प्रोफेसर Girish Mishra ने कानपुर के लिए तीन 'K' को उद्धृत किया और मुझसे इस पर विचार मांगे। तीन 'K' यानी कटियाबाज, खैनी और खुरानी। इस पर मैने यह आलेख लिखा-
सर, कानपुर के संदर्भ में आज ये तीनों चीजें सही हैं। कटियाबाजी, खैनी और जहरखुरानी। दरअसल कानपुर की मिलों को चौबीसो घंटे अबाध पावर सप्लाई के लिए अंग्रेजों ने कानपुर में एक रिवरसाइड पावर हाउस बनाया था और उसका रखरखाव केसा को सौंपा। केसा यानी कानपुर इलेक्ट्रिक सप्लाई एडमिनिस्ट्रेशन। इसके पीछे मंशा यह थी कि सरकार की दखलंदाजी नहीं रहेगी और कानपुर अपनी बिजली आपूर्ति स्वयं कर लेगा। मगर मिलें बंद होने के बाद जब यह शहर एक ट्रेडिंग सेेंटर बना तो रिवर साइड पावर हाउस बंद हो गया और पनकी स्थित एनटीपीसी के बिजली घर से जो बिजली मिलती वह सीधे भौंती के पावर ग्रिड में चली जाती और सूबे में उसका वितरण राज्य विद्युत वितरण निगम के थ्रू आंचलिक विद्युत वितरण निगमों को होने लगा। अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण कानपुर की बिजली मध्यांचल विद्युत वितरण निगम के पास है जिसके लिए लखनऊ और रायबरेली इटावा वरीयता पर हैं। कानपुर की बिजली सप्लाई के लिए केसा को केस्को (कानपुर इलेक्ट्रिकसिटी सप्लाई कारपोरेशन) बना दिया गया जिसका सीएमडी एक आईएएस होता है। वह फैक्ट्री एरिया को तो अबाध बिजली देता है पर आवासीय क्षेत्रों में बिजली गायब रहती है। इसलिए लोग इस फैक्ट्री एरिया से खंबे लगाकर बिजली अपने आवासीय क्षेत्रों में ले जाते हैं जिसे कटियाबाजी कहा जाता है और तमाम संगठित गिरोह ये काम करते हैं। बदले में वे अपना चार्ज वसूलते हैं। इसके अलावा कई अन्य घने क्षेत्रों में, जहां एक-एक घर में कई परिवार रहते हैं वे कोई अलग-अलग बिजली मीटर लगाने की बजाय एक ही मीटर से काम चलाते हैं और सीधे केस्को के खंबे से बिजली लेते हैं यह भी कटियाबाजी है।
दूसरा सवाल है खैनी। यूं तो कानपुर में खैनी चुनही को भी कहते हैं मगर मारवाड़ी व गुजराती परिवारों ने पान मसाला का स्वरूप प्रदान कर इसे बाकायदा एक उद्योग बना दिया है। मशहूर पान पराग वाले मनसुख भाई गुजरात से यहां व्यापार करने आए थे। चूंकि लखनऊ से नवाबी के दिनों में जिन्हें जिलाबदर किया जाता था उन्हें कानपुर भेजा जाया करता था। वे अधिकतर बांके और गुंडे वाली छवि के लोग होते थे जो हरदम होठों को लाल किए गले में रूमाल बांधे घूमा करते थे उन्हीं के साथ पान की परंपरा भी आई। अब चुनही तो गायब हो गई और उसकी जगह पाउच वाली तंबाकू ने ले ली मगर आम बोलचाल में उसे खैनी ही कहा जाता है।
जहरखुरानी का काम यहां कुछ जरायमपेशा जातियां करती हैं। माना जाता है कि रानी झांसी और राणा बेनीमाधव की फौजों के सिपाहियों की जब धरपकड़ होने लगी तो वे गांवों में बिखर गए और खेतों में छिपकर कच्ची शराब बनाने लगे। वर्षों बाद जब ये बाहर आए तो अंग्रेजों ने इन्हें जरायमपेशा कौमें घोषित कर दिया। आजादी के बाद इनका पुनर्वास किया गया पर इनके लिए रोजगार का बंदोबस्त नहीं हुआ जिसके कारण ये जरायम पर उतर आए। अधिकतर जरहखुरानी गिरोह वर्षों पुराने वही जरायम पेशा गिरोह ही हैं।
