August 29, 2014

क्या स्त्री पुरूष बराबर है ? -- लेख नरेन्द्र सिसोदिया

क्या स्त्री पुरूष बराबर है ? -- लेख नरेन्द्र सिसोदिया
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अक्सर ऐसा देखा गया है की आजकल के आधुनिक या यूँ कहे पश्चिम का अंधानुुकरण करने वाले लोग इस बात पर बडा जोर देते है की स्त्री को पुरूष की बराबरी पर आना चाहिये । दुःख की बात तो ये है की ऐसी बातों में महीलायँ आगे रहती है । क्योंकी मेरे हिसाब ऐसा बोलकर स्त्री समाज अपना खुद का अपमान करती है ।
सबसे पहली बात तो ये की खुद भगवान ने दोनो को अलग बनाया तो दोनो एक कैसे हो सकते है । स्त्री का मानसिक विकास, शारीरिक विकास , गुणों का विकास और सामाजिक ताने बाने में उनकी उपस्थिति पुरूषों से अलग है,
इतने सारे स्तरों पर भिन्नता होने के कारण वो पुरूष के बराबर तो क्या आसपास भी नही है। इसी बात को मुंशी प्रेमचंद ने इस प्रकार कहा है की - मानवीय गुणों के क्रमिक विकास में स्त्री पुरूषों से कही आगे है । हमारे समाज में स्त्री का अपनी महत्ता है और पुरूषों की अपनी,
इस मामले में किसी को आगे बोलना और किसी को पीछे कहना वैसी ही मूर्खता है जैसी कोई ये बोले की १ लीटर दूध में और सूरज के प्रकाश में कौन आगे और कौन पीछे । पुरूष को जन्म देनी वाली औरत पुरूष से पीछे कैसे हो सकती है ।
मुकाबला समान स्तर पर होता है । अगर आपके सामने कोई ये बोल रहा है की स्त्री और पुरूष को बराबर होना चाहिये तो निसंदेह ही यह कहने की कोशिश कर रहा है की स्त्री पिछडा गई है अौर मर्द आगे है । बराबरीं की बातें करने का मतलब है किसी ना किसी को आगे रखना और किसी ना किसी को पीछे रखने जैसा है । किसी कंपनी में सेल्ल वालो का अपना महत्व है , मार्केटिंग का अपना महत्व है टेक टीम का अपना महत्व है, लेकिन हम ये नही बोल सकते है की सब बराबर होने चाहिये ।
आज भी घर का खर्चा कहाँ चलाना है वो स्त्री ही देखती है चाहे वो दिल्ली की हो या किसी ग्रामीण इलाके की । कोई भी त्योहार या फिर कोई धार्मिक काम, घर को सजाना हो या फिर माँ बन कर घर का निर्णयकर्ता बन जाना हो, सभी कामों में स्त्री ही मुख्य केंद्र है । यहाँ तक की मेट्रों की सीट हो या भारत का कानून हो या सरकारी नौकरीयाँ, सब जगह बराबरी से जितना मिलना चाहिये उससे ज्यादा ही दिया गया है । भारत के बहुत सारे मंदिर है जहाँ बिना शादी के कोई पुरूष प्रवेश नही कर सकता है कारण पूछने पर वहाँ के पंडित साफ साफ एक ही वाक्य बोलते है की हमारे शास्त्रों में लिखा है की स्त्री के बिना पुरूष अपूर्ण और अशुद्द है, इसलिये हम अविवाहित पुरूषों को प्रवेश नही देते है । शादी के बाद जोडे से बिठाने की परंपरा तो हमेशा से ही रही है । आज के शहर के कूलडूड भी आपको बोलते मिल जाते है की - "कर लो भाई जितनी ऐश जब तक शादी ना हो"। उनके इस वाक्य में स्त्रीयों के प्रति सम्मान साफ दिखलाई देता है की उसके आने पर बडे परिवर्तन होंगे और वो ये चीज मान कर चलता है ।
