर्णन निम्न प्रकार है।


कोसलो नाम मुदितः स्फीतो जनपदो महान्। निविष्ट सरयूतीरे प्रभूत-धन-धान्यवान् ॥१-५-५॥

अयोध्या नाम नगरी तत्रऽऽसीत् लोकविश्रुता। मनुना मानवेन्द्रेण या पुरी निर्मिता स्वयम् ॥१-५-६॥

— श्रीमद्वाल्मीकीरामायणे बालकाण्डे पञ्चमोऽध्यायः



श्री ग्रिफैत्स जो 19 शताब्दी के आख़िर मे बनारस कॉलेज के मुख्य अध्यापक रहे... उन्होने रामायण मे अयोध्या के वर्णन को बड़ी सुंदरता से इस प्रकार अनुवादित किया, उनके शब्दों के अनुसार - " उस नगरी के विशाल एवं सुनियोजित रास्ते और उसके दोनो ओर से निकली पानी की नहरें जिस से राजपथ पर लगे पेड़ तरो ताज़ा रहें और अपने फूलो की महक को फैलाते रहें। एक कतार से लगे हुए और सतल भूमि पर बने बड़े बड़े राजमहल हैं, अनेक मंदिर एवं बड़ी बड़ी कमानें, हवा मे लहराता विशाल राज ध्वज, लहलहाते आम के बगीचे, फलों और फूलों से लदे पेड़, मुंडेर पर कतार से लगे फहराते ध्वजों के इर्द गिर्द और हर द्वार पर धनुष लिए तैनात रक्षक हैं। "

कौशल राज्य के नरेश राजा दशरथ राजा मनु के ५६ वंशज माने जाते हैं, उनकी ३ पत्नियां थी, कौशल्या, सुमीत्रा व कैकेयी, ऐसा माना जाता है श्री राम का जन्म कौशल्या मंदिर मे हुआ था, अतः उसे ही राम जन्म स्थल कहा जाता है. ब्रह्मांड पुराण में अयोध्या को हिंदुओं ६ पवित्र नगरियों से भी अधिक पवित्र माना गया है। जिसका उल्लेख इस पुराण मे इस प्रकार किया गया है -

अयोध्य मथुरा माया, काशी कांचि अवंतिका, एताः पुण्यतमाः प्रोक्ताः पुरीणाम उत्तमोत्तमाः


महर्षि व्यास ने श्री राम कथा का वर्णन उनके द्वारा रचित महाभारत के वनोपाख्यान खंड मे किया है, अयोध्या सदियों से अयोध्या वासियों द्वारा बारंबार निर्मित की गयी है, यह अयोध्या वासियोम की जिजीविषा ही है कि वह इस नगर को अनेकानेक बार पुनर्रचित कर चुके हैं। अलक्षेंद्र (सिकंदर) के लगभग २०० वर्ष बाद, मौर्य शासन काल के दौरान जब बौद्ध धर्म अपनी चरम सीमा पर था, एक ग्रीक राजा मेनंदार अयोध्या पर आक्रमण करनी की नीयत से आया, उसने बुद्ध धर्म द्वारा प्रभावित होने का ढोंग कर बौद्ध भिक्षु होने का कपट किया और अयोध्या पर धोखे से आक्रमण किया एवं इस आक्रमण मे जन्मस्थल मंदिर ध्वस्त हुआ, किंतु सिर्फ़ 3 महीने मे शुंग वंशिय राजा द्युमतमतसेन द्वारा मेनंदार पराजित किया गया और अयोध्या को स्वतंत्र कराया गया।



जन्म स्थान मंदिर की पुनर्रचना राजा विक्रमादित्य ने की, इतिहास मे 6 विक्रमादित्यो का उल्लेख आता है, इस बात पर इतिहासविद एक मत नही है कि किस विक्रमादित्य ने मंदिर का निर्माण किया। कुछ के अनुसार वो विक्रमादित्य जिसने शको को सन ५६ ई.पू. मे पराजित किया और जिसके नाम से शक संवत चलता है, तो कुछ कहते हैं स्कंदगुप्त जो स्वयं को विक्रमादित्य कहलाता था, उसने 5 वी शताब्दी के अंत मे मंदिर निर्माण किया। पी. करनेगी की किताब " ए हिस्टॉरिकल स्कैच ऑफ फ़ैज़ाबाद " मे कही बात साधारणतया सर्वमान्य है। उसमे वो कहते हैं, विक्रमादित्य के पुरातन शहर ढूँढने का मुख्य सूत्र यह है कि जहाँ सरयू बहती है और भगवान शंकर का रूप नागेश्वर नाथ मंदिर जहाँ है। ये भी माना जाता है की विक्रमादित्या ने करीब ३६० मंदिर अयोध्या मे बनवाए और इसके बाद हिंदुओं द्वारा श्री राम की पूजा निरंतर चलती रही.. इसकी पुष्टि नासिक स्थित सातवाहन राजा द्वारा बनाई पुरातन गुफा के शिला लेख मे मिलती है, बहुचर्चित संस्कृत नाटककार भास ने भगवान राम को अर्चना अवतार मे जोड़ा है।



