बकरीद के अवसर पर
वेद में अज के २ अर्थ हैं-बकरा तथा भगवान्। ४ प्रकार के पुरुषों में इसे अव्यय पुरुष कहा गया है-अजोऽपि सन् अव्ययात्मा। इसी प्रकार कुरान में भी बकर के २ अर्थ हैं- भगवान् या कोई चौपाया। कुरान के आरम्भ में सबसे बड़ा अध्याय अल-बकरा है। स्पष्टतः कुरान बकरे की पूजा या प्रशंसा के लिये नहीं है, इसका अर्थ भगवान् का वर्णन है। अतः बकरीद का अर्थ बकर या भगवान् की पूजा है(बकर= भगवान्, ईद = पूजा)। पर धर्मशास्त्र या कानून की पुस्तकों का लोग वही अर्थ करते हैं जो उनकी इच्छा के अनुसार हो। अपराधी भी अपने बचने के लिये कानून की वैसी ही व्याख्या करता है। जिनको मांस खाने की इच्छा है, वे वेद या कुरान की वैसी ही व्याख्या करते हैं। महाभारत, शान्ति पर्व, अध्याय ३३७ में कहानी है कि कुछ लोग यज्ञ में पशु बलि दे कर उनका मांस खाना चाहते थे, जिसका कुछ ऋषियों ने विरोध किया। उस समय राजा उपरिचर वसु (मगध के राजा जरासन्ध के पूर्वज) अपने विमान से गुजर रहे थे। उनको निर्णय देने की प्रार्थना हुयी। उन्होंने कुछ लोगों को प्रसन्न करने के लिये लिये अज की व्याख्या यज्ञ का बीज करने के बदले में उसे बकरा कह कर उसकी बलि देने को कहा। बाद में मगध में सिद्धार्थ बुद्ध ने भी भिक्षुओं के मांसाहार का समर्थन किया, तथा इसका विरोध करने पर अपने भाई देवदत्त को संघ से निकाल दिया। अधिक मांसाहार के कारण बुद्ध के पेट की सर्जरी करनी पड़ी और अन्त में सारनाथ में मांस खाने के कारण उनकी मृत्यु हुई। कृषि प्रधान क्षेत्रों जैसे उत्तर प्रदेश में प्रायः लोग शाकाहारी हैं। जहां खेती कम होती है, वहीं मांसाहार प्रचलित है।
यज्ञ का अर्थ है निर्माण चक्र (गीता, अध्याय ३/१०-१६)। उसकी बाधाओं को दूर करना शम्या कहा गया है, तथा दूर करने वाले को शमिता। पर इसका अर्थ भी पशु बलि देने वाला किया जाता है। (ऋग्वेद १/२०/२, मैत्रायणी संहिता ४/१३/४, निरुक्त ५/११ आदि)। घोड़े पर सवारी के पहले उसकी पीठ थपथपाते हैं, जिसे आलभन कहा गया है। शिष्य भी जब गुरु के पास जाता है, उसके स्वागत या प्रोत्साहन के लिये उसकी पीठ थपथपायी जाती है। पीठ थपथपाने का अर्थ ही हो गया है-प्रोत्साहित करना। पर मांसाहार के लिये लोगों ने आलभन का अर्थ किया है पशु की हत्या करना।
पशु बलि का अर्थ है उनका किसी काम में प्रयोग करना। सृष्टि निर्माण के लिये भी पुरुष सूक्त में कहा है कि पुरुष रूपी पशु को यज्ञ के लिये बान्धा गया-अबध्नन् पुरुषम् पशुम्। यहां पुरुष का अर्थ ब्रह्म या भगवान् है, जो स्रष्टा, तथा सृष्टि दोनों है। ऋग्वेद में भूरिशृंग गायों को खाने के बारे में कहा है-
ता वां वास्तून्युश्मसि गमध्यै यत्र गावो भूरिशृङ्गा अयासः।
अत्राह तदुरुगायस्य वृष्णः परमं पदमव भाति भूरि॥ (ऋग्वेद १/१५४/६)।
यहां गौ का अर्थ है गाय पशु (बैल भी) जिस पर खेती तथा हमारी सभ्यता आधारित है। बाकी सभी यज्ञ भी गौ हैं तथा पृथ्वी को भी गौ कहते हैं (ग्रीक में गैया)। भूरी-शृंग का अर्थ है उसका अतिरिक्त उत्पादन, जिसका उपभोग करना चाहिये। इतना नहीं खायें कि गो जाति या पृथ्वी नष्ट हो जाय या सभी निर्माण कार्य बन्द हो जायें। इसी को शतपथ ब्राह्मण ३/३/१/१४) में बभ्रू, रोहिणी या पिंगाक्षी गौ कहा गया है। कुरान के अल-बकरा अध्याय में भूरि-शृंग या बभ्रू अर्थ में ही भूरी गाय को खाने के लिये कहा गया है। उसमें लोगों ने कहा भी है कि गाय की पूजा करनी चाहिये (कुरान २/१३१)। उसके उत्तर में कहा है कि केवल भूरी गाय खाना है जिसका खेती आदि में प्रयोग नहीं होता हो (कुरान २/७२)। कुरान (२/६२) में स्पष्ट कहा है कि वही चीज खानी है जो जमीन से उपजती हैं।
