हिंदुत्व: धर्म या जीवन पद्धति
धर्म ही सिखाता है कैसे जीएँ
हिंदुत्व के चार सिद्धांत (पुरुषार्थ):- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष।
तर्क का काम वेश्याओं की तरह होता है। जिनके पास ताकत होती है उनका तर्क चलता है फिर भले ही वे कुतर्क कर रहे हों। तर्क से अच्छे को बुरा और बुरे को अच्छा सिद्ध किया जा सकता है। तर्क के आगे तथ्य और तत्व कमजोर सिद्ध होता आया है।
यदि यह कहा जाए कि हिंदुत्व धर्म है और धर्म से ही जीवन पद्धति मिलती है तो इसके खिलाफ तर्क जुटाए जा सकते हैं और यह कहा जाए कि हिंदुत्व धर्म नहीं जीवन पद्धति है, तो फिर इसके खिलाफ भी तर्क जुटाए जा सकते हैं। किंतु शास्त्र कहते हैं कि धर्म की बातें तर्क से परे होती हैं। बहस से परे होती हैं।
हिंदू धर्मग्रंथ को पढ़कर समझने वाले ही धर्म को जानते हैं और फिर उस पर किसी भी प्रकार की टिप्पणी करने, बहस करने से कतराते हैं। करते भी हैं तो कहते हैं कि ऐसा वेद, उपनिषद या गीता में लिखा है, यह मेरा मत नहीं है। धर्म पर किसी भी प्रकार की बहस नहीं होती। बहस करने वाले लोग अधूरे ज्ञान के शिकार होते हैं। अधूरा ज्ञान गफलत पैदा करता है।
हिंदुत्व को लेकर मनमानी व्याख्याओं और टिप्पणियों का दौर बहुत समय से रहा है। वर्तमान में आरएसएस और भाजपा में इसको लेकर गफलत की स्थिति है। आरएसएस के मुखिया अपने शिविरों में हिंदुत्व की परिभाषा व्यक्त करते रहते हैं। उनकी परिभाषा गोलवरकरजी और हेडगेवारजी से निकलती है।
सर संघचालक मोहन भागवत ने संघ मुख्यालय पर एक महीने तक चले प्रशिक्षण शिविर के समापन समारोह को संबोधित करते हुए कहा कि हिन्दुत्व कोई धर्म नहीं, बल्कि जीवन पद्धति है।
इससे यह प्रतिध्वनित होता है कि इस्लाम, ईसाइयत, बौद्ध और जैन सभी धर्म है। धर्म अर्थात आध्यात्मिक मार्ग, मोक्ष मार्ग। धर्म अर्थात जो सबको धारण किए हुए हो। यह अस्तित्व और ईश्वर है। लेकिन हिंदुत्व तो धर्म नहीं है। जब धर्म नहीं है तो उसके कोई पैगंबर और अवतारी भी नहीं हो सकते। उसके धर्मग्रंथों को फिर धर्मग्रंथ कहना छोड़ो, उन्हें जीवन ग्रंथ कहो। गीता को धर्मग्रंथ मानना छोड़ दें? भगवान कृष्ण ने धर्म के लिए युद्ध लड़ा था कि जीवन के लिए?
जहाँ तक हम सभी धर्मों के धर्मग्रंथों को पढ़ते हैं तो पता चलता है कि सभी धर्म जीवन जीने की पद्धति बताते हैं। यह बात अलग है कि वह पद्धति अलग-अलग है। फिर हिंदू धर्म कैसे धर्म नहीं हुआ? धर्म ही लोगों को जीवन जीने की पद्धति बताता है, अधर्म नहीं। क्यों संत-महात्मा गीताभवन में लोगों के समक्ष कहते हैं कि 'धर्म की जय हो-अधर्म का नाश हो'?
