भारतीय संस्कृ्ति का महान प्रतीक चिन्ह-----स्वस्तिक(a symbol of life and preservation )
हिन्दू धर्म जितना विशाल और गहन है,उसकी मान्यताएं और प्रक्रियाएं भी उतनी ही विशद और विस्तृ्त हैं । आज हम देखते हैं कि जागरूकता की अधिकता के चलते बहुत से व्यक्ति विशेष रूप से पश्चिमी सभ्यता से अति प्रभावित लोग, अपने धर्म से संबंधित मान्यताओं,रीति-रिवाजों एवं कर्मकांडों पर शंका व्यक्त करने लगे हैं ।बहुत ही बातों को बिना जाने-समझे सिर्फ उन्हे ढकोसला एवं अनावश्यक समझने लगे हैं । जब कि यदि वे इन सब चीजों,प्रक्रियाओं के बारें में गहराई से मनन करें तो पाएंगें कि हिन्दू धर्म विश्व का एकमात्र ऎसा धर्म है जो कि अपने प्रत्येक कर्म,संस्कार और परम्परा में पूर्णत: वैज्ञानिकता समेटे हुए है । प्राचीन काल में शिक्षा पद्धति ऎसी थी कि बालकों को प्रारंभ से ही धर्म के बारे में विस्तृ्त जानकारी दी जाती थी,जिससे कि उनकी आस्था स्वधर्म और परम्पराओं के प्रति बनी रहे........ओर वो उनका पालन सिर्फ एक दिखावे के लिए नहीं अपितु आन्तरिक श्रद्धा भाव से करें । किन्तु आज स्थिति ऎसी नहीं है । आज न तो हमारी शिक्षा प्रणाली ऎसी है कि बच्चों को इस प्रकार की शिक्षा दी सके और न ही ऎसे विद्वान आचार्य ही दिखाई पडते हैं जो कि धर्म के क्षेत्र में समाज को एक सही मार्ग दिखा सकें ।
जैसे कि ये तो सर्वविदित है कि प्रत्येक कार्य के पीछे कोई न कोई कारण अवश्य छिपा होता है,क्यों कि कार्य हमेशा कारण से ही उपजता है । यदि एक स्त्रोत है तो दूसरा उसकी परिणति है । हिन्दू धर्म के अनुष्ठानों,परम्पराओं,मान्यताओं,सिद्धान्तों इत्यादि के मूल में भी सटीक वैज्ञानिक कारण निहित हैं । इन्ही में से कुछ कारणों को यहाँ उदघाटित करना हमारे इस ब्लाग का उदेश्य रहा है । आज बात करते हैं---भारतीय संस्कृ्ति में आदिकाल से प्रयोग किए जा रहे प्रतीक चिन्ह स्वस्तिक की---------
स्वस्तिक चिन्ह:-- भारतीय संस्कृ्ति में वैदिक काल से ही स्वस्तिक को विशेष महत्व प्रदान किया गया है । यूँ तो बहुत से लोग इसे हिन्दू धर्म का एक प्रतीक चिन्ह ही मानते हैं । किन्तु वे लोग ये नहीं जानते कि इसके पीछे कितना गहरा अर्थ छिपा हुआ है । सामान्यतय: स्वस्तिक शब्द को "सु" एवं "अस्ति" का मिश्रण योग माना जाता है । यहाँ "सु" का अर्थ है--- शुभ और "अस्ति" का--- होना ।
संस्कृ्त व्याकरण अनुसार "सु" एवं "अस्ति" को जब संयुक्त किया जाता है तो जो नया शब्द बनता है--वो है "स्वस्ति" अर्थात "शुभ हो", "कल्याण हो" ।
मानक दर्शन अनुसार स्वस्तिक दक्षिणोन्मुख दाहिने हाथ की दिशा (घडी की सूई चलने की दिशा) का संकेत तथा वामोन्मुख बाईं दिशा (उसके विपरीत) के प्रतीक हैं । दोनों दिशाओं के संकेत स्वरूप दो प्रकार के स्वस्तिक स्त्री एवं पुरूष के प्रतीक के रूप मे भी मान्य हैं । किन्तु जहाँ दाईं ओर मुडी भुजा वाला स्वस्तिक शुभ एवं सौभाग्यवर्द्धक हैं ,वहीं उल्टा (वामावर्त) स्वस्तिक को अमांगलिक,हानिकारक माना गया है ।