आपको जानकर आश्चर्य होगा की भारतीय दर्शनशास्त्र में प्रकृति को भी दो हिस्सों में बाँटा गया है, पुरूष प्रकृति और स्त्री प्रकृति । गीता और अन्य जगह पर धर्म शब्द किसी पूजा पाठ की पद्धति से नही जोडा गया है, भारत में धर्म शब्द तो राम और कृष्ण के भी पहले भी था और धर्म पर बोलते हुये कृष्ण ने बोला है की धर्म के १० गुण होते है । जैसे क्षमा, करूणा, बुद्धि आदी स्त्रीलिंग शब्द है । वही अधर्म शब्द के गुण जैसे क्रोध,लोभ आदी पुर्लिंग शब्द है। नदियों का माता कहना और उनके स्त्रीसूचक शब्द इसी बात की ओर इशारा करते है की भारतीय समाज में स्त्रीयों का विशेष महत्व रहा है । हाँ समय से साथ थोडा कम ज्यादा हो गया है । मुझे तो यह लगता है की धर्म, संस्कृति और धर्म के स्त्रीसूचक गुणों का निर्माण पुरूषों द्वारा बनाना संभव ही नही है, ये सारी चीजे और व्यवस्था भारत में पुरातन स्त्रीयों के द्वारा ही बनाई गई है और इस बात पर अच्छी खासी रीसर्च (अनुसंधान) की आवश्यकता है। और तो और हमने तो भारत को, जो की पुरूष सूचक शब्द है, के आगे भी माता लगाकर पूरे विश्व के सामने अनूठा उदाहरण प्रस्तुत किया है । आपको समाचार मे ये सुनने को मिल जायेगा कि कुछ लोगो ने मिलकर किसी औरत का बलात्कार किया लेकिन ये कभी सुनने को नही मिलेगा की कुछ औरतों ने मिलकर पुरूष का बलात्कार किया । ऐसा इसलिये की भारतीय स्त्रीयों में अभी भी अपनी संस्कृति के प्रति श्रद्धा है और उनके स्वभाव में अपने आप ही धर्म के गुण विद्ववान होते है ।
क्या आपको अभी भी लगता है की भारत में हमेशा स्त्रीयों को हर काम में पीछे रखा गया है ?
हाँ मै मानता हूँ बहुत जगह पर स्त्रीयों के साथ बहुत गलत व्यवहार होता है और वहाँ बदलाव जरूरी है । समय समय पर समाज में कुरीतीयों ने जन्म लिया और वो आज खत्म हो गई । आज जो कुरीतियाँ है वो कल खत्म हो जायेंगी । लेकिन इसका ये मतलब नही की हम ये मान के चल बैठे की स्त्री पीछे रह गई और उसे भागकर पुरूषों के बराबर आना चाहिये ।
बराबरी का जो अभियान है वो विदेशी देन है, ये कन्सेप्ट (अवधारणा) बाहर के देश से आया है । जहाँ से ये अभियान आया है वहाँ पर स्त्रीयों की दुर्दशा बेहद खराब है । मात्र ६० साल पहले तक वहाँ कानूनन वोट डालना हो या बैंक में खाता खुलवाना हो, इस तरह कामों में स्त्रीयों कोई अधिकार प्राप्त नही था । आपने जिन तथाकथित महान(?) विदेशी दार्शनिक लोगो का बस नाम सुन रखा है उनके साहित्य अंदर तक पडोगे तो आपको पता लगेगा की कही किसी ने लिखा है की "स्त्री मात्र भोग(मजे) की वस्तु है", तो कही किसी ने लिखा है की "स्त्री के अंदर आत्मा नही होती है जैसे अन्य जानवर जैसे की कुत्ता बिल्ली"। सिगमंड फ्राईड ने तो ये तक बोल दिया की बच्चे के अंदर सेक्स भावना रहती है वो माँ का दूध पीते समय दिख जाती है। अरस्तु से लेकिन जितने भी दार्शनिक और विचारक पैदा हुये उन सबसे विचार औरतों के प्रति ठीक नही थे ।
