September 21, 2014

कानपुर की लाइफ लाइन का विकृतिकरण


हर शहर की एक लाइफ लाइन होती है और उसी के बूते उस शहर की धड़कन अपने होने का अहसास कराती है। कानपुर की लाइफ लाइन उसकी मिलें, फैक्ट्रियां और कारखाने थे। इनसे हजारों लोगों को रोजगार मिलता था और शहर में चहल-पहल बनी रहती थी। भले कानपुर शहर का अपना इतिहास न रहा हो पर उसका वर्तमान शानदार था लेकिन पहले कृत्रिम पावर क्राइसिस (बिजली संकट) खड़ा कर राजनीतिकों ने इस शहर को रोजगार विहीन और श्रीविहीन होने दिया और इसके बाद धीरे-धीरे जनहितकारी कानूनों में बदलाव कर के मिलों की जमीनें बेचने के अधिकार मालिकों को दे दिए गए। याद कीजिए जब कारखानों के लिए जमीन अलाट होती है तो अधिकतर वह जन शून्य इलाकों में और शहर के बाहर होती है। मिल में काम करने वाले मजदूर उस इलाके का विकास करते हैं। अपने रहने लायक डेरा बना कर और सौदा-सुलफ के लिए दूकानें तैयार कर और जैसे ही वह जमीन शहर के मध्य में आई तत्काल मिल मालिक राजनेताओ से साठगांठ कर जमीन को बेचने का काम शुरू कर देते हैं। इस व्यवसाय में मेहनत व लागत कम तथा मुनाफा अनाप-शनाप है। नतीजा, इस विशाल और समृद्घ शहर के मजदूर रिक्शा चलाने लगे या दिहाड़ी मजदूर हो गए। शहर की पहचान आसपास के जिलों के लिए एक ट्रेड सेंटर की हो गई। संगठित मजदूर असंगठित मजदूर बन गया और कानपुर का संगठित ट्रेड यूनियन आंदोलन बिखर गया। नतीजा यह हुआ कि यह शहर दलालों का शहर बन गया और जिस कम्युनिस्ट आंदोलन की यहां जड़ें थीं वह आंदोलन जाति और संप्रदाय की राजनीति करने वालों के कब्जे में आ गया। जातिवादी और संप्रदायवादी राजनीति एक दलाल वर्ग पैदा करती है और इस वर्ग के हितों के संरक्षण का बीड़ा इस राजनीति के कर्ताधर्ता उठाते हैं। जातिवादी और सांप्रदायिक राजनीति का सबसे बड़ा लाभ प्रापर्टी डीलरों को हुआ। वही औद्योगिक कारखानों का मालिक अब अपनी जमीनें बेच-बेचकर अपनी तिजोरी भरने लगा। उसी मिल के संगठित मजदूर तो दिहाड़ी के मजदूर बन गए पर मालिक और संपन्न हो गए। यह कौन सा न्याय हुआ मिल की जमीन पर मजदूर का भी हक था पर अगर यह सवाल उठाया जाए तो चाहे विधायिका हो अथवा कार्यपालिका या न्यायपालिका से, सब यही कहेंगे कि यह कैसे हो सकता है?
कानपुर या इस जैसे उत्तर भारत के औद्योगिक शहरों को पुरानी जीवन रेखा लौटाने के लिए जन आंदोलन खड़े करने होंगे, सांप्रदायिक राजनीति और जातिवादी तत्वों की कमर तोडऩी होगी और लोगों के बेहतर जीवन का एक सपना देखना होगा। आप पाएंगे कि कानपुर शहर में मिलें और कारखानें बंद हुए हैं पर कारपोरेट दफ्तरों और बड़े-बड़े मालों तथा बहुखंडी आवासीय परिसरों का निर्माण धड़ाधड़ हो रहा है यानी लोगों के पास पैसा है। और यह पैसा दलाली से, सेवा सेक्टर में लोगों के चले जाने से आया है। लोन की सुविधा ने लोगों का जीवन स्तर तो बढ़ाया है पर स्थायित्व को उतना ही अस्थिर किया है। कानपुर में जन आंदोलन नहीं खड़े हुए तो अफसर, नेता और जमीन के दलालों का गठजोड़ इस शहर को और चौपट कर देगा। कानपुर को हाई स्पीड शताब्दी ट्रेनें या बुलेट ट्रेन नहीं चाहिए उसे चाहिए बिजली। उसे मल्टी स्टोरी अपार्टमेंट नहीं उसे चाहिए छोटे-छोटे ईडब्लूएस टाइप के आवासीय परिसर। उसे फोर लेन या सिक्स लेन वाली सड़कों से ज्यादा जरूरत शहर की खस्ता हाल हो चुकी सड़कों के पुननिर्माण तथा शहर का नया मास्टर प्लान तैयार करने की है। पर मजा देखिए कि लखनऊ के शासक यहां जो अफसर भेजते हैं वे खुद प्रापर्टी के दलाल बन जाते हैं क्योंकि जमीनों को खरीदने-बेचने के असीम अधिकार