August 29, 2014

क्या स्त्री पुरूष बराबर है ? -- लेख नरेन्द्र सिसोदिया

क्या स्त्री पुरूष बराबर है ? -- लेख नरेन्द्र सिसोदिया
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अक्सर ऐसा देखा गया है की आजकल के आधुनिक या यूँ कहे पश्चिम का अंधानुुकरण करने वाले लोग इस बात पर बडा जोर देते है की स्त्री को पुरूष की बराबरी पर आना चाहिये । दुःख की बात तो ये है की ऐसी बातों में महीलायँ आगे रहती है । क्योंकी मेरे हिसाब ऐसा बोलकर स्त्री समाज अपना खुद का अपमान करती है ।
सबसे पहली बात तो ये की खुद भगवान ने दोनो को अलग बनाया तो दोनो एक कैसे हो सकते है । स्त्री का मानसिक विकास, शारीरिक विकास , गुणों का विकास और सामाजिक ताने बाने में उनकी उपस्थिति पुरूषों से अलग है,
इतने सारे स्तरों पर भिन्नता होने के कारण वो पुरूष के बराबर तो क्या आसपास भी नही है। इसी बात को मुंशी प्रेमचंद ने इस प्रकार कहा है की - मानवीय गुणों के क्रमिक विकास में स्त्री पुरूषों से कही आगे है । हमारे समाज में स्त्री का अपनी महत्ता है और पुरूषों की अपनी,
इस मामले में किसी को आगे बोलना और किसी को पीछे कहना वैसी ही मूर्खता है जैसी कोई ये बोले की १ लीटर दूध में और सूरज के प्रकाश में कौन आगे और कौन पीछे । पुरूष को जन्म देनी वाली औरत पुरूष से पीछे कैसे हो सकती है ।
मुकाबला समान स्तर पर होता है । अगर आपके सामने कोई ये बोल रहा है की स्त्री और पुरूष को बराबर होना चाहिये तो निसंदेह ही यह कहने की कोशिश कर रहा है की स्त्री पिछडा गई है अौर मर्द आगे है । बराबरीं की बातें करने का मतलब है किसी ना किसी को आगे रखना और किसी ना किसी को पीछे रखने जैसा है । किसी कंपनी में सेल्ल वालो का अपना महत्व है , मार्केटिंग का अपना महत्व है टेक टीम का अपना महत्व है, लेकिन हम ये नही बोल सकते है की सब बराबर होने चाहिये ।
आज भी घर का खर्चा कहाँ चलाना है वो स्त्री ही देखती है चाहे वो दिल्ली की हो या किसी ग्रामीण इलाके की । कोई भी त्योहार या फिर कोई धार्मिक काम, घर को सजाना हो या फिर माँ बन कर घर का निर्णयकर्ता बन जाना हो, सभी कामों में स्त्री ही मुख्य केंद्र है । यहाँ तक की मेट्रों की सीट हो या भारत का कानून हो या सरकारी नौकरीयाँ, सब जगह बराबरी से जितना मिलना चाहिये उससे ज्यादा ही दिया गया है । भारत के बहुत सारे मंदिर है जहाँ बिना शादी के कोई पुरूष प्रवेश नही कर सकता है कारण पूछने पर वहाँ के पंडित साफ साफ एक ही वाक्य बोलते है की हमारे शास्त्रों में लिखा है की स्त्री के बिना पुरूष अपूर्ण और अशुद्द है, इसलिये हम अविवाहित पुरूषों को प्रवेश नही देते है । शादी के बाद जोडे से बिठाने की परंपरा तो हमेशा से ही रही है । आज के शहर के कूलडूड भी आपको बोलते मिल जाते है की - "कर लो भाई जितनी ऐश जब तक शादी ना हो"। उनके इस वाक्य में स्त्रीयों के प्रति सम्मान साफ दिखलाई देता है की उसके आने पर बडे परिवर्तन होंगे और वो ये चीज मान कर चलता है ।