सर, कानपुर के संदर्भ में आज ये तीनों चीजें सही हैं। कटियाबाजी, खैनी और जहरखुरानी। दरअसल कानपुर की मिलों को चौबीसो घंटे अबाध पावर सप्लाई के लिए अंग्रेजों ने कानपुर में एक रिवरसाइड पावर हाउस बनाया था और उसका रखरखाव केसा को सौंपा। केसा यानी कानपुर इलेक्ट्रिक सप्लाई एडमिनिस्ट्रेशन। इसके पीछे मंशा यह थी कि सरकार की दखलंदाजी नहीं रहेगी और कानपुर अपनी बिजली आपूर्ति स्वयं कर लेगा। मगर मिलें बंद होने के बाद जब यह शहर एक ट्रेडिंग सेेंटर बना तो रिवर साइड पावर हाउस बंद हो गया और पनकी स्थित एनटीपीसी के बिजली घर से जो बिजली मिलती वह सीधे भौंती के पावर ग्रिड में चली जाती और सूबे में उसका वितरण राज्य विद्युत वितरण निगम के थ्रू आंचलिक विद्युत वितरण निगमों को होने लगा। अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण कानपुर की बिजली मध्यांचल विद्युत वितरण निगम के पास है जिसके लिए लखनऊ और रायबरेली इटावा वरीयता पर हैं। कानपुर की बिजली सप्लाई के लिए केसा को केस्को (कानपुर इलेक्ट्रिकसिटी सप्लाई कारपोरेशन) बना दिया गया जिसका सीएमडी एक आईएएस होता है। वह फैक्ट्री एरिया को तो अबाध बिजली देता है पर आवासीय क्षेत्रों में बिजली गायब रहती है। इसलिए लोग इस फैक्ट्री एरिया से खंबे लगाकर बिजली अपने आवासीय क्षेत्रों में ले जाते हैं जिसे कटियाबाजी कहा जाता है और तमाम संगठित गिरोह ये काम करते हैं। बदले में वे अपना चार्ज वसूलते हैं। इसके अलावा कई अन्य घने क्षेत्रों में, जहां एक-एक घर में कई परिवार रहते हैं वे कोई अलग-अलग बिजली मीटर लगाने की बजाय एक ही मीटर से काम चलाते हैं और सीधे केस्को के खंबे से बिजली लेते हैं यह भी कटियाबाजी है।
दूसरा सवाल है खैनी। यूं तो कानपुर में खैनी चुनही को भी कहते हैं मगर मारवाड़ी व गुजराती परिवारों ने पान मसाला का स्वरूप प्रदान कर इसे बाकायदा एक उद्योग बना दिया है। मशहूर पान पराग वाले मनसुख भाई गुजरात से यहां व्यापार करने आए थे। चूंकि लखनऊ से नवाबी के दिनों में जिन्हें जिलाबदर किया जाता था उन्हें कानपुर भेजा जाया करता था। वे अधिकतर बांके और गुंडे वाली छवि के लोग होते थे जो हरदम होठों को लाल किए गले में रूमाल बांधे घूमा करते थे उन्हीं के साथ पान की परंपरा भी आई। अब चुनही तो गायब हो गई और उसकी जगह पाउच वाली तंबाकू ने ले ली मगर आम बोलचाल में उसे खैनी ही कहा जाता है।
जहरखुरानी का काम यहां कुछ जरायमपेशा जातियां करती हैं। माना जाता है कि रानी झांसी और राणा बेनीमाधव की फौजों के सिपाहियों की जब धरपकड़ होने लगी तो वे गांवों में बिखर गए और खेतों में छिपकर कच्ची शराब बनाने लगे। वर्षों बाद जब ये बाहर आए तो अंग्रेजों ने इन्हें जरायमपेशा कौमें घोषित कर दिया। आजादी के बाद इनका पुनर्वास किया गया पर इनके लिए रोजगार का बंदोबस्त नहीं हुआ जिसके कारण ये जरायम पर उतर आए। अधिकतर जरहखुरानी गिरोह वर्षों पुराने वही जरायम पेशा गिरोह ही हैं।
- Shambhu Nath Shukla
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