November 28, 2016

Sorrow is the mother of worship - चीरहरण


बिन काज आज महाराज लाज गयी मेरी ,

दुख हरौ द्वारकानाथ शरण मैं तेरी ।



जब सब राज - अराज ,लाभ-अलाभ , व्यर्थ के वचनों -रीतियों के मान - अमान के गुणा-गणित में मनुष्यता की आन को बेपरदा कर रहे थे ,तब वो ग्वाला जड़ मर्यादा को लाठी मार कर सड़ी हुई सामंती मानसिकता को उसकी औकात दिखाता है - द्रौपदी का मान बचाता है। 
क्या चीर-वर्धन का चमत्कार हुआ होगा ? 
वो ग्वाला राजसभा को रौंद कर द्रौपदी को अपनी कमली ओढ़ा गया होगा - असहाय का सहाय होने की हिम्मत तब आती है ,जब कुछ खोने का भय न हो ।

कृष्ण-कथा में दो प्रसंग मुझे अत्यंत मार्मिक लगते हैं-- एक द्रौपदी का चीर-हरण और दूसरा कृष्ण-सुदामा की मित्रता। सभी सभाषदों, पतियों एवं बृद्धजनों से निराश द्रौपदी का आर्तनाद मुझे अंदर तक हिला देता है। इस प्रसंग को जितनी बार पड़ता हूँ, आँखे गीली हो जाती हैं। गहन पीड़ा के क्षणों में आपकी पुकार सुनने वाला ही तो ईश्वर बन जाता है। चीर-वर्द्धन का जो भी मिथक रहा होगा,किन्तु अशरण का शरण बनने वाला ही ईश्वर उपनाम ग्रहण करता है। एक नारी का अपमान कितना विनाशक हो सकता है,इस प्रतीक कथा से ज्ञात होता है।

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