नमो भगवते त्रैलोक्यकारणाय नारायणाय

ब्रह्मा ते ह्रदयं जगतत्र्यपते रुद्रश्च कोपस्तव

नेत्र चंद्रविकाकरौ सुरपते जिव्हा च ते भारती

सब्रह्मेन्द्रमरुद्रणं त्रिभुवनं सृष्टं त्वयैव प्रभो

सीतेयं जलसम्भवालयरता विश्णुर्भवान ग्रह्यताम



श्री राम को विष्णु अवतार मे पूजा जाने की परंपरा है, जिसका प्रमाण पुरानी दस्तकारी एवं शिला लेखों मे मिलते हैं। चौथी शताब्दी के रामटेक मंदिर की दस्तकारी, सन ४२३ ए.डी. का कंधार का शिलालेख, सन ५३३ ए.डी. का बादामी का चालुक्य शिलालेख, आठवीं शताब्दी (ए.डी) का मामल्लापुरम का शिलालेख, ११वीं शताब्दी में जोधपुर के नज़दीक बना अंबा माता मंदिर, ११४५ ए.डी. का रेवा जिले के मुकुंदपुर में बना राम मंदिर, ११६८ ए.डी. का हँसी शिलालेख, रायपुर जिले के राजीम मे बना राजीव लोचन मंदिर इनमे से कुछ हैं।



१२ शताब्दी में अयोध्या मे पांच मंदिर थे, गौप्रहार घाट का गुप्तारी, स्वर्गद्वार घाट का चंद्राहरी, चक्रतीर्थ घाट का विष्णुहरी, स्वर्गद्वार घाट का धर्महरी, और जन्मभूमि स्थान पर विष्णु मंदिर, इसके बाद जब महमूद ग़ज़नवी ने भारत पर आक्रमण किया तो उसने सोमनाथ को लूटा और वापस चला गया. किंतु उसका भतीजा सालार मसूद अयोध्या की ओर बढ़ा, १४ जून १०३३ को मसूद अयोध्या से ४० किलोमीटर दूर बहराइच पहुँचा, यहाँ सुहैल देव के नेतृत्व मे सेना एकत्र हुई और मसूद पर आक्रमण किया दिया, जिसमे मसूद की सेना परास्त हुई, और मसूद मारा गया. मसूद के चरित्रकार अब्दुल रहमान चिश्ती मिरात ए मसूदी मे कहते हैं,



" मौत का सामना है, फिराक़ सूरी नज़दीक है, हिंदुओं ने जमाव किया है, इनका लश्कर बे-इंतेहाँ है. नेपाल से पहाड़ों के नीचे घाघरा तक फौज मुखालिफ़ का पड़ाव है। मसूद की मौत के बाद अजमेर से मुज़फ्फर ख़ान तुरंत आया, पर वो भी मारा गया... अरब ईरान के हर घर का चिराग बुझा है। "




संस्कृति - BHAGAT SINGH



शहीदे आज़म भगत सिंह

सिर्फ आज़ादी हमारा मकसद नहीं है आज़ादी का मतलब क्या है है कि हुकूमत अंग्रेज़ों के हाथ से निकलकर मुटठी भर रईस और ताकतवर हिन्दुस्तानियों के हाथ लग जाये क्या यही आज़ादी है इससे आम आदमी की ज़िन्दगी पर कोई फर्क आयेगा क्या मजदूर और किसान वर्ग के हालात बदलेंगे उन्हें उनका सही हक मिलेगा नहीं आज़ादी सिर्फ पहला कदम है कारमेडस् मकसद है एक वतन बनाना एक एसा वतन जहाँ हर तबके के लोगों को बराबरी से जीने का हक मिले जहां मज़हब के नाम पर समाज में बँटवारा ना हो एक ऐसा वतन जो इन्सान का इन्सान पर जुल्म बर्दाश्त न करे यह मुश्किल है पर असंभव नहीं हिन्दुस्तान जहाँ इतनी सारी जातियाँ भाषाऐं कल्चर हैं उसे एक साथ जोडे रखना आसान नहीं मगर हम इस बात को हम आज नहीं समझेंगे और इस मसले को लेकर आज संघर्ष नहीं करेंगे तो हिन्दुस्तान एक आज़ाद मुल्क तो होगा पर एक भ्रष्ट शोषक और साम्प्रदायिक समाज़ बन कर रह जायेगा कारमेडस् हम सब को मिलकर बनाना है एक समाजवादी वतन और ये हमारी पाट्री के नाम में साफ झलकना चाहिये इसीलिये हिन्दुस्तान रिपब्लिक एसोसियेशन को अब हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसियेशन के नाम से बनाना है।


क्या आप लोग मेरे साथ हैं

शहीदे आज़म भगत सिंह

PROUD TO BE INDIAN--2 (Radio Invention)



और कुछ बातें भी हैं बताने को समस्त विश्व के सामने राखी गयी जानकारी के अनुसार रेडियो ला आविष्कारक मारकोनी ने 188 में किया है.


लेकिन ऐसा लिखने से पूर्व वे एक घटना को भूल जाते हैं.

मारकोनी के आविष्कार के कई वर्ष पूर्व 1855 में आचार्य जगदीशचन्द्र बसु बंगाल के अंग्रेज गवर्नर के सामने अपने आविष्कार का प्रदर्शन कर चुके थे।उन्होंने विद्युत तरंगों से दूसरे कमरे मे घंटी बजाई और बोझ उठवाया और विस्फोट करवाया। आचार्य बसु ने अपने उपकरणों से 5 मिलीली.की तरंग पैदा की जो अब तक मानी गई तरंगों में सबसे छोटी थी। इस प्रकार बेतार के तारों के प्रथम आविश्कारक आचार्य बसु ही थे। बसु ने अपने उपरोक्त आविश्कारों का इंग्लैंड में भी प्रदर्शन किया।इन प्रदर्शनों से अनेक तत्कालीन वैज्ञानिक आष्चर्यचकित हो गये। उपरोक्त प्रयोगों को आधार बनाकर जब नये प्रयोग उन्होंने प्रारम्भ किये तो वे इस निश्कषर् पर पहुंचे कि सभी पदार्थों में जीवन प्रवाहित हो रहा है। अपने प्रयोग...ों द्वारा उन्होंने यह सिध्द कर दिया कि पेड़ पौधों में भी जीवन का स्पंदन है।.