दा विंची मूवी में बताया गया है की मात्र २००० सालो में ईसाई धर्म शून्य से पूरे संसार में जनसंख्या के मामले में पहले स्थान पर आ गया और इस विश्व विजय में करोडो औरतों को डायन बोल कर जिंदा जला दिया गया । आज भी इस्लामिक देश जहाँ सरीया कानून लागु है वहाँ पर स्त्रीयों की स्थिती बहुत निंदनीय है। दूर क्युँ जाते है, आजाद भारत का शाहबानो केस ही देख लेते है । शाहबानों ५० साल की औरत थी जो तलाक के बाद अपने शौहर से गुजारा भत्ता माँगने कानून तक पहुँच गई । कोर्ट ने फैसला जो सुनाया वो भारतीय कानून के हिसाब से ठीक था लेकिन शरीया कानून मानने वाले ने पूरे देश में इसे बहुत बडा मुद्दा बना दिया । संगठित मुस्लिम शक्ति ने अपना प्रभाव दिखाते हुये भारतीय कानून में ही संशोधन करवा दिया । दुबई में शरीया कानून होने की वजह से कई विदेशी महिलाओं को बलात्कार के बाद न्याय नही मिलता है | इरानी महीला अतेफाह (Atefah_Sahaaleh) को १४ से १६ साल की उम्र में ५१ साल का एक बंदा बलात्कार करता रहा । शरीया अदालत में जब अतेफाह को लगा की वो अपना केस हार रही है तो उसने अपनी बात जोर से रखने के लिये अपने चेहरे से हिजाब उतार दिया । इस बात पर अदालत ने अतेफाह को फाँसी की सजा दे डाली ।
अगर आपके पास भारत को बदनाम करने के नाम पर २-३ कुरीतियों है तो मेरे पास तो हजारों जीवीत प्रमाण है विदेशी संस्कृतीयों के नाम पर। इशारा बस एक ही तरफ है की भारतीय समाज में महीलाओं की स्थिती पहले और आज हमेशा ही अच्छी रही है । अगर महिला बराबरी की बात और अभियान का तुक बनता है तो वो मात्र विदेशी में बनता है, लेकिन भारत में नही । दुःख की बात तो ये है की इसी बराबरी के नाम विदेश में ५० साल पहले फेमिनिज्म नाम के अभीयान को चलाया गया और इसका परिणाम यह रहा की स्त्रीयों ने पुरूषों के कंधे से कंधे मिला कर शराब, सिगरेट और आदि बुराईयाँ अपना ली है । बराबरी के फेमिनिज्म ने क्या बर्बादी की वो इंटरनेट पर आसानी ने पढने को मिल जायेगी ।
अगर जरूरत है तो पुरूषों को स्त्री गुणों को अपनाने की जरूरत है ना की स्त्रीयों को मर्द की तरह बनने की । दोनो के अपने अपने अधिकार है और दोनो के अपने अपने कृतर्व्य । जब तक हमारे समाज में स्त्रीयों ने मन में ये बात रहेगी की वो पीछे है तब तक उनके मन में स्वाभीमान नही आ सकता और तब तक उनके मन के किसी ना किसी कोने में हीन भावना रहेगी ही रहेगी और तब तक धीरे धीरे स्त्री समाज अपनी खुद की पहचान खोकर पुरूष समाज का अंधानुकरण करेगी ही करेगी । ये अंधानुकरण ठीक वैसा ही है जैसे आज का भारतीय युवक ५०० सालों की लूट के दम मात्र १५० साल की तरक्की को देख कर मन से गुलाम होकर अपने को पीछे समझने लगा है और हर चीज में विदेशी अंधानुकरण करने लग गया है । बदलाव की जरूरत तो हमेशा ही हर समाज को रहती है लेकिन इस बात पर नही की कोई समाज अपनी पहचान ही मिटा दे और अपने को हीन समझे ।
जिस प्रकार आपके घर में गंदगी हो आप सरकार का इंतजार नही करते, आप खुद ही साफ करने जुट जाओगे । ठीक उसी प्रकार से भारतीय स्त्री समाज को अपने पीछे नही समझना चाहिये और ये तो बोलना ही नहीं चाहिये की बराबरी पर आना है । आप लोग तो वैसी ही आगे हो । जरूरत है तो बस आपको जो गलत लगे उसके खिलाफ आवाज उठाने की, भेडचाल चलने की नही ।