आपको जानकर आश्चर्य होगा की भारतीय दर्शनशास्त्र में प्रकृति को भी दो हिस्सों में बाँटा गया है, पुरूष प्रकृति और स्त्री प्रकृति । गीता और अन्य जगह पर धर्म शब्द किसी पूजा पाठ की पद्धति से नही जोडा गया है, भारत में धर्म शब्द तो राम और कृष्ण के भी पहले भी था और धर्म पर बोलते हुये कृष्ण ने बोला है की धर्म के १० गुण होते है । जैसे क्षमा, करूणा, बुद्धि आदी स्त्रीलिंग शब्द है । वही अधर्म शब्द के गुण जैसे क्रोध,लोभ आदी पुर्लिंग शब्द है। नदियों का माता कहना और उनके स्त्रीसूचक शब्द इसी बात की ओर इशारा करते है की भारतीय समाज में स्त्रीयों का विशेष महत्व रहा है । हाँ समय से साथ थोडा कम ज्यादा हो गया है । मुझे तो यह लगता है की धर्म, संस्कृति और धर्म के स्त्रीसूचक गुणों का निर्माण पुरूषों द्वारा बनाना संभव ही नही है, ये सारी चीजे और व्यवस्था भारत में पुरातन स्त्रीयों के द्वारा ही बनाई गई है और इस बात पर अच्छी खासी रीसर्च (अनुसंधान) की आवश्यकता है। और तो और हमने तो भारत को, जो की पुरूष सूचक शब्द है, के आगे भी माता लगाकर पूरे विश्व के सामने अनूठा उदाहरण प्रस्तुत किया है । आपको समाचार मे ये सुनने को मिल जायेगा कि कुछ लोगो ने मिलकर किसी औरत का बलात्कार किया लेकिन ये कभी सुनने को नही मिलेगा की कुछ औरतों ने मिलकर पुरूष का बलात्कार किया । ऐसा इसलिये की भारतीय स्त्रीयों में अभी भी अपनी संस्कृति के प्रति श्रद्धा है और उनके स्वभाव में अपने आप ही धर्म के गुण विद्ववान होते है ।
क्या आपको अभी भी लगता है की भारत में हमेशा स्त्रीयों को हर काम में पीछे रखा गया है ?
हाँ मै मानता हूँ बहुत जगह पर स्त्रीयों के साथ बहुत गलत व्यवहार होता है और वहाँ बदलाव जरूरी है । समय समय पर समाज में कुरीतीयों ने जन्म लिया और वो आज खत्म हो गई । आज जो कुरीतियाँ है वो कल खत्म हो जायेंगी । लेकिन इसका ये मतलब नही की हम ये मान के चल बैठे की स्त्री पीछे रह गई और उसे भागकर पुरूषों के बराबर आना चाहिये ।
बराबरी का जो अभियान है वो विदेशी देन है, ये कन्सेप्ट (अवधारणा) बाहर के देश से आया है । जहाँ से ये अभियान आया है वहाँ पर स्त्रीयों की दुर्दशा बेहद खराब है । मात्र ६० साल पहले तक वहाँ कानूनन वोट डालना हो या बैंक में खाता खुलवाना हो, इस तरह कामों में स्त्रीयों कोई अधिकार प्राप्त नही था । आपने जिन तथाकथित महान(?) विदेशी दार्शनिक लोगो का बस नाम सुन रखा है उनके साहित्य अंदर तक पडोगे तो आपको पता लगेगा की कही किसी ने लिखा है की "स्त्री मात्र भोग(मजे) की वस्तु है", तो कही किसी ने लिखा है की "स्त्री के अंदर आत्मा नही होती है जैसे अन्य जानवर जैसे की कुत्ता बिल्ली"। सिगमंड फ्राईड ने तो ये तक बोल दिया की बच्चे के अंदर सेक्स भावना रहती है वो माँ का दूध पीते समय दिख जाती है। अरस्तु से लेकिन जितने भी दार्शनिक और विचारक पैदा हुये उन सबसे विचार औरतों के प्रति ठीक नही थे ।