और वनस्पतियों पर शोध करते समय उन्होंने एक ऐसे यंत्र का निर्माण किया जिससे सूक्ष्म तरंगों के प्रवाह से पानी गरम हो गया यह प्रयोग आगे बढाने के लिए धन के आभाव ने इस प्रयोग को वहीं रोक दिया परन्तु कृपया एक बार पुन्ह ध्यान दें कि पानी कैसे गर्म हुआ और फिर सोचें माइक्रोवेव क्या करता है.



लेकिन आचार्य बसु का ध्यान पेटेंट करवाने में समय व्यर्थ ना करने के स्थान पर विज्ञानं की अधिक से अधिक सेवा में था इसका फायदा उठाकर इन पश्च्यात जगत के तकनीकज्ञों ने कलपुर्जे जोड़कर रेडियो और माइक्रोवेव का नाम देकर पेटेंट करवा दिया और खुद को वैज्ञानिक के रूप में विश्व के सामने प्रेषित किया.
 
मेरे मित्र अनुराग राम से प्रस्तुत

PROUD TO BE INDIAN---1 (Misc Subject)

कब तक शर्म करते रहेंगे अपने भारतीय होने पर ?

आज जिसे पाइथागोरस सिद्धांत का नाम दिया जाता है या ग्रीक गणितज्यों की देन कहा जाता है वो सारे भारत में बहुत पहले से उपयोग में लाए जा रहे थे... इसमेम कौन सी बडी़ बात है अगर ये कहा जाय कि उनलोगों ने यहाँ से नकल कर अपनी वाहवाही लूट ली...

पाई का मान सबसे पहले बुद्धायन ने दिया था पाइथागोरस से कई सौ साल पहले... अपनी कक्षा में पृथ्वी द्वारा सूर्य की परिक्रमा करने की अवधि हमारे गणितज्य भष्कराचार्य ने हजारों साल पहले ही दे दिया था जो अभी से ज्यादा शुद्ध है... 365.258756484 दिन

विश्व का पहला विश्वविद्यालय तक्षशिला में स्थापित हुआ था ७००ईसा पूर्व जिसमें पूरे विश्व के छात्र पढ़ने आया करते थे तभी तो इसका नाम विश्वविद्यालय पडा़... (इसी विश्वविद्यालय को अँग्रेजी में अनुवाद करके यूनिवर्सिटी नामकरण कर लिया अँग्रेजों ने..) इसमें ६० विषयों की पढा़ई होती थी... इसके बाद फ़िर ३००साल बाद यानि ४०० ईसा पूर्व नालंदा में एक विश्वविद्यालय खुला था जो शिक्षा के क्षेत्र में भारतीयों की महान उपलबद्धि थी.. {*{एक मुख्य बात और कि हमारे महान भारतीय परम्परा के अनुसार चिकित्सा और शिक्षा जैसी मूलभूत चीजें मुफ़्त दी जाती थी इसलिए इन विश्वविद्यालयों में भी सारी सुविधाएँ मुफ़्त ही थी,,रहने खाने सब चीज की... इसमें प्रतिस्पर्द्धा के द्वारा बच्चों को चुना जाता था... इस विश्वविद्यालय की महानता का अंदाजा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि यहाँ पढ़ने को इच्छुक अनगिनत छात्रों को दरबान से शास्त्रार्थ करके ही वापस लौट जाना पड़ता था... आप सोच सकते हैं कि जिसके दरबान इतने विद्वान हुआ करते थे उसके शिक्षक कितने विद्वान होते होंगे... यहाँ के पुस्तकालय में इतनी पुस्तकें थी कि जब फ़िरंगियों नेर इसमें आग लगा दी तो सालों साल तक ये जलता ही रहा...

सभी यूरोपीय भाषाओं की जननी संस्कृत है.और १९८७ ई० में फ़ोब्स पत्रिका ने ये दावा किया था कि कमप्युटर लैंग्वेज की सबसे उपयुक्त भाषा है...

मनुष्यों द्वारा ज्यात जानकारी में औषधियों का सबसे प्राचीन ग्रंथ आयुर्वेद जिसे चरक जी ने २५००ई०पूर्व संग्रहित किया था... उन्हें चिकित्सा-शास्त्र का पिता भी कहा जाता है... {*{पर हमारे धर्मग्रंथ के अनुसार तो आयुर्वेद हजारों करोडो़ साल पहले धन्वन्तरि जी लेकर आए थे समुंद्र-मंथन के समय}*}

६००० साल पहले सिंधु नदी के किनारे नेविगेशन (समुंद्री यातायात या परिवहन) का विकास हो चुका था..उस समय सारे विश्व को विशाल बरगद वृक्ष के लकडी़ का नाव बनाकर भारत ही दिया करता था....ये शब्द नेविगेशन संस्कृत के नवगातिह से बना है..नौसेना जिसका अँग्रेजी शब्द नेवी (navy) है वो भी हमारे संस्कृत शब्द nau (नौ) से बना है...