भगवान् को अज या बकर के रूप में चौपाया ज्यों कहा गया है। संसार की हर चीज को ४ रूपों में देखते हैं, जिनमें ३ का वर्णन होता है, जो हर जगह एक जैसा है, उसका कोई वर्णन नहीं है। अतः ॐ में अ+उ+म-ये तीन व्यक्त हैं तथा विन्दु अव्यक्त है, जिसे अर्द्धआत्रा कहते हैं। कुरान के आरम्भ में फ़ातिहा,७ में भी कहा है कि अलिफ़्, लाम्, मीम्-ये तीन तत्त्व हैं। लेकिन इन तीनों को मिला कर पूरा नहीं होता-आलम ९विश्व या पूरा) में अलिफ़् के ऊपर आधी मात्रा लगानी पड़ती है। पुरुष (संसार) के ४ रूप हैं-क्षर (बाहरी रूप, मूर्त्ति) जो हमेशा बदलती रहती है, या नष्ट होती है। बाकी ३ स्थायी हैं-अक्षर =काम के लिये परिचय। हमारा रूप जन्म से लेकर हमेशा बदलता रहता है, पर हम अपने को वही आदमी समझते हैं। बदलते हुये रूपों का क्रम अव्यय पुरुष है जिसे अज भी कहा गया है। जिस मूल रूप में कही कोई अन्तर नहीं है, वह परात्पर है। यज्ञ के रूप में ४ प्रकार का बलिदान या कुर्बानी है-
(१) अपने शरीर को अपने नियन्त्रण में रखना (उपवास, काम में लगाना, या गलत कामों से बचना)।
(२) व्यक्ति का परिवार के लिये उपयोग।
(३) परिवार का समाज के लिये उपयोग।
(४) समाज का देश या विश्व (भगवान) के लिये उपयोग।
वेद में अज के २ अर्थ हैं-बकरा तथा भगवान्। ४ प्रकार के पुरुषों में इसे अव्यय पुरुष कहा गया है-अजोऽपि सन् अव्ययात्मा। इसी प्रकार कुरान में भी बकर के २ अर्थ हैं- भगवान् या कोई चौपाया। कुरान के आरम्भ में सबसे बड़ा अध्याय अल-बकरा है। स्पष्टतः कुरान बकरे की पूजा या प्रशंसा के लिये नहीं है, इसका अर्थ भगवान् का वर्णन है। अतः बकरीद का अर्थ बकर या भगवान् की पूजा है(बकर= भगवान्, ईद = पूजा)। पर धर्मशास्त्र या कानून की पुस्तकों का लोग वही अर्थ करते हैं जो उनकी इच्छा के अनुसार हो। अपराधी भी अपने बचने के लिये कानून की वैसी ही व्याख्या करता है। जिनको मांस खाने की इच्छा है, वे वेद या कुरान की वैसी ही व्याख्या करते हैं। महाभारत, शान्ति पर्व, अध्याय ३३७ में कहानी है कि कुछ लोग यज्ञ में पशु बलि दे कर उनका मांस खाना चाहते थे, जिसका कुछ ऋषियों ने विरोध किया। उस समय राजा उपरिचर वसु (मगध के राजा जरासन्ध के पूर्वज) अपने विमान से गुजर रहे थे। उनको निर्णय देने की प्रार्थना हुयी। उन्होंने कुछ लोगों को प्रसन्न करने के लिये लिये अज की व्याख्या यज्ञ का बीज करने के बदले में उसे बकरा कह कर उसकी बलि देने को कहा। बाद में मगध में सिद्धार्थ बुद्ध ने भी भिक्षुओं के मांसाहार का समर्थन किया, तथा इसका विरोध करने पर अपने भाई देवदत्त को संघ से निकाल दिया। अधिक मांसाहार के कारण बुद्ध के पेट की सर्जरी करनी पड़ी और अन्त में सारनाथ में मांस खाने के कारण उनकी मृत्यु हुई। कृषि प्रधान क्षेत्रों जैसे उत्तर प्रदेश में प्रायः लोग शाकाहारी हैं। जहां खेती कम होती है, वहीं मांसाहार प्रचलित है।