विकास प्राधिकरणों और आवास विकास परिषदों को मिले हुए हैं। पार्कों को बेचा जा रहा है और उस पर मल्टी स्टोरी कांपलैक्स बनाए जा रहे हैं। आज तक किसी ने यह प्रश्न नहीं उठाया कि जब पार्क फेसिंग भूखंड इसी कानपुर विकास प्राधिकरण ने दिए थे तब उसका ज्यादा पैसा इन विकास प्राधिकरणों ने किस आधार पर लिया था। नगर निगम अपनी देख-रेख में अवैध निर्माण कराती है और पुलिस अफसर मकान खाली कराने और जमीनों के कब्जे का खेल कराते हैं। इसका नतीजा यह हुआ कि कुछ लोगों के पास बिना किसी कौशल के बहुत सारा अतिरिक्त धन आ गया है और उस धन को खपाने के लिए यहां नशे और अय्याशी का एक नया रोजगार शुरू हुआ है। अभी पिछले दिनों एक धनपति के एकमात्र संतान ने अपनी पत्नी को मार डाला सिर्फ अपनी प्रेमिका की खातिर। इसके बाद पूरा शहर दो हिस्सों में बट गया। पुलिस अफसरों से लेकर न्याय प्रदाता संस्थाओं में होड़ मच गई कि किस तरह इस भोले बच्चे को बचाया जाए और इसके लिए उसके मां-बाप से धन लिया जाने लगा। एक सीओ साहब तो इस लाड़ले बच्चे को बचाने के लिए अपने अधीनस्थ पुलिस कर्मचारियों को हड़काने लगे कि अरे बच्चा है गलती हो गई तो क्या उससे कड़ाई बरत कर पूछताछ करोगे?
कानपुर नष्ट हो रहा है। उसके अंदर की जीवन रेखा खत्म हो गई है लेकिन दक्षिण पंथी राजनीति करने वाले इसे प्रापर्टी डीलरों और मिलावट खोरों और नकली माल बेचने वालों का शहर बनाने पर आमादा हैं। इसके नए रूप से एक और दलाल और धोखेबाज वर्ग पैदा हो रहा है। जो नशे का कारोबार करते हैं, स्त्रियों की खरीद-फरोखत का धंधा करते हैं। आखिर एक धंधेबाज को दूसरी अन्य चीजें भी तो चाहिए। अब कानपुर में शराब की दूकानें और पान की दूकानों में होड़ मची है कि किस गली और नुक्कड़ में कौन सी जगह पर शराब का ठेका खोला जाए या पान की दूकान खोली जाए या डिब्बाबंद मांस बेचने वालों की दूकानें। यहां यह सब कुछ जायज है और इसलिए क्योंकि यहां के लोग मुरदा हो गए हैं। अब यहां साहित्य नहीं रचा जा रहा है साहित्यकारों ने जमीन खरीदने-बेचने का धंधा शुरू कर दिया है। अब यहां साहित्य के अवमूल्यन अथवा जनवादी साहित्य पर चर्चा नहीं होती बल्कि सेमीनार होते हैं किस तरह कानपुर की इंच-इंच जमीन को बेचकर उससे अधिक से अधिक रिटर्न पाया जा सके। यहां के मशहूर सरकारी इंजीनियरिंग संस्थान दलाली की तकनीक विकसित करने की शिक्षा देते हैं। शिक्षा माफियाओं ने हायर एजूकेशन के नाम पर लूट मचा रखी है। छात्र आंदोलन चौपट होते जा रहे हैं। शहर में एक और वर्ग पैदा हुआ है जो कहीं भी जमीन देखकर उस पर धार्मिक स्थल बनवा देता है और फिर उसी धार्मिक स्थल के चारों तरफ दूकानें खोल लेता है। आमदनी का एक जरिया यह भी है। आप पाएंगे कि पिछले दो दशक में कानपुर में सबसे ज्यादा ये धार्मिक स्थलों का मायाजाल फैला है। चाहे वह मुस्लिम इलाका हो या हिंदू, धार्मिक स्थल खूब फले-फूले हैं। पैसा आ रहा है फिर किस बात की चिंता।
सब कुछ इस कानपुर में चल रहा है। मंदिर भी मस्जिद भी और जमीन से लेकर मनुष्य की मनुष्यता तथा स्त्रियों को खरीदने-बेचने वालों को धंधा भी। धर्म भी है और कर्म भी है फिर क्यों न कनपुरिये अपने इस शहर पर गर्व करें। आखिर गर्व करने लायक उनके पास बहुत कुछ जो है! हर हर गंगे हर हर महादेव और हर हर नेता करते रहो और नशे की पिनक में पड़े रहो। यह स्थिति राजनेताओं को रास आती है, अफसरों को रास आती है और एनजीओ चलाने वाले तमाम धंधेबाजों को भी। दलालों के लिए यह शहर तो चांदी नहीं सोना है।

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