सबसे पहला नदी पर बाँध सौराष्ट्र में बना था... इससे पहले के इतिहास का साक्ष्य भले ना हो पर ये सब कला इससे भी काफ़ी पुरानी है... अज भले ही भारत की प्राचीन उपलब्धियों को गिनाना पड़ रहा है क्योंकि काफ़ी लम्बे सालों के प्रयास से दुश्मनों ने इसे लगभग विलुप्त कर दिया गया है नहीं तो इसे गिनाने की जरुरत नहीं पड़ती फ़िर भी अभी भी ये संभव नहीं है कि कोई हमारी उपलब्धियों को १०-१५ वाक्य लिखकर गिना दे... ये तो अनगिनत हैं...

अभी सब भारत को भले ही गरीब-गरीब कहकर मजाक उडा़ ले पर उस समय सारा विश्व इसपे अपनी नजरें गडा़ए रहता था... कोलंबस और वास्कोडिगामा भारत के बेशुमार धन को ही देखकर ही तो लालच में पड़ गया था तभी तो उस दुष्कर अनजान यात्रा पर निकल पडा़ जिसमें अगर उसका भाग्य ने साथ ना दिया होता तो जीवन भर समुंद्र में ही भटक-भटक कर अपने प्राण गँवा देता... और मैंने तो ये भी सुना है कि अँग्रेज १७ दिन तक या शायद एक-डेढ़ महीने तक सोना ढोता रहा था फ़िर भी यहाँ का सारा सोना इंग्लैण्ड ना ले जा पाया... वैसे छोडि़ए अँग्रेजों की बात को ये तो चोर-डकैत होते ही हैं अभी भले हमलोगों को चोर-डकैत कहता रहता है... बात करते हैं हमारे धर्मराज युधिष्ठिर की जिन्होंने राजसूय यज्य में सैकडो ब्राह्मणों को सोने की थाली में भोजन करवाया था और फ़िर वो थाली उन्हें दान में दे दी थी... और ये अँग्रेज जब हमलोगों को लूट रहे थे उस समय वो असभ्य,बहशी,लूटेरा,लालची,चोर-डकैत नहीं था अब जब हमलोगों के पास कुछ बचा नहीं लूटने को और उसके पास धन-दौलत का ढेर लग गया तो उसे डर लगने लगा कि कहीं उससे लूटा हुआ धन हमलोग छीन ना लें तो हमलोग को चोर-बदमाश कहकर बदनाम करने लगे... अभी अब शरीफ़ और सभ्य बनते हो... ये तो वही बात हुई कि १०० चूहे खाकर बिल्ली (जो अब शिकार करने में अक्षम हो गयी हो) हज करने को चली...

साभार श्रेष्ठ भारत

मेरी शिक्षा मातृभाषा में हुई, इसलिए ऊँचा वैज्ञानिक बन सका - अब्दुल कलाम


MERI SHIKSHA MATRABHASHA MAIN HUE, ISLIYE UNCHA VAGYANIK BAN SAKA-ABDUL KALAM






उच्च तकनीकी क्षेत्र जैसे उपग्रह निर्माण जिसे उच्च तकनीक कहा जाता जो बहुत कठिन एवं क्लिष्ट तकनीक होती है, उसमें आज तक कोई विदेशी कंपनी इस देश में नहीं आई

भारत जिसने १९९५ एक आर्यभट्ट नमक उपग्रह अंतरिक्ष में छोड़ा एवं उसके उपरांत हमारे अनेकों उपग्रह अंतरिक्ष में गए है
अब तो हम दूसरे देशों के उपग्रह भी अंतरिक्ष में छोड़ने लगे है इतनी तकनीकी का विकास इस देश में हुआ है यह संपूर्ण स्वदेशी पद्दति से हुआ है, स्वदेशी के सिद्धांत पर हुआ है एवं स्वदेशी आंदोलन की भावना के आधार पर हुआ है
इसमें जिन वैज्ञानिकों ने कार्य किया है वह स्वदेशी, जिस तकनीकी का उपयोग किया गया है वह स्वदेशी, जो कच्चा माल उपयोग किया गया है वह स्वदेशी, इसमें जो तकनीक एवं कर्मकार लोगों का सहयोग प्राप्त हुआ वह सब स्वदेशी, इनको अंतरिक्ष में प्रक्षेपित करने हेतु जो कार्य हुआ है वह भी हमारी प्रयोगशालाएं स्वदेशी इनके नियंत्रण का कार्य होता है वह प्रयोगशालाएं भी स्वदेशी तो यह उपग्रह निर्माण एवं प्रक्षेपण का क्षेत्र स्वदेशी के सिद्धांत पर आधारित है
एक और उदाहरण है " प्रक्षेपास्त्रों के निर्माण " (मिसाइलों को बनाने) का क्षेत्र आज से तीस वर्ष पूर्व तक हम प्रक्षेपास्त्रों के लिए दूसरे देशों पर निर्भर थे या तो रूस के प्रक्षेपास्त्र हमे मिले अथवा अमेरिका हमको दे किंतु पिछले तीस वर्षों में भारत के वैज्ञानिकों ने विशेष कर " रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन " (डी.आर.डी.ओ.) के वैज्ञानिकों के अथक परिश्रम कर प्रक्षेपास्त्र बनाने की स्वदेशी तकनीकी विकसित की १०० ,२०० ,५०० ... से आगे बढ़ते हुए आज हमने ५००० किमी तक मार करने की क्षमता वाले प्रक्षेपास्त्रों को विकसित किया है
जिन वैज्ञानिकों ने यह पराक्रम किया है परिश्रम किया है वह सारे वैज्ञानिक बधाई एवं सम्मान के पात्र है, विदेशों से बिना एक पैसे की तकनीकी लिए हुए संपूर्ण स्वदेशी एवं भारतीय तकनीकी पद्दति से उन्होंने प्रक्षेपास्त्र बना कर विश्व के सामने एक आदर्श प्रस्तुत किया
जिन वैज्ञानिकों ने यह सारा पराक्रम किया सारा परिश्रम किया महत्व की बात उनके बारे में यह है की वह सब यहीं जन्मे, यहीं पले-पढ़े, यहीं अनुसंधान (रिसर्च) किया एवं विश्व में भारत को शीर्ष पर स्थापित कर दिया