यज्ञ का अर्थ है निर्माण चक्र (गीता, अध्याय ३/१०-१६)। उसकी बाधाओं को दूर करना शम्या कहा गया है, तथा दूर करने वाले को शमिता। पर इसका अर्थ भी पशु बलि देने वाला किया जाता है। (ऋग्वेद १/२०/२, मैत्रायणी संहिता ४/१३/४, निरुक्त ५/११ आदि)। घोड़े पर सवारी के पहले उसकी पीठ थपथपाते हैं, जिसे आलभन कहा गया है। शिष्य भी जब गुरु के पास जाता है, उसके स्वागत या प्रोत्साहन के लिये उसकी पीठ थपथपायी जाती है। पीठ थपथपाने का अर्थ ही हो गया है-प्रोत्साहित करना। पर मांसाहार के लिये लोगों ने आलभन का अर्थ किया है पशु की हत्या करना।
पशु बलि का अर्थ है उनका किसी काम में प्रयोग करना। सृष्टि निर्माण के लिये भी पुरुष सूक्त में कहा है कि पुरुष रूपी पशु को यज्ञ के लिये बान्धा गया-अबध्नन् पुरुषम् पशुम्। यहां पुरुष का अर्थ ब्रह्म या भगवान् है, जो स्रष्टा, तथा सृष्टि दोनों है। ऋग्वेद में भूरिशृंग गायों को खाने के बारे में कहा है-
ता वां वास्तून्युश्मसि गमध्यै यत्र गावो भूरिशृङ्गा अयासः।
अत्राह तदुरुगायस्य वृष्णः परमं पदमव भाति भूरि॥ (ऋग्वेद १/१५४/६)।
यहां गौ का अर्थ है गाय पशु (बैल भी) जिस पर खेती तथा हमारी सभ्यता आधारित है। बाकी सभी यज्ञ भी गौ हैं तथा पृथ्वी को भी गौ कहते हैं (ग्रीक में गैया)। भूरी-शृंग का अर्थ है उसका अतिरिक्त उत्पादन, जिसका उपभोग करना चाहिये। इतना नहीं खायें कि गो जाति या पृथ्वी नष्ट हो जाय या सभी निर्माण कार्य बन्द हो जायें। इसी को शतपथ ब्राह्मण ३/३/१/१४) में बभ्रू, रोहिणी या पिंगाक्षी गौ कहा गया है। कुरान के अल-बकरा अध्याय में भूरि-शृंग या बभ्रू अर्थ में ही भूरी गाय को खाने के लिये कहा गया है। उसमें लोगों ने कहा भी है कि गाय की पूजा करनी चाहिये (कुरान २/१३१)। उसके उत्तर में कहा है कि केवल भूरी गाय खाना है जिसका खेती आदि में प्रयोग नहीं होता हो (कुरान २/७२)। कुरान (२/६२) में स्पष्ट कहा है कि वही चीज खानी है जो जमीन से उपजती हैं।
भगवान् को अज या बकर के रूप में चौपाया ज्यों कहा गया है। संसार की हर चीज को ४ रूपों में देखते हैं, जिनमें ३ का वर्णन होता है, जो हर जगह एक जैसा है, उसका कोई वर्णन नहीं है। अतः ॐ में अ+उ+म-ये तीन व्यक्त हैं तथा विन्दु अव्यक्त है, जिसे अर्द्धआत्रा कहते हैं। कुरान के आरम्भ में फ़ातिहा,७ में भी कहा है कि अलिफ़्, लाम्, मीम्-ये तीन तत्त्व हैं। लेकिन इन तीनों को मिला कर पूरा नहीं होता-आलम ९विश्व या पूरा) में अलिफ़् के ऊपर आधी मात्रा लगानी पड़ती है। पुरुष (संसार) के ४ रूप हैं-क्षर (बाहरी रूप, मूर्त्ति) जो हमेशा बदलती रहती है, या नष्ट होती है। बाकी ३ स्थायी हैं-अक्षर =काम के लिये परिचय। हमारा रूप जन्म से लेकर हमेशा बदलता रहता है, पर हम अपने को वही आदमी समझते हैं। बदलते हुये रूपों का क्रम अव्यय पुरुष है जिसे अज भी कहा गया है। जिस मूल रूप में कही कोई अन्तर नहीं है, वह परात्पर है। यज्ञ के रूप में ४ प्रकार का बलिदान या कुर्बानी है-
(१) अपने शरीर को अपने नियन्त्रण में रखना (उपवास, काम में लगाना, या गलत कामों से बचना)।
(२) व्यक्ति का परिवार के लिये उपयोग।
(३) परिवार का समाज के लिये उपयोग।
(४) समाज का देश या विश्व (भगवान) के लिये उपयोग।
अति सार्थिक तथा ज्ञानवर्धक प्रस्तुति हेतु आपको साधुवाद ....
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