आयुर्वेद चिकित्सा दो प्रकार से की जाती थी-
(अ) शोधन-पंचकर्म द्वारा, ये निम्न हैं-
(१) वमन- मुंह से उल्टी करके दोष दूर करना, (२) विरेचन-मुख्यत: गुदा मार्ग से दोष निकालना, (३) बस्ति (एनीमा) (४) रक्तमोक्षण-जहरीली चीज काटने पर या शरीर में खराब रक्त कहीं हो, तो उसे निकालना। (५) नस्य- नाक द्वारा स्निग्ध चीज देना
(ब) शमन- औषधि द्वारा चिकित्सा, इसकी परिधि बहुत व्याप्त थी। आठ प्रकार की चिकित्साएं बताई गई हैं।
(१) काय चिकित्सा-सामान्य चिकित्सा
(२) कौमार भृत्यम्-बालरोग चिकित्सा
(३) भूत विद्या- मनोरोग चिकित्सा
(४) शालाक्य तंत्र- उर्ध्वांग अर्थात् नाक, कान, गला आदि की चिकित्सा
(५) शल्य तंत्र-शल्य चिकित्सा
(६) अगद तंत्र-विष चिकित्सा
(७) रसायन-रसायन चिकित्सा
(८) बाजीकरण-पुरुषत्व वर्धन
औषधियां:- चरक ने कहा, जो जहां रहता है, उसी के आसपास प्रकृति ने रोगों की औषधियां दे रखी हैं। अत: वे अपने आसपास के पौधों, वनस्पतियों का निरीक्षण व प्रयोग करने का आग्रह करते थे। एक समय विश्व के अनेक आचार्य एकत्रित हुए, विचार-विमर्श हुआ और उसकी फलश्रुति आगे चलकर ‘चरक संहिता‘ के रूप में सामने आई। इस संहिता में औषधि की दृष्टि से ३४१ वनस्पतिजन्य, १७७ प्राणिजन्य, ६४ खनिज द्रव्यों का उल्लेख है। इसी प्रकार सुश्रुत संहिता में ३८५ वनस्पतिजन्य, ५७ प्राणिजन्य तथा ६४ खनिज द्रव्यों से औषधीय प्रयोग व विधियों का वर्णन है। इनसे चूर्ण, आसव, काढ़ा, अवलेह आदि अनेक में रूपों औषधियां तैयार होती थीं।
इससे पूर्वकाल में भी ग्रंथों में कुछ अद्भुत औषधियों का वर्णन मिलता है। जैसे बाल्मीकी रामायण में राम-रावण युद्ध के समय जब लक्ष्मण पर प्राणांतक आघात हुआ और वे मूर्छित हो गए, उस समय इलाज हेतु जामवन्त ने हनुमान जी के पास हिमालय में प्राप्त होने वाली चार दुर्लभ औषधियों का वर्णन किया।
मृत संजीवनी चैव विशल्यकरणीमपि।
सुवर्णकरणीं चैव सन्धानी च महौषधीम्॥
युद्धकाण्ड ७४-३३
(१) विशल्यकरणी-शरीर में घुसे अस्त्र निकालने वाली
(२) सन्धानी- घाव भरने वाली
(३) सुवर्णकरणी-त्वचा का रंग ठीक रखने वाली
(४) मृतसंजीवनी-पुनर्जीवन देने वाली
चरक के बाद बौद्धकाल में नागार्जुन, वाग्भट्ट आदि अनेक लोगों के प्रयत्न से रस शास्त्र विकसित हुआ। इसमें पारे को शुद्ध कर उसका औषधीय उपयोग अत्यंत परिणामकारक रहा। इसके अतिरिक्त धातुओं, यथा-लौह, ताम्र, स्वर्ण, रजत, जस्त को विविध रसों में डालना और गरम करना-इस प्रक्रिया से उन्हें भस्म में परिवर्तित करने की विद्या विकसित हुई। यह भस्म और पादपजन्य औषधियां भी रोग निदान में काम आती हैं।
शल्य चिकित्सा- कुछ वर्षों पूर्व इंग्लैण्ड के शल्य चिकित्सकों के विश्व प्रसिद्ध संगठन ने एक कैलेण्डर निकाला, उसमें विश्व के अब तक के श्रेष्ठ शल्य चिकित्सकों (सर्जन) के चित्र दिए गए थे। उसमें पहला चित्र आचार्य सुश्रुत का था तथा उन्हें विश्व का पहला शल्य चिकित्सक बताया गया था।