श्री ए.पी.जे. अब्दुल कलाम, भारत में प्रक्षेपास्त्रों की जो परियोजना चली उसके पितामहः माने जाते है
श्री ए.पी.जे. अब्दुल कलाम जी से जब एक दिवस पूछा गया की आप इतने महान वैज्ञानिक बन गए, इतनी उन्नति आपने कर ली, आप इसमें सबसे बड़ा योगदान किसका मानते है तो उन्होंने उत्तर दिया था की " मेरी पढ़ाई मातृभाषा में हुई है अतैव मैं इतना ऊँचा वैज्ञानिक बन सका हूँ ", आपको ज्ञात होगा कलाम जी की १२ वीं तक की पढ़ाई तमिल में हुई है
उसके उपरांत उन्होंने थोड़ी बहुत अंग्रेजी सीख स्वयं को उसमें भी दक्ष बना लिया किंतु मूल भाषा उनकी पढ़ाई की तमिल रही
कलाम जी के अतिरिक्त इस परियोजना में जितने और भी वैज्ञानिक है उन सभी की मूल भाषा मलयालम, तमिल, तेलगु, कन्नड़, बांग्ला, हिंदी, मराठी, गुजराती आदि है अर्थात हमारी मातृभाषा में जो वैज्ञानिक पढ़ कर निकले उन्होंने स्वदेशी तकनीकी का विकास किया एवं देश को सम्मान दिलाया है
परमाणु अस्त्र निर्माण एवं परिक्षण भी श्री होमी भाभा द्वारा स्वदेशी तकनीकी विकास के स्वप्न, उसको पूर्ण करने हेतु परिश्रम की ही देन है
अब तो हमने परमाणु अस्त्र निर्माण एवं परिक्षण के अतिरिक्त उसे प्रक्षेपास्त्रों पर लगा कर अंतरिक्ष तक भेजने में एवं आवश्यकता पढ़ने पर उनके अंतरिक्ष में उपयोग की सिद्धि भी हमारे स्वदेशी वैज्ञानिकों ने अब प्राप्त कर ली है
यह भी संपूर्ण स्वदेशी के आग्रह पर हुआ है
अब तो हमने पानी के नीचे भी परमाणु के उपयोग की सिद्धि प्राप्त कर ली है संपूर्ण स्वदेशी तकनीकी से निर्मित अरिहंत नामक परमाणु पनडुब्बी इसका ज्वलंत प्रमाण है
जल में, थल में, अंतरिक्ष में हमने विकास किया
यह सारी विधा का प्रयोग स्वदेशी वैज्ञानिकों ने किया, स्वदेशी तकनीकी से किया, स्वदेशी आग्रह के आधार पर किया एवं स्वदेशी का गौरव को संपुर्ण विश्व में प्रतिष्ठापित किया

यह कार्य उच्च तकनीकी के होते है प्रक्षेपास्त्र, उपग्रह, परमाणु विस्फोटक पनडुब्बी, जलयान, जलपोत महा संगणक (सुपर कंप्यूटर) निर्माण आदि एवं इन सब क्षेत्रों में हम बहुत आगे बढ़ चुके है स्वदेशी के पथ पर
स्वदेशी के स्वाभिमान से ओत प्रोत भारत के महा संगणक यंत्र " परम १०००० " के निर्माण के जनक विजय भटकर (मूल पढ़ाई मराठी ) की कथा सभी भारतियों को ज्ञात है, उनके लिए प्रेरक है
इतने सारे उदाहरण देने के पीछे एक ही कारण है वह यह की भारत में तकनीकी का जितन विकास हो रहा है वह सब स्वदेशी के बल से हो रहा है, स्वदेशी आग्रह से हो रहा, स्वदेशी गौरव एवं स्वदेशी अभिमान के साथ हो रहा है
नवीन तकनीकी हमको कोई ला कर नहीं देने वाला, विदेशी देश हमे यदि देती है तो अपनी २० वर्ष पुरानी तकनीकी जो उनके देश में अनुपयोगी, फैकने योग्य हो चुकी है
इसके उदाहरण है जैसे कीटनाशक, रसायनिक खाद निर्माण की तकनीकी स्वयं अमेरिका में बीस वर्ष पूर्व से जिन कीटनाशकों का उत्पादन एवं विक्रय बंद हो चुका है एवं उनके कारखाने उनके यहाँ अनुपयोगी हो गए है
अमेरिका १४२ विदेशी कंपनियों के इतने गहरे गहरे षड्यंत्र चल रहे है इन्हें समझना हम प्रारंभ करे अपनी आंखे खोले, कान खोले दिमाग खोले एवं इनसे लड़ने की तैयारी अपने जीवन में करे भारत स्वाभिमान इसी के लिए बनाया गया एक मंच है जो इन विदेशी कंपनियों की पूरे देश में पोल खोलता है एवं पूरे देश को इनसे लड़ने का सामर्थ्य उत्पन्न करता है
हमे इस बात का स्मरण रखना है की इतिहास में एक भूल हो गई थी जहांगीर नाम का एक राजा था उसने एक विदेशी कंपनी को अधिकार दे दिया था इस देश में व्यापार करने का परिणाम यह हुआ की जिस कंपनी को जहांगीर ने बुलाया था उसी कंपनी ने जहांगीर को गद्दी से उतरवा दिया एवं वह कंपनी इस देश पर अधिकार कर लिया ०६ लाख ३२ सहस्त्र ०७ सौ इक्यासी (६,३२,७००) क्रांतिकारियों ने अपने बलिदान से उन्हें भगाया था

