April 21, 2016

सोचिये - वर्तमान देश के हालातों पर एक लेख



दूसरों की दुखती रगों को छेड़कर कोई समाज आगे नही बढ़ सकता.
जेएनयू का जहाँ नाम आएगा तो बात सोशल इंजीनियरिंग की नहीं होगी. बात नक्सलियों पर आकर रुक जायेगी.
नाम राहुल गाँधी का आयेगा तो एक तबका बहस को इटली की तरफ मोड़ देगा.
चर्चा मोदी पर होगी तो बात दंगो तक पहुंचेगी.
संघ का राग शुरू कीजिये तो हाफ पेंट से लेकर गोडसे का जिक्र होगा.
और महात्मा गाँधी को काउंटर करना हो तो ब्रह्मचर्य से लेकर बिरला तक की दंत कथाओं में बहस उलझ जाएगी.
नज़र सबकी खामियों पर है किसी की खूबी पर नहीं.

इस देश में दलित का मतलब कोटा,
मुसलमान का मतलब पाकिस्तान,
ब्राह्मण का मतलब मनु,
बनिए का मतलब लाला,
कश्मीरी यानि अलगाव वादी और
नार्थ ईस्ट का मतलब चिंकी है .....
नेपाली ..सबके लिए बहादुर हो गया  है
और बहादुर कहा जाने वाला ठाकुर ...अगर रसूखदार है तो फ्यूडल हो गया है.
इसाई कनवर्टेड है और
शिया ..संघ के मुखबिर.

हर जात हर पात की कमियां और खामियां हमारी जुबान पर है.
फर्क इतना है कि कुछ लोग अनायास सामने बोल देते हैं और बाकी पीठ पर.
आप क्या करते हैं इसकी कमजोरियां भी आपसे छिपाई नहीं जाती, और मौके पर आपकी वही कमज़ोर नस दबाई जाती है.

पत्रकार हैं तो दलाल बोल देंगे...
पुलिस वाले हैं तो ठुल्ला हैं,
सरकार में हैं तो करप्ट.
प्रेक्टिसिंग डाक्टर हैं तो लुटेरे हैं
और PWD के ठेकेदार हैं तो गुंडा हैं.
अगर  मॉडल या एंकर या होस्टेस या रिसेप्शनिस्ट या जवान नेताईन या यंग डाईवोरसी हैं फिर तो खैर नही.

ऐसी  सोच हम भले ही सार्वजनिक तौर पर ढक लें पर भीतर ही भीतर ये सोच हमारे समाज को एक निगेटिव सिंड्रोम डिसऑर्डर में ले जा रही है. और 70 साल के बाद ये डिसऑर्डर घटा नही और बढ़ा है.

दलितों ने patholgically सवर्णों को एंटी दलित मान लिया है.
ब्राह्मण अब तक खुद को चाणक्य मान रहे हैं.
ठाकुर की अपनी बेचैनियाँ हैं.
मुसलमान किसी हिन्दू बस्ती में रहना नहीं चाहते ..भले ही कोई मकान किराये पर देना भी चाहे.
उधर लेफ्ट को राईट (संघ) की नेकर उतारे बगैर चैन नहीं है.
मोदी की बीजेपी देश में कांग्रेस मुक्त भारत चाहती है.
सोनिया की कांग्रेस को हर कीमत पर सत्ता चाहिए.
दोनों को एक दूसरे की खूबी नहीं दिखती.
दोनों एक दूसरे की दुखती रग  पकड़कर आगे बढ़ रहे.
ये एक निगेटिव सिंड्रोम है और देश इसमें जी कर फंसकर आगे नहीं बढ़ सकता है.

कोई क्यूँ नही बताता कि हम बिखर रहे हैं.
हम एक दूसरे से अलग हो रहे हैं.
हमारा  समाज डिब्बों में बंद होता जा रहा है.
दादरी के डिब्बे में.
जेएनयू के डिब्बे में.
जिन डिब्बों को जुड़कर रेल बनना चाहिए था वो डिब्बे अलग होकर पटरी से उतर रहे हैं.

लेफ्ट ..एक्सट्रीम लेफ्ट हो रहा है.
राईट ..एक्सट्रीम राईट ...
और शायद सेंटर.. आउट हो गया है.
मित्रों सोचियेगा...
कुछ देर इन बंद डिब्बों के बारे में ...
गरेबान में झांकियेगा कहीं आप तो किसी डिब्बे में सीलबंद नहीं हैं.

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