वैसे भारतीय परम्परा में शल्य चिकित्सा का इतिहास बहुत प्राचीन है। भारतीय चिकित्सा के देवता धन्वंतरि को शल्य क्रिया का भी जनक माना जाता है। प्राचीनकाल में इस क्षेत्र में हमारे देश के चिकित्सकों ने अच्छी प्रगति की थी। अनेक ग्रंथ रचे गए। ऐसे ग्रंथों के रचनाकारों में सुश्रुत, पुष्कलावत, गोपरक्षित, भोज, विदेह, निमि, कंकायन, गार्ग्य, गालव, जीवक, पर्वतक, हिरण्याक्ष, कश्यप आदि के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। इन रचनाकारों के अलावा अनेक प्राचीन ग्रंथों से इस क्षेत्र में भारतीयों की प्रगति का ज्ञान होता है।
ऋग्वेद तथा अथर्ववेद में दिल, पेट तथा वृक्कों के विकारों का विवरण है। इसी तरह शरीर में नवद्वारों तथा दस छिद्रों का विवरण दिया गया है। वैदिक काल के शल्य चिकित्सक मस्तिष्क की शल्य क्रिया में निपुण थे। ऋग्वेद (८-८६-२) के अनुसार जब विमना और विश्वक ऋषि उद्भ्रान्त हो गए थे, तब शल्य क्रिया द्वारा उनका रोग दूर किया गया। इसी ग्रंथ में नार्षद ऋषि का भी विवरण है। जब वे पूर्ण रूप से बधिर हो गए तब अश्विनी कुमारों ने उपचार करके उनकी श्रवण शक्ति वापस लौटा दी थी। नेत्र जैसे कोमल अंग की चिकित्सा तत्कालीन चिकित्सक कुशलता से कर लेते थे। ऋग्वेद (१-११६-११) में शल्य क्रिया द्वारा वन्दन ऋषि की ज्योति वापस लाने का उल्लेख मिलता है।
शल्य क्रिया के क्षेत्र में बौद्ध काल में भी तीव्र गति से प्रगति हुई। ‘विनय पिटक‘ के अनुसार राजगृह के एक श्रेष्ठी के सर में कीड़े पड़ गए थे। तब वैद्यराज जीवक ने शल्य क्रिया से न केवल वे कीड़े निकाले बल्कि इससे बने घावों को ठीक करने के लिए उन पर औषधि का लेप किया था। हमारे पुराणों में भी शल्य क्रिया के बारे में पर्याप्त जानकारी दी गई। ‘शिव पुराण‘ के अनुसार जब शिव जी ने दक्ष का सर काट दिया था तब अश्विनी कुमारों ने उनको नया सर लगाया था। इसी तरह गणेश जी का मस्तक कट जाने पर उनके धड़ पर हाथी का सर जोड़ा गया था। ‘रामायण‘ तथा ‘महाभारत‘ में भी ऐसे कुछ उदाहरण मिलते हैं। ‘रामायण‘ में एक स्थान पर कहा है कि ‘याजमाने स्वके नेत्रे उद्धृत्याविमना ददौ।‘ अर्थात् आवश्यकता पड़ने पर एक मनुष्य की आंख निकालकर दूसरे को लगा दी जाती थी। (बा.रा.-२-१६-५) ‘महाभारत‘ के सभा पर्व में युधिष्ठिर व नारद के संवाद से शल्य चिकित्सा के ८ अंगों का परिचय मिलता है।
वैद्य सबल सिंह भाटी कहते हैं कि सुश्रुत संहिता में शल्य चिकित्सा का प्रशिक्षण गुरुशिष्य परम्परा के माध्यम से दिया जाता था। मुर्दों तथा पुतलों का विच्छेदन करके व्यावहारिक ज्ञान दिया जाता था। प्रशिक्षित शल्यज्ञ विभिन्न उपकरणों तथा अग्नि के माध्यम से तमाम क्रियाएं सम्पन्न करते थे। जरूरत पड़ने पर रोगी को खून भी चढ़ाया जाता था। इसके लिए तेज धार वाले उपकरण शिरावेध का उपयोग होता था।
आठ प्रकार की शल्य क्रियाएं- सुश्रुत द्वारा वर्णित शल्य क्रियाओं के नाम इस प्रकार हैं (१) छेद्य (छेदन हेतु) (२) भेद्य (भेदन हेतु) (३) लेख्य (अलग करने हेतु) (४) वेध्य (शरीर में हानिकारक द्रव्य निकालने के लिए) (५) ऐष्य (नाड़ी में घाव ढूंढने के लिए) (६) अहार्य (हानिकारक उत्पत्तियों को निकालने के लिए) (७) विश्रव्य (द्रव निकालने के लिए) (८) सीव्य (घाव सिलने के लिए)