आवश्यकता अविष्कार की जननी है हमे जिसकी आवश्यकता थी हमने उसका अविष्कार किया विश्व के देशों में जो दवाईयां २०-२० वर्षों से बंद हो गई है जिन्हें 'क', 'ख', 'ग' वर्गीय विष (ए,बी,सी, क्लास ) जो बहुत ही भयंकर विष है ऐसी दवाईयां ला कर विदेशी कंपनियां भारत में विक्रय करती है ऐसी ५ सहस्त्र दवाइयों की हमने सूची बनाई है जिनमें से कुछ औक्सिफन बुटाजोंन, फिनाइल बुटाजों, एक्टइमाल, एल्जिरिअल, बूटा कार्दिडान, बूटा प्रोक्सिवान ये सात दवाएँ है जो ब्रिटेन में पश्चिमी जर्मनी, फ्रांस, ईटली, फिनलैंड, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, मलेशिया, इज़राइल, जॉर्डन एवं हमारे पड़ोसी बंगलादेश तक में पिछले २० वर्षों से प्रतिबंधित है
जब यह सहस्त्रों करोड़ो रूपये लूटती है उसका बहुत दुःख होता है १९४७ तक मात्र १० करोड़ रु. की दवाएँ विक्रय करते थे आज ७० सहस्त्र करोड़ रु से भी अधिक की दवाएँ विक्रय करते है जिनमें से अधिकांश की तो हमे आवश्यकता ही नहीं है जस्टिस हाथी कमीशन ने स्पष्ट रूप से कहा था की भारत में जितने भी रोग है उनके निवारण हेतु एलोपेथी की मात्र ११७ प्रकार की दवाइयों की आवश्यकता है परंतु आज देश में ८४,००० (84,000) प्रकार की दवाइयों का विक्रय हो रहा है

अत: हम सबको यह लूट समझनी होगी एवं इस मकडजाल से बहार निकलना होगा, समझना होगा - हम प्रातः आँख खुलते ही हम उनके चंगुल में फंस चुके होते हैं बस सवेरा हुआ हम इन कंपनियों द्वारा निर्मित ब्रुश, टूथपेस्ट हमारे हाथों में आ जाते हैं फिर साबुन हैं क्रीम हैं ब्लेड हैं तरह तरह के सौंदर्य प्रसाधन हैं लगभग हम शरीर की सफाई ही प्रारंभ करते हैं इन कम्नियों के द्वारा बनाये गए सामानों से आज भारत की अर्थव्यवस्था पूरी तरह से उन कंपनियों की गुलाम बन चुकी है ...

February 05, 2012

भारतीय भाषाओँ के विरुद्ध षड़यंत्र

ऋषि भूमि, राम भूमि, कृष्ण भूमि, तथागत की भूमि... भारत के गौरवशाली अतीत को यदि शब्दों में एवं वाणी में कालांतर तक भी बांधने का प्रयास किया जाए तो संभव नहीं है। वर्तमान में पश्चिम का अंधानुकरण करने से जो भारत का सांस्कृतिक पतन हुआ है वह निश्चय मानिए आपके प्रयासों से समाप्त होगा। इस पश्चिम के अंधानुकरण एवं मानसिक परतंत्रता के रोग के उपचार हेतु इसका कारण प्रभाव आदि जानना भी नितांत आवश्यक है।




भारत पर प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से २०० से २५० वर्षों तक अंग्रेजो का शासन रहा, अल्पावधि तक फ्रांसीसियों एवं डच आक्रान्ताओं का प्रभाव भी रहा। भारत के कुछ भूभागो केरल, गोवा (मालाबार का इलाका आदि ) पर तो, पुर्तगालियों का ४००–४५० वर्षों तक शासन रहा।



भारत पर ७–८ शताब्दी से आक्रमण प्रारंभ हो गए थे। मोहाम्मदबिन कासिम, महमूद गजनवी ,तैमूर लंग, अहमद शाह अफदाली, बाबर एवं उसके कई वंशज इन आक्रांताओंके का भी शासनकाल अथवा प्रभावयुक्त कालखंड कोई बहुत अच्छा समय नहीं रहा भारत के लिए, सांस्कृतिक एवं सभ्यता की दृष्टि से।



भिन्न भिन्न आक्रांताओ के शासनकाल में भारत में सांस्कृतिक एवं सभ्यता की दृष्टि से कुछ परिवर्तन हुए। कुछ परिवर्तन तो तात्कालिक थे जो समय के साथ ठीक हो गए, लेकिन कुछ स्थाई हो गए। जब तक भारत पर आक्रांताओ का शासन था तब तक हम पर परतंत्रता थी। सन १९४७ की तथाकथित सत्ता के हस्तांतरण के उपरांत शारीरिक परतंत्रता तो एक प्रकार से समाप्त हो गई किंतु मानसिक परतंत्रता से अब भी हम जूझ रहे है। यह अपनी सभ्यता एवं संस्कृति के लिए जुझारूपन हमारे रक्त में है, जो कभी सपाप्त नहीं हो सकता। इसी के कारण हमारी वर्तमान संस्कृति में अधकचरापन आ गया है "न पूरी ताकत से विदेशी हो पाए, न पूरी ताकत से भारतीय हो पाए, हम बीच के हो गए, खिचड़ी हो गए" !!