प्राचीन काल में राजा महाराज द्वारा किलों का निर्माण स्वस्तिक के आकार में किया जाता रहा है ताकि किले की सुरक्षा अभेद्य बनी रहे। प्राचीन पारम्परिक तरीके से निर्मित किलों में शत्रु द्वारा एक द्वार पर ही सफलता अर्जित करने के पश्चात सेना द्वारा किले में प्रवेश कर उसके अधिकाँश भाग अथवा सम्पूर्ण किले पर अधिकार करने के बाद नर संहार होता रहा है । परन्तु स्वस्तिक नुमा द्वारों के निर्माण के कारण शत्रु सेना को एक द्वार पर यदि सफलता मिल भी जाती थी तो बाकी के तीनों द्वार सुरक्षित रहते थे । ऎसी मजबूत एवं दूरगामी व्यवस्थाओं के कारण शत्रु के लिए किले के सभी भागों को एक साथ जीतना संभव नहीं होता था । यहाँ स्वस्तिक किला/दुर्ग निर्माण के परिपेक्ष्य में "सु वास्तु" था ।
स्वस्तिक का महत्व सभी धर्मों में बताया गया है। इसे विभिन्न देशों में अलग-अलग नामों से जाना जाता है। चार हजार साल पहले सिंधु घाटी की सभ्यताओं में भी स्वस्तिक के निशान मिलते हैं। बौद्ध धर्म में स्वस्तिक का आकार गौतम बुद्ध के हृदय स्थल पर दिखाया गया है। मध्य एशिया के देशों में स्वस्तिक चिन्ह मांगलिक एवं सौभाग्य सूचक माना जाता रहा है। नेपाल में हेरंब, मिस्र में एक्टोन तथा बर्मा में महा पियेन्ने के नाम से पूजित हैं। आस्ट्रेलिया तथा न्यूजीलैण्ड के मावरी आदिवासियों द्वारा आदिकाल से स्वस्तिक को मंगल प्रतीक के रूप में प्रयुक्त किया जाता रहा हैं।
यदि आधुनिक दृ्ष्टिकोण से देखा जाए तो अब तो विज्ञान भी स्वस्तिक, इत्यादि माँगलिक चिन्हों की महता स्वीकार करने लगा है । आधुनिक विज्ञान ने वातावरण तथा किसी भी जीवित वस्तु,पदार्थ इत्यादि के उर्जा को मापने के लिए विभिन्न उपकरणों का आविष्कार किया है ओर इस उर्जा मापने की इकाई को नाम दिया है---"बोविस" । मृत मानव शरीर का बोविस शून्य माना गया है और मानव में औसत ऊर्जा क्षेत्र 6,500 बोविस पाया गया है। स्वस्तिक में इस उर्जा का स्तर 1,00,0000 बोविस है। यदि इसे उल्टा बना दिया जाए तो यह प्रतिकूल ऊर्जा को इसी अनुपात में बढ़ाता है। इसी स्वस्तिक को थोड़ा टेड़ा बना देने पर इसकी ऊर्जा मात्र 1,000 बोविस रह जाती है।
इसके साथ ही विभिन्न धार्मिक स्थलों यथा मन्दिर,गुरूद्वारा इत्यादि का ऊर्जा स्तर काफी उंचा मापा गया है जिसके चलते वहां जाने वालों को शांति का अनुभव और अपनी समस्याओं,कष्टों से मुक्ति हेतु मन में नवीन आशा का संचार होता है। यही नहीं हमारे घरों,मन्दिरों,पूजा पाठ इत्यादि में प्रयोग किए जाने वाले अन्य मांगलिक चिन्हों यथा ॐ इत्यादि में भी इसी तरह की ऊर्जा समाई है। जिसका लाभ हमें जाने अनजाने में मिलता ही रहता हैं।