दा विंची मूवी में बताया गया है की मात्र २००० सालो में ईसाई धर्म शून्य से पूरे संसार में जनसंख्या के मामले में पहले स्थान पर आ गया और इस विश्व विजय में करोडो औरतों को डायन बोल कर जिंदा जला दिया गया । आज भी इस्लामिक देश जहाँ सरीया कानून लागु है वहाँ पर स्त्रीयों की स्थिती बहुत निंदनीय है। दूर क्युँ जाते है, आजाद भारत का शाहबानो केस ही देख लेते है । शाहबानों ५० साल की औरत थी जो तलाक के बाद अपने शौहर से गुजारा भत्ता माँगने कानून तक पहुँच गई । कोर्ट ने फैसला जो सुनाया वो भारतीय कानून के हिसाब से ठीक था लेकिन शरीया कानून मानने वाले ने पूरे देश में इसे बहुत बडा मुद्दा बना दिया । संगठित मुस्लिम शक्ति ने अपना प्रभाव दिखाते हुये भारतीय कानून में ही संशोधन करवा दिया । दुबई में शरीया कानून होने की वजह से कई विदेशी महिलाओं को बलात्कार के बाद न्याय नही मिलता है | इरानी महीला अतेफाह (Atefah_Sahaaleh) को १४ से १६ साल की उम्र में ५१ साल का एक बंदा बलात्कार करता रहा । शरीया अदालत में जब अतेफाह को लगा की वो अपना केस हार रही है तो उसने अपनी बात जोर से रखने के लिये अपने चेहरे से हिजाब उतार दिया । इस बात पर अदालत ने अतेफाह को फाँसी की सजा दे डाली ।
अगर आपके पास भारत को बदनाम करने के नाम पर २-३ कुरीतियों है तो मेरे पास तो हजारों जीवीत प्रमाण है विदेशी संस्कृतीयों के नाम पर। इशारा बस एक ही तरफ है की भारतीय समाज में महीलाओं की स्थिती पहले और आज हमेशा ही अच्छी रही है । अगर महिला बराबरी की बात और अभियान का तुक बनता है तो वो मात्र विदेशी में बनता है, लेकिन भारत में नही । दुःख की बात तो ये है की इसी बराबरी के नाम विदेश में ५० साल पहले फेमिनिज्म नाम के अभीयान को चलाया गया और इसका परिणाम यह रहा की स्त्रीयों ने पुरूषों के कंधे से कंधे मिला कर शराब, सिगरेट और आदि बुराईयाँ अपना ली है । बराबरी के फेमिनिज्म ने क्या बर्बादी की वो इंटरनेट पर आसानी ने पढने को मिल जायेगी ।
अगर जरूरत है तो पुरूषों को स्त्री गुणों को अपनाने की जरूरत है ना की स्त्रीयों को मर्द की तरह बनने की । दोनो के अपने अपने अधिकार है और दोनो के अपने अपने कृतर्व्य । जब तक हमारे समाज में स्त्रीयों ने मन में ये बात रहेगी की वो पीछे है तब तक उनके मन में स्वाभीमान नही आ सकता और तब तक उनके मन के किसी ना किसी कोने में हीन भावना रहेगी ही रहेगी और तब तक धीरे धीरे स्त्री समाज अपनी खुद की पहचान खोकर पुरूष समाज का अंधानुकरण करेगी ही करेगी । ये अंधानुकरण ठीक वैसा ही है जैसे आज का भारतीय युवक ५०० सालों की लूट के दम मात्र १५० साल की तरक्की को देख कर मन से गुलाम होकर अपने को पीछे समझने लगा है और हर चीज में विदेशी अंधानुकरण करने लग गया है । बदलाव की जरूरत तो हमेशा ही हर समाज को रहती है लेकिन इस बात पर नही की कोई समाज अपनी पहचान ही मिटा दे और अपने को हीन समझे ।
जिस प्रकार आपके घर में गंदगी हो आप सरकार का इंतजार नही करते, आप खुद ही साफ करने जुट जाओगे । ठीक उसी प्रकार से भारतीय स्त्री समाज को अपने पीछे नही समझना चाहिये और ये तो बोलना ही नहीं चाहिये की बराबरी पर आना है । आप लोग तो वैसी ही आगे हो । जरूरत है तो बस आपको जो गलत लगे उसके खिलाफ आवाज उठाने की, भेडचाल चलने की नही ।
मै खुद एक लडका हूँ इसलिये इस मुद्दे पर लिखने का अधिकार नही है, लेकिन मै अपने को रोक नहीं सका क्युँकि जिनको ये लेख लिखना चाहिये वो आगे नही आते या फिर मतिभ्रम में है ।

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