भ्रमित हिंदूजन :पिछले 10-15 वर्षों में हिंदुत्व को लेकर व्यावसायिक संतों, ज्योतिषियों और धर्म के तथाकथित संगठनों और राजनीतिज्ञों ने हिंदू धर्म के लोगों को पूरी तरह से गफलत में डालने का जाने-अनजाने भरपूर प्रयास किया जो आज भी जारी है।
भ्रमित समाज लक्ष्यहीन हो जाता है। लक्ष्यहीन समाज में मनमाने तरीके से परम्परा का जन्म और विकास होता है, जो कि होता आया है। मनमाने मंदिर बनते हैं, मनमाने देवता जन्म लेते हैं और पूजे जाते हैं। मनमानी पूजा पद्धति, चालीसाएँ, प्रार्थनाएँ विकसित होती हैं। व्यक्ति पूजा का प्रचलन जोरों से पनपता है। भगवान को छोड़कर संत, कथावाचक या पोंगा पंडितों को पूजा जाता है।
आए दिन धर्म का मजाक उड़ाया जाता है, मसलन कि किसी ने लिख दी लालू चालीसा, किसी ने बना दिया अमिताभ का मंदिर। भगवत गीता को पढ़ने के अपने नियम और समय हैं किंतु अब तो कथावाचक चौराहों पर हर माह भागवत कथा का आयोजन करते हैं। यज्ञ के महत्व को समझे बगैर वेद विरुद्ध यज्ञ किए जाते हैं।
आचार्यों को अधिकार : धर्म पर बोलने का अधिकार सिर्फ उसे है तो आचार्य है। आचार्य वह होता है जो विधिवत रूप से हिंदू साधु सम्प्रदाय में दीक्षा लेकर धर्मग्रंथ अध्ययन और साधना करता है और फिर वह क्रमश: आगे बढ़कर आचार्य कहलाता है। हिंदू धर्म में भी साधुओं को श्रेणीबद्ध किया गया है। परमहंस की पदवी सबसे ऊपर मानी गई है। जो परमहंस होता है उसका वचन ही धर्म होता है। कथावाचकों और आमजन को अधिकार नहीं कि वे धर्म पर टिप्पणी करें।
वेद, उपनिषद और गीता में जो लिखा है आप उसे वैसा का वैसा ही कह सकते हैं लेकिन उस पर व्याख्या या टिप्पणी करने का अधिकार किसे है, इसके लिए भी शास्त्र मार्ग बताते हैं। फिर भी जो मनमानी व्याख्या या टिप्पणी करता है तो उसे रोकने का कोई उपाय नहीं, क्योंकि हिंदू धर्म हिंसक मार्ग नहीं बताता।
जीवन जीने की पद्धति : क्या आप मानते हैं कि ऑर्ट ऑफ लिविंग धर्म का हिस्सा नहीं है, जबकि धर्म ही बताता है जीवन को सही तरीके से जीने की पद्धति। क्या ध्यान और योग धर्म का हिस्सा नहीं है? धर्म और जीवन कैसे एक-दूसरे से अलग हो सकते हैं, जबकि हिंदू धर्म में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष अर्थात संसार और संन्यास का मार्ग विकसित किया गया है। उक्त सिद्धांत के आधार पर ही चार आश्रम विकसित किए गए थे।
धर्म ही सिखाता है कैसे जीएँ
हिंदुत्व के चार सिद्धांत (पुरुषार्थ):- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष।
तर्क का काम वेश्याओं की तरह होता है। जिनके पास ताकत होती है उनका तर्क चलता है फिर भले ही वे कुतर्क कर रहे हों। तर्क से अच्छे को बुरा और बुरे को अच्छा सिद्ध किया जा सकता है। तर्क के आगे तथ्य और तत्व कमजोर सिद्ध होता आया है।
यदि यह कहा जाए कि हिंदुत्व धर्म है और धर्म से ही जीवन पद्धति मिलती है तो इसके खिलाफ तर्क जुटाए जा सकते हैं और यह कहा जाए कि हिंदुत्व धर्म नहीं जीवन पद्धति है, तो फिर इसके खिलाफ भी तर्क जुटाए जा सकते हैं। किंतु शास्त्र कहते हैं कि धर्म की बातें तर्क से परे होती हैं। बहस से परे होती हैं।
हिंदू धर्मग्रंथ को पढ़कर समझने वाले ही धर्म को जानते हैं और फिर उस पर किसी भी प्रकार की टिप्पणी करने, बहस करने से कतराते हैं। करते भी हैं तो कहते हैं कि ऐसा वेद, उपनिषद या गीता में लिखा है, यह मेरा मत नहीं है। धर्म पर किसी भी प्रकार की बहस नहीं होती। बहस करने वाले लोग अधूरे ज्ञान के शिकार होते हैं। अधूरा ज्ञान गफलत पैदा करता है।
हिंदुत्व को लेकर मनमानी व्याख्याओं और टिप्पणियों का दौर बहुत समय से रहा है। वर्तमान में आरएसएस और भाजपा में इसको लेकर गफलत की स्थिति है। आरएसएस के मुखिया अपने शिविरों में हिंदुत्व की परिभाषा व्यक्त करते रहते हैं। उनकी परिभाषा गोलवरकरजी और हेडगेवारजी से निकलती है।
सर संघचालक मोहन भागवत ने संघ मुख्यालय पर एक महीने तक चले प्रशिक्षण शिविर के समापन समारोह को संबोधित करते हुए कहा कि हिन्दुत्व कोई धर्म नहीं, बल्कि जीवन पद्धति है।
इससे यह प्रतिध्वनित होता है कि इस्लाम, ईसाइयत, बौद्ध और जैन सभी धर्म है। धर्म अर्थात आध्यात्मिक मार्ग, मोक्ष मार्ग। धर्म अर्थात जो सबको धारण किए हुए हो। यह अस्तित्व और ईश्वर है। लेकिन हिंदुत्व तो धर्म नहीं है। जब धर्म नहीं है तो उसके कोई पैगंबर और अवतारी भी नहीं हो सकते। उसके धर्मग्रंथों को फिर धर्मग्रंथ कहना छोड़ो, उन्हें जीवन ग्रंथ कहो। गीता को धर्मग्रंथ मानना छोड़ दें? भगवान कृष्ण ने धर्म के लिए युद्ध लड़ा था कि जीवन के लिए?