हिन्दू धर्म जितना विशाल और गहन है,उसकी मान्यताएं और प्रक्रियाएं भी उतनी ही विशद और विस्तृ्त हैं । आज हम देखते हैं कि जागरूकता की अधिकता के चलते बहुत से व्यक्ति विशेष रूप से पश्चिमी सभ्यता से अति प्रभावित लोग, अपने धर्म से संबंधित मान्यताओं,रीति-रिवाजों एवं कर्मकांडों पर शंका व्यक्त करने लगे हैं ।बहुत ही बातों को बिना जाने-समझे सिर्फ उन्हे ढकोसला एवं अनावश्यक समझने लगे हैं । जब कि यदि वे इन सब चीजों,प्रक्रियाओं के बारें में गहराई से मनन करें तो पाएंगें कि हिन्दू धर्म विश्व का एकमात्र ऎसा धर्म है जो कि अपने प्रत्येक कर्म,संस्कार और परम्परा में पूर्णत: वैज्ञानिकता समेटे हुए है । प्राचीन काल में शिक्षा पद्धति ऎसी थी कि बालकों को प्रारंभ से ही धर्म के बारे में विस्तृ्त जानकारी दी जाती थी,जिससे कि उनकी आस्था स्वधर्म और परम्पराओं के प्रति बनी रहे........ओर वो उनका पालन सिर्फ एक दिखावे के लिए नहीं अपितु आन्तरिक श्रद्धा भाव से करें । किन्तु आज स्थिति ऎसी नहीं है । आज न तो हमारी शिक्षा प्रणाली ऎसी है कि बच्चों को इस प्रकार की शिक्षा दी सके और न ही ऎसे विद्वान आचार्य ही दिखाई पडते हैं जो कि धर्म के क्षेत्र में समाज को एक सही मार्ग दिखा सकें ।
जैसे कि ये तो सर्वविदित है कि प्रत्येक कार्य के पीछे कोई न कोई कारण अवश्य छिपा होता है,क्यों कि कार्य हमेशा कारण से ही उपजता है । यदि एक स्त्रोत है तो दूसरा उसकी परिणति है । हिन्दू धर्म के अनुष्ठानों,परम्पराओं,मान्यताओं,सिद्धान्तों इत्यादि के मूल में भी सटीक वैज्ञानिक कारण निहित हैं । इन्ही में से कुछ कारणों को यहाँ उदघाटित करना हमारे इस ब्लाग का उदेश्य रहा है । आज बात करते हैं---भारतीय संस्कृ्ति में आदिकाल से प्रयोग किए जा रहे प्रतीक चिन्ह स्वस्तिक की---------
स्वस्तिक चिन्ह:-- भारतीय संस्कृ्ति में वैदिक काल से ही स्वस्तिक को विशेष महत्व प्रदान किया गया है । यूँ तो बहुत से लोग इसे हिन्दू धर्म का एक प्रतीक चिन्ह ही मानते हैं । किन्तु वे लोग ये नहीं जानते कि इसके पीछे कितना गहरा अर्थ छिपा हुआ है । सामान्यतय: स्वस्तिक शब्द को "सु" एवं "अस्ति" का मिश्रण योग माना जाता है । यहाँ "सु" का अर्थ है--- शुभ और "अस्ति" का--- होना ।
संस्कृ्त व्याकरण अनुसार "सु" एवं "अस्ति" को जब संयुक्त किया जाता है तो जो नया शब्द बनता है--वो है "स्वस्ति" अर्थात "शुभ हो", "कल्याण हो" ।
मानक दर्शन अनुसार स्वस्तिक दक्षिणोन्मुख दाहिने हाथ की दिशा (घडी की सूई चलने की दिशा) का संकेत तथा वामोन्मुख बाईं दिशा (उसके विपरीत) के प्रतीक हैं । दोनों दिशाओं के संकेत स्वरूप दो प्रकार के स्वस्तिक स्त्री एवं पुरूष के प्रतीक के रूप मे भी मान्य हैं । किन्तु जहाँ दाईं ओर मुडी भुजा वाला स्वस्तिक शुभ एवं सौभाग्यवर्द्धक हैं ,वहीं उल्टा (वामावर्त) स्वस्तिक को अमांगलिक,हानिकारक माना गया है ।
