यों तो 'संशय' और 'संदेह', एक दुसरे के पर्याय ही हैं। किन्तु पर्यायों में भी एक शब्द, दूसरे शब्द का सर्वविध समानार्थी हो यह आवश्यक नहीं। साधारणतया, वे सर्वविध समानार्थी नहीं ही होते हैं। इसीलिए प्रत्येक परिस्थिति में पर्यायवाची दुसरे शब्द को पहले शब्द के स्थान पर स्थानापन्न नहीं किया जा सकता। अतएव, पर्यायवाची शब्दों में भी सूक्ष्म भेद होते हैं जो 'पर्यायकी' विषय की विषय-वस्तु है।
अब, सरल भाषा में, 'संशय' व 'संदेह' में भेद दृष्टव्य है। जहाँ 'संशय' विकल्पों के बीच 'अनिश्चितता' का बोधक, वहीं 'संदेह' भाव की वास्तविकता पर प्रश्न/अविश्वास का बोधक है। उदाहरणार्थ, गीता के कृष्ण-अर्जुन संवाद में अर्जुन संशय से ग्रस्त था। वह 'युद्ध करने' अथवा 'युद्ध न करने' के विकल्पों में उलझा था, अनिश्चित था, दोलायमान था। उसे दोनों विकल्पों के ही पक्ष-विपक्ष में तर्क दिख रहे थे और वह यह निश्चित नहीं कर पा रहा था कि कौनसा विकल्प निर्णायक तौर पर वरणीय था। इसके विपरीत, उसे कृष्ण की हितरक्षा, शिक्षा, धर्मपरायणता, मित्रता, ज्ञान, विवेक व परामर्श पर कोई प्रश्न अथवा अविश्वास नहीं था। वह ऐसा नहीं सोचता था कि कृष्ण किसी अन्य कूट उद्देश्य से उसे वह कराने को तत्पर करेगा जो कि वास्तव में अनुचित अथवा अधार्मिक होगा। उसे कृष्ण पर पूर्ण विश्वास ही नहीं अपितु आस्था थी।
आजकल हिंदीभाषी लोग, विडम्बनावश, हिन्दी की बातों को भी अँग्रेजी के माध्यम से अधिक सरलता से समझ लेते हैं। एतदर्थ, 'संशय' को 'equivocalness' व 'संदेह' को 'scepticism' समझा जा सकता है।
© एन एल चतुर्वेदी (नगीना)
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