भारतीय भाषाओँ के विरुद्ध एक षड़यंत्र -

एक सबसे बड़ा विकार स्थानीय भाषा एवं बोली के पतन के रूप में आया। हम आसाम में, बंगाल में, गुजरात में, महाराष्ट्र में रहते है वही की बोली बोलते है, लिखते है, समझते है परंतु सब सरकारी कार्य हेतु अंग्रेजी ओढ़नी पड़ती है। यह विदेशीपन, अंग्रेजीपन के कारण और भी भयावह स्थिति का तब निर्माण होता है जब नन्हे नन्हे बालको को कान उमेठ-उमेठ कर अंग्रेजी रटाई जाती है। सरकार के आकड़ो के अनुसार जब प्राथमिक स्तर पर १८ करोड़ भारतीय छात्र विद्यालय में प्रथम कक्षा में प्रवेश लेते है तो अंतिम कक्षा जैसे उच्च शिक्षा जैसे अभियांत्रिकी (इंजीनियरिंग), चिकित्सा (मेडिकल), संचालन (मैनेजमेंट) आदि तक पहुँचते-२ तो १७ करोड़ छात्र/छात्राएं अनुतीर्ण हो जाते है, केवल १ करोड़ उत्तीर्ण हो पाते है। भारत सरकार ने समय समय पर शिक्षा पर क्षोध एवं अनुसंधान के लिए मुख्यतः तीन आयोग बनाए दौ. सि. कोठारी (दौलत सिंह कोठारी), आचार्य राममूर्ति एवं एक और... सभी का यही मत था की यदि भारत में अंग्रेजी माध्यम की शिक्षा व्यवस्था न हो अपितु शिक्षा स्थानीय एवं मातृभाषा में हो तो यह जो १८ करोड़ छात्र है, सब के सब उत्तीर्ण हो सकते है, उच्चतम स्तर तक




विचार कर देखे शिक्षा मातृभाषा में नहीं होने का कितना अधिक दुष्परिणाम उन १७ करोड़ विद्यार्थियों को भोगना पड़ता है, इनमें से आधे से अधिक तो शुरुआत में ही बाहर हो जाते कोई पांचवीं में तो कोई सातवीं में कुछ ८-८.५ करोड़ विद्यार्थी इस व्यवस्था के कारण सदैव के लिए बाहर हो जाते है। यह कैसे दुर्व्यवस्था है जो प्रतिवर्ष १७ करोड़ का जीवन अंधकारमय बना देती है। अगर आप प्रतिशत में देखे तो ९५% सदैव के लिए बाहर हो रहे है। यह सब विदेशी भाषा को ओढ़ने के प्रयास के कारण, बात मात्र विद्यार्थियों के अनुत्तीर्ण होने की नहीं अपितु व्यवस्था की है।



दुर्भाग्य की पराकाष्ठा तो देखिये की जब कोई रोगी जब चिकित्सक के पास जाता है तो वह चिकित्सक उसे पर्ची पर दवाई लिख के देता है, मरीज उसे पढ़ नहीं सकता वरन कोई विशेषज्ञ ही पढ़ सकता है। कितना बड़ा दुर्भाग्य है उस रोगी का की जो दवा उसको दी जा रही है, जो वह अपने शरीर में डाल रहा है, उसे स्वयं न पढ़ सकता न जान नहीं सकता की वह दवा क्या है ? उसका दुष्परिणाम क्या हो सकता है उसके शारीर पर ? यदि वह जोर दे कर जानना भी चाहे तो डाक्टर उसे अंग्रेजी भाषा में बोल देगा, लिख देगा उसे समझने हेतु उसे किसी और विशेषज्ञ के पास जाना होगा।



क्योँ बंगाल में, असम में, गुजरात में, महाराष्ट्र में, हिंदी भाषी राज्यों आदि में दवाइयों का नाम क्रमषः बंगला में, असमिया में, गुजरती में, मराठी में, हिंदी में आदि में नहीं है। यह बिलकुल संभव एवं व्यावहारिक है। संविधान जिन २२-२३ भाषओं को मान्यता देता है उनमें क्योँ नही ? राष्ट्रीय भाषा हिंदी (हम मानते है) में क्यों नहीं जिसे समझने वाले ८० से ८५ करोड़ है और तो और सरकार ने नियम बना रखा है दवाइयों के नाम लिखे अंग्रेजी में, चिरभोग (प्रिस्किप्शन) लिखे अंग्रेजी में, छापे अंग्रेजी में आदि। जिस भाषा (अंग्रेजी) को कठिनाई से १ से २ प्रतिशत लोग जानते है।