सुश्रुत संहिता में शस्त्र क्रियाओं के लिए आवश्यक यंत्रों (साधनों) तथा शस्त्रों (उपकरणों) का भी विस्तार से वर्णन किया गया है। आजकल की शल्य क्रिया में ‘फौरसेप्स‘ तथा ‘संदस‘ यंत्र फौरसेप्स तथा टोंग से मिलते-जुलते हैं। सुश्रुत के महान ग्रन्थ में २४ प्रकार के स्वास्तिकों, २ प्रकार के संदसों, २८ प्रकार की शलाकाओं तथा २० प्रकार की नाड़ियों (नलिका) का उल्लेख हुआ है। इनके अतिरिक्त शरीर के प्रत्येक अंग की शस्त्र-क्रिया के लिए बीस प्रकार के शस्त्रों (उपकरणों) का भी वर्णन किया गया है। पूर्व में जिन आठ प्रकार की शल्य क्रियाओं का संदर्भ आया है, वे विभिन्न साधनों व उपकरणों से की जाती थीं। उपकरणों (शस्त्रों) के नाम इस प्रकार हैं-
अर्द्धआधार, अतिमुख, अरा, बदिशा, दंत शंकु, एषणी, कर-पत्र, कृतारिका, कुथारिका, कुश-पात्र, मण्डलाग्र, मुद्रिका, नख शस्त्र, शरारिमुख, सूचि, त्रिकुर्चकर, उत्पल पत्र, वृध-पत्र, वृहिमुख तथा वेतस-पत्र।
आज से कम से कम तीन हजार वर्ष पूर्व सुश्रुत ने सर्वोत्कृष्ट इस्पात के उपकरण बनाये जाने की आवश्यकता बताई। आचार्य ने इस पर भी बल दिया है कि उपकरण तेज धार वाले हों तथा इतने पैने कि उनसे बाल को भी दो हिस्सों में काटा जा सके। शल्यक्रिया से पहले व बाद में वातावरण व उपकरणों की शुद्धता (रोग-प्रतिरोधी वातावरण) पर सुश्रुत ने इतना जोर दिया है तथा इसके लिए ऐसे साधनों का वर्णन किया है कि आज के शल्य चिकित्सक भी दंग रह जाएं। शल्य चिकित्सा (सर्जरी) से पहले रोगी को संज्ञा-शून्य करने (एनेस्थेशिया) की विधि व इसकी आवश्यकता भी बताई गई है। ‘भोज प्रबंध‘ (९२७ ईस्वी) में बताया गया है कि राजा भोज को कपाल की शल्य-क्रिया के पूर्व ‘सम्मोहिनी‘ नामक चूर्ण सुंघाकर अचेत किया गया था।
चौदह प्रकार की पट्टियां- इन उपकरणों के साथ ही आवश्यकता पड़ने पर बांस, स्फटिक तथा कुछ विशेष प्रकार के प्रस्तर खण्डों का उपयोग भी शल्य क्रिया में किया जाता था। शल्य क्रिया के मर्मज्ञ महर्षि सुश्रुत ने १४ प्रकार की पट्टियों का विवरण किया है। उन्होंने हड्डियों के खिसकने के छह प्रकारों तथा अस्थि-भंग के १२ प्रकारों की विवेचना की है। यही नहीं, उनके ग्रंथ में कान संबंधी बीमारियों के २८ प्रकार तथा नेत्र-रोगों के २६ प्रकार बताए गए हैं।
सुश्रुत संहिता में मनुष्य की आंतों में कर्कट रोग (कैंसर) के कारण उत्पन्न हानिकर तन्तुओं (टिश्युओं) को शल्य क्रिया से हटा देने का विवरण है। शल्यक्रिया द्वारा शिशु-जन्म (सीजेरियन) की विधियों का वर्णन किया गया है। ‘न्यूरो-सर्जरी‘ अर्थात् रोग-मुक्ति के लिए नाड़ियों पर शल्य-क्रिया का उल्लेख है तथा आधुनिक काल की सर्वाधिक पेचीदी क्रिया ‘प्लास्टिक सर्जरी‘ का सविस्तार वर्णन सुश्रुत के ग्रन्थ में है। आधुनिकतम विधियों का भी उल्लेख इसमें है। कई विधियां तो ऐसी भी हैं जिनके सम्बंध में आज का चिकित्सा शास्त्र भी अनभिज्ञ है। संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि प्राचीन भारत में शल्य क्रिया अत्यंत उन्नत अवस्था में थी, जबकि शेष विश्व इस विद्या से बिल्कुल अनभिज्ञ था।