April 29, 2016

‪#‎कौन_हूँ_मैं‬? - © एन एल चतुर्वेदी (नगीना)

आध्यात्मिक दृष्टि से कौन हूँ मैं? क्या मैं आस्तिक हूँ, जी नहीं। मैं निर्णायक तौर पर आस्तिक नहीं हूँ। तो क्या मैं नास्तिक हूँ, जी वह भी नहीं। मैं निर्णायक तौर पर नास्तिक भी नहीं हूँ। तब क्या मैं संशयवादी हूँ, जी यह भी नहीं। मैं निर्णायक तौर पर संशयवादी भी नहीं हूँ। तो क्या अज्ञेयवादी हूँ मैं, मेरा निवेदन है कि नहीं, मैं निर्णायक तौर पर अज्ञेयवादी भी नहीं हूँ।
तब मैं क्या हूँ? यह बिना निर्णय किए ही मैं कैसे कहूँ? मात्र समझाने के लिए, एक प्रकार से मैं थोड़ा आस्तिक हूँ, थोड़ा नास्तिक भी हूँ, थोड़ा संशयवादी भी हूँ और थोड़ा अज्ञेयवादी भी हूँ। क्योंकि आप लोगों को इन आध्यात्मिक दायरों में ही तो देखना जानते हैं, इनके बाहर तो आप किसी को देख ही नहीं पाते। तब भला इनके बाहर आपको कैसे समझाऊँ कि मैं वास्तव में क्या हूँ!
वर्तमान में तो मैं वस्तुतः मात्र यही कह सकता हूँ कि मैं किसी वाद का वादी अथवा प्रतिवादी नहीं हूँ, किसी विशेष बाढ़े में बंद पशु नहीं हूँ। मैं इन वादों से असम्बद्ध इस संसार में आया हूँ और आज भी असम्बद्ध ही हूँ; स्वतन्त्र आया हूँ और आज भी स्वतन्त्र ही हूँ; कोई बेड़ी या नकेल नहीं है। हाँ, सावधानी-पूर्वक स्वच्छंद नहीं हूँ, अनुशासन का महत्व मानता हूँ और स्थापित मानवीय-जीवन मूल्यों का अनुपालन निष्ठा से करता हूँ।
मैं अपनी आध्यात्मिक यात्रा का अविकल यात्री हूँ और अग्रसर हूँ। गंतव्य मिले अथवा न भी मिले, किन्तु यात्रा के आनन्द पर मेरा अकाट्य अधिकार है जिससे मैं आनन्दित रहता हूँ। यह यात्रा और इससे प्राप्त आनन्द ही मेरी ऊर्जा का अक्षय-श्रोत है। ऐसे भी कह सकता हूँ कि आज भी एक आध्यात्मिक विद्यार्थी हूँ और किसी अंतिम निर्णय पर नहीं पहुँचा हूँ। किन्तु विद्यारत हूँ। एक सत्य-शोधक हूँ और सत्य के शोध में सतत् सानन्द संलग्न हूँ।
मुझे यह कला आज तक नहीं आयी कि मैं किसी मत या वाद को बिना जाने-समझे ही मान लूँ। मैं पहले जानना-समझना चाहता हूँ, आश्वस्त होना चाहता हूँ, तभी किसी मत अथवा वाद को मान सकूँगा। मेरे मानने का आधार मेरी अपनी अनुभूति होगी। किसी अन्य की अनुभूति मेरी मान्यता का आधार कैसे हो सकती है! किसी और की भूमि, बीज, खाद, पानी, देख-रेख आदि में पैदा हुआ फल मेरा कैसे हो सकता है। विनिमय-बाजार में बिकने वाला तो यह फल है नहीं कि मैं इसे मात्र पैसा/वस्तु/सेवा देकर खरीद लाऊँ। यह तो सश्रम व सविवेक से उतपन्न करने योग्य फल है जिसकी विशुद्ध मिठास बिना इनके अनुभव नहीं की जा सकती।
बिना जाने-समझे अथवा स्व-अनुभूति के पूर्व ही लोग कैसे किसी मत/वाद को मान लेते हैं, मैं नहीं जानता। मुझे मेरा अपना बुद्धि-विवेक प्राप्त है, किस प्रयोजन? यदि मैं जीवन के इस सर्वाधिक महत्वपूर्ण विषय के निर्णय में ही इनका उपयोग नहीं करूँगा तो कब करूँगा? इनका उपयोग न करूँ तो क्यों न करूँ? क्या बाध्यता-विवशता हो सकती है?
प्रश्न यह भी है कि मैं धार्मिक हूँ अथवा अधार्मिक? मैं निश्चित ही धार्मिक और अधार्मिक दोनों ही एक साथ हूँ। मैं मानव-धर्म का पुरजोर समर्थक हूँ और इस अर्थ मैं गहन धार्मिक हूँ। मैं मानव ही नहीं, प्रत्येक जीव व पदार्थ के प्रति धार्मिक हूँ, और यथा-संभव पूर्ण धार्मिक होना व बना रहना चाहता हूँ। किन्तु मैं साम्प्रदायिक अर्थों में अधार्मिक हूँ क्योंकि मैं किसी सम्प्रदाय विशेष की धार्मिक मान्यताओं से, चर्याओं से और कर्मकांड से सर्वथा निर्बंध हूँ।
मैं ऐसा हूँ और ऐसे होने से आनन्दित भी हूँ। यदि भविष्य में मुझमें कोई परिवर्तन आता है तो और भी अधिक आनन्दित हो सकूँगा, ऐसा विचारता हूँ।
© एन एल चतुर्वेदी (नगीना)

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