विद्यालयों से लेकर न्यायालयों तक अंग्रेजी भाषा की गुलामी

मान लीजिए मैं असम का व्यक्ति हूँ मुझे कुछ न्याय संबंधित परेशानी है तो पहले असमियां में वकील को समझाओ, वकील भाषांतर करे अंग्रेजी में उपरांत वह जज को समझाए। जज विचार कर अंग्रेजी में वकील को समाधान सुनाये, वकील अंग्रेजी का भाषांतर करे असमियां में, उपरांत मुझे समझावे... अरे भाई क्या सत्यानाश कर रखा है। इन सब में कितना समय एवं शक्ति की नष्ट हो रही है अगर यह भाषा की परतंत्रता नहीं होती तो मैं सीधे अपनी दुविधा, परेशानी न्यायाधीश को असमिया में बता देता और वह उसका समाधान कर मुझे बता देता

किसी तीसरे व्यक्ति (न्यायज्ञ) की आवश्यकता ही नहीं पड़ती भाषांतर के लिए।



बच्चों का निजी एवं कान्वेंट विद्यालयों में पिता माता के अंग्रेजी नहीं आने के कारण प्रवेश नहीं मिल पाना, किससे छिपा है ? आपका बालक कितना ही मेधावी क्योँ न हो अगर माता पिता को अंग्रेजी न आती हो तो, उन्हें निर्लज्जता के साथ कह दिया जाता है आप किसी और भाषा का विद्यालय खोज ले एवं बालक/बलिका को प्रवेश नहीं दिया जाता। ऐसे कान्वेंट विद्यालयों का तर्क होता है की अगर आपको अंग्रेजी नहीं आती तो जो गृहकार्य हम बच्चे को देंगे उसमें आप कैसे सहायता करेंगे ? इसी अन्याय के कारण करोड़ो-करोड़ो बच्चे इन विद्यालयों में केवल इस लिए नहीं जा पाते क्यूंकि उनके माता पिता को अंग्रेजी नहीं आती और अगर कभी प्रवेश हो ही जाता है तो मात्र अंग्रेजी नहीं आने के कारण उसमें कम अंक प्राप्ति के कारण विद्यार्थियों का समूल प्रतिशत घट जाता है एवं कभी कभी तो पुनः सभी विषयों की तयारी करनी पड़ती है।

अंग्रेजी कोई बड़ी भाषा नहीं है, केवल १४ देशों में चलती है जो गुलाम रहे हैं

अंग्रेजी कोई इतनी बड़ी भाषा नहीं है, जैसी की हमारे मन में उसकी छद्म छवि है, विश्व के मात्र १४ देशों में अंग्रेजी चलती है एवं यह वही देश है जो अंग्रेजो के परतंत्र रहे है।




इनके इन देशों में अंग्रेजी का स्वयं विकास नहीं हुआ है परतंत्रता के कारण इन्हें इसके लिए बाध्य होना पड़ा। विश्व की प्रमुख संस्थाए अंग्रेजी में कार्य नहीं करती, बहुत से देशों के लोग तो अंग्रेजी जानते हुए भी उसमें बात करना पसंद नहीं करते। जर्मनी में जर्मन में, फ़्रांस में फ्रेंच में, स्पेन में स्पेनिश में, जापान में जापानी में, चीन में चीनी में आदि देशों में अपनी भाषा में ही सरकारी कार्य भी किया जाता है। अंग्रेजी से निजात ही अच्छी है क्यूंकि इसमें हमारा विकास नहीं, मुक्ति नहीं।



संयुक्त राष्ट्र महासंघ के मानवीय विकास के लेखे जोखे में भारत लगभग १३४ में आता है बहुत से भारत से भी छोटे छोटे देश जो इस लेखे-जोखे में भारत से ऊपर आते है क्यूंकि उनमें अधिकांश अपनी मातृभाषा में कार्य करते है। स्वयं संयुक्तराष्ट्र भी फ्रेंच भाषा में कार्य करता है अंग्रेजी में तो वह अपने कार्यों का भाषांतर करता है अधिकांश भाषा विशेषज्ञ भी कहते है अंग्रेजी व्यकरण की दृष्टि से भी बहुत बुरी है।



भारत की सभी २२-२३ मातृभाषाएँ जो संविधान में स्वीकृत है, बहुत सबल है। उनमें से भी यदि सबसे छोटी भाषा को अंग्रेजी से तुलना करे तो वह भी अंग्रेजी से बड़ी है। उत्तर प्रांत के जो राज्य है, मणिपुर, नागालैण्ड, मिजोरम आदि उनमें जो सबसे छोटी भाषा एव बोलियां चलती है उनमें से भी सबसे छोटी भाषा है उसमें भी अंग्रेजी से अधिक शब्द है। जब सबसे छोटी भाषा भी अंग्रेजी से बड़ी है तो हम अंग्रेजी को क्यूँ पाल रहे है एवं हमारी सबसे बड़ी भाषा तो अंग्रेजी से कितनी बड़ी होगी। तकनिकी शब्द जो है न हम चाहे तो तात्कालिक रूप से जैसे के तैसे अंग्रेजी ले सकते।



लेकिन विचार की जो अभिव्यक्ति है वह मातृभाषा, बोलियों में कर थोड़े दिन में तकनिकी शब्दों को भी हर मातृभाषा में ला सकते है। कुछ परेशानी नहीं है और तो और हमारे पास माँ (संस्कृत) भी है उसका भी उपयोग किया जा सकता है। संस्कृत के शब्द तो सभी भाषओं में मिल जाते है।



BRAND Archetypes through lens -Indian-Brands

There has been so much already written about brand archetypes and this is certainly not one more of those articles. In fact, this is rather ...