प्राचीन काल में राजा महाराज द्वारा किलों का निर्माण स्वस्तिक के आकार में किया जाता रहा है ताकि किले की सुरक्षा अभेद्य बनी रहे। प्राचीन पारम्परिक तरीके से निर्मित किलों में शत्रु द्वारा एक द्वार पर ही सफलता अर्जित करने के पश्चात सेना द्वारा किले में प्रवेश कर उसके अधिकाँश भाग अथवा सम्पूर्ण किले पर अधिकार करने के बाद नर संहार होता रहा है । परन्तु स्वस्तिक नुमा द्वारों के निर्माण के कारण शत्रु सेना को एक द्वार पर यदि सफलता मिल भी जाती थी तो बाकी के तीनों द्वार सुरक्षित रहते थे । ऎसी मजबूत एवं दूरगामी व्यवस्थाओं के कारण शत्रु के लिए किले के सभी भागों को एक साथ जीतना संभव नहीं होता था । यहाँ स्वस्तिक किला/दुर्ग निर्माण के परिपेक्ष्य में "सु वास्तु" था ।
स्वस्तिक का महत्व सभी धर्मों में बताया गया है। इसे विभिन्न देशों में अलग-अलग नामों से जाना जाता है। चार हजार साल पहले सिंधु घाटी की सभ्यताओं में भी स्वस्तिक के निशान मिलते हैं। बौद्ध धर्म में स्वस्तिक का आकार गौतम बुद्ध के हृदय स्थल पर दिखाया गया है। मध्य एशिया के देशों में स्वस्तिक चिन्ह मांगलिक एवं सौभाग्य सूचक माना जाता रहा है। नेपाल में हेरंब, मिस्र में एक्टोन तथा बर्मा में महा पियेन्ने के नाम से पूजित हैं। आस्ट्रेलिया तथा न्यूजीलैण्ड के मावरी आदिवासियों द्वारा आदिकाल से स्वस्तिक को मंगल प्रतीक के रूप में प्रयुक्त किया जाता रहा हैं।
यदि आधुनिक दृ्ष्टिकोण से देखा जाए तो अब तो विज्ञान भी स्वस्तिक, इत्यादि माँगलिक चिन्हों की महता स्वीकार करने लगा है । आधुनिक विज्ञान ने वातावरण तथा किसी भी जीवित वस्तु,पदार्थ इत्यादि के उर्जा को मापने के लिए विभिन्न उपकरणों का आविष्कार किया है ओर इस उर्जा मापने की इकाई को नाम दिया है---"बोविस" । मृत मानव शरीर का बोविस शून्य माना गया है और मानव में औसत ऊर्जा क्षेत्र 6,500 बोविस पाया गया है। स्वस्तिक में इस उर्जा का स्तर 1,00,0000 बोविस है। यदि इसे उल्टा बना दिया जाए तो यह प्रतिकूल ऊर्जा को इसी अनुपात में बढ़ाता है। इसी स्वस्तिक को थोड़ा टेड़ा बना देने पर इसकी ऊर्जा मात्र 1,000 बोविस रह जाती है।
इसके साथ ही विभिन्न धार्मिक स्थलों यथा मन्दिर,गुरूद्वारा इत्यादि का ऊर्जा स्तर काफी उंचा मापा गया है जिसके चलते वहां जाने वालों को शांति का अनुभव और अपनी समस्याओं,कष्टों से मुक्ति हेतु मन में नवीन आशा का संचार होता है। यही नहीं हमारे घरों,मन्दिरों,पूजा पाठ इत्यादि में प्रयोग किए जाने वाले अन्य मांगलिक चिन्हों यथा ॐ इत्यादि में भी इसी तरह की ऊर्जा समाई है। जिसका लाभ हमें जाने अनजाने में मिलता ही रहता हैं।
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