जहाँ तक हम सभी धर्मों के धर्मग्रंथों को पढ़ते हैं तो पता चलता है कि सभी धर्म जीवन जीने की पद्धति बताते हैं। यह बात अलग है कि वह पद्धति अलग-अलग है। फिर हिंदू धर्म कैसे धर्म नहीं हुआ? धर्म ही लोगों को जीवन जीने की पद्धति बताता है, अधर्म नहीं। क्यों संत-महात्मा गीताभवन में लोगों के समक्ष कहते हैं कि 'धर्म की जय हो-अधर्म का नाश हो'?
भ्रमित हिंदूजन :पिछले 10-15 वर्षों में हिंदुत्व को लेकर व्यावसायिक संतों, ज्योतिषियों और धर्म के तथाकथित संगठनों और राजनीतिज्ञों ने हिंदू धर्म के लोगों को पूरी तरह से गफलत में डालने का जाने-अनजाने भरपूर प्रयास किया जो आज भी जारी है।
भ्रमित समाज लक्ष्यहीन हो जाता है। लक्ष्यहीन समाज में मनमाने तरीके से परम्परा का जन्म और विकास होता है, जो कि होता आया है। मनमाने मंदिर बनते हैं, मनमाने देवता जन्म लेते हैं और पूजे जाते हैं। मनमानी पूजा पद्धति, चालीसाएँ, प्रार्थनाएँ विकसित होती हैं। व्यक्ति पूजा का प्रचलन जोरों से पनपता है। भगवान को छोड़कर संत, कथावाचक या पोंगा पंडितों को पूजा जाता है।
आए दिन धर्म का मजाक उड़ाया जाता है, मसलन कि किसी ने लिख दी लालू चालीसा, किसी ने बना दिया अमिताभ का मंदिर। भगवत गीता को पढ़ने के अपने नियम और समय हैं किंतु अब तो कथावाचक चौराहों पर हर माह भागवत कथा का आयोजन करते हैं। यज्ञ के महत्व को समझे बगैर वेद विरुद्ध यज्ञ किए जाते हैं।
आचार्यों को अधिकार : धर्म पर बोलने का अधिकार सिर्फ उसे है तो आचार्य है। आचार्य वह होता है जो विधिवत रूप से हिंदू साधु सम्प्रदाय में दीक्षा लेकर धर्मग्रंथ अध्ययन और साधना करता है और फिर वह क्रमश: आगे बढ़कर आचार्य कहलाता है। हिंदू धर्म में भी साधुओं को श्रेणीबद्ध किया गया है। परमहंस की पदवी सबसे ऊपर मानी गई है। जो परमहंस होता है उसका वचन ही धर्म होता है। कथावाचकों और आमजन को अधिकार नहीं कि वे धर्म पर टिप्पणी करें।
वेद, उपनिषद और गीता में जो लिखा है आप उसे वैसा का वैसा ही कह सकते हैं लेकिन उस पर व्याख्या या टिप्पणी करने का अधिकार किसे है, इसके लिए भी शास्त्र मार्ग बताते हैं। फिर भी जो मनमानी व्याख्या या टिप्पणी करता है तो उसे रोकने का कोई उपाय नहीं, क्योंकि हिंदू धर्म हिंसक मार्ग नहीं बताता।
जीवन जीने की पद्धति : क्या आप मानते हैं कि ऑर्ट ऑफ लिविंग धर्म का हिस्सा नहीं है, जबकि धर्म ही बताता है जीवन को सही तरीके से जीने की पद्धति। क्या ध्यान और योग धर्म का हिस्सा नहीं है? धर्म और जीवन कैसे एक-दूसरे से अलग हो सकते हैं, जबकि हिंदू धर्म में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष अर्थात संसार और संन्यास का मार्ग विकसित किया गया है। उक्त सिद्धांत के आधार पर ही चार आश्रम विकसित किए गए थे।
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