मै खुद एक लडका हूँ इसलिये इस मुद्दे पर लिखने का अधिकार नही है, लेकिन मै अपने को रोक नहीं सका क्युँकि जिनको ये लेख लिखना चाहिये वो आगे नही आते या फिर मतिभ्रम में है ।

August 19, 2014

वैदिक 'पंचांग' ही सही है

वैदिक 'पंचांग' ही सही है
हिंदू पंचांग की उत्पत्ति वैदिक काल में ही हो चुकी थी। सूर्य को जगत की आत्मा मानकर उक्त काल में सूर्य व नक्षत्र सिद्धांत पर आधारित पंचांग होता था। वैदिक काल के पश्चात् आर्यभट, वराहमिहिर, भास्कर आदि जैसे खगोलशास्त्रियों ने पंचांग को विकसित कर उसमें चंद्र की कलाओं का भी वर्णन किया।
वेदों और अन्य ग्रंथों में सूर्य, चंद्र, पृथ्वी और नक्षत्र सभी की स्थिति, दूरी और गति का वर्णन किया गया है। स्थिति, दूरी और गति के मान से ही पृथ्वी पर होने वाले दिन-रात और अन्य संधिकाल को विभाजित कर एक पूर्ण सटीक पंचांग बनाया गया है। जानते हैं हिंदू पंचांग की अवधारणा क्या है।
पंचांग काल दिन को नामंकित करने की एक प्रणाली है। पंचांग के चक्र को खगोलकीय तत्वों से जोड़ा जाता है। बारह मास का एक वर्ष और 7 दिन का एक सप्ताह रखने का प्रचलन विक्रम संवत से शुरू हुआ। महीने का हिसाब सूर्य व चंद्रमा की गति पर रखा जाता है।
पंचांग की परिभाषा: पंचांग नाम पाँच प्रमुख भागों से बने होने के कारण है, यह है- तिथि, वार, नक्षत्र, योग और करण। इसकी गणना के आधार पर हिंदू पंचांग की तीन धाराएँ हैं- पहली चंद्र आधारित, दूसरी नक्षत्र आधारित और तीसरी सूर्य आधारित कैलेंडर पद्धति। भिन्न-भिन्न रूप में यह पूरे भारत में माना जाता है। एक साल में 12 महीने होते हैं। प्रत्येक महीने में 15 दिन के दो पक्ष होते हैं- शुक्ल और कृष्ण। प्रत्येक साल में दो अयन होते हैं। इन दो अयनों की राशियों में 27 नक्षत्र भ्रमण करते रहते हैं।
तिथि : एक दिन को तिथि कहा गया है जो पंचांग के आधार पर उन्नीस घंटे से लेकर चौबीस घंटे तक की होती है। चंद्र मास में 30 तिथियाँ होती हैं, जो दो पक्षों में बँटी हैं। शुक्ल पक्ष में 1-14 और फिर पूर्णिमा आती है। पूर्णिमा सहित कुल मिलाकर पंद्रह तिथि। कृष्ण पक्ष में 1-14 और फिर अमावस्या आती है। अमावस्या सहित पंद्रह तिथि।
तिथियों के नाम निम्न हैं- पूर्णिमा (पूरनमासी), प्रतिपदा (पड़वा), द्वितीया (दूज), तृतीया (तीज), चतुर्थी (चौथ), पंचमी (पंचमी), षष्ठी (छठ), सप्तमी (सातम), अष्टमी (आठम), नवमी (नौमी), दशमी (दसम), एकादशी (ग्यारस), द्वादशी (बारस), त्रयोदशी (तेरस), चतुर्दशी (चौदस) और अमावस्या (अमावस)।
वार : एक सप्ताह में सात दिन होते हैं:- रविवार, सोमवार, मंगलवार, बुधवार, गुरुवार, शुक्रवार और शनिवार।
नक्षत्र : आकाश में तारामंडल के विभिन्न रूपों में दिखाई देने वाले आकार को नक्षत्र कहते हैं। मूलत: नक्षत्र 27 माने गए हैं। ज्योतिषियों द्वारा एक अन्य अभिजित नक्षत्र भी माना जाता है। चंद्रमा उक्त सत्ताईस नक्षत्रों में भ्रमण करता है। नक्षत्रों के नाम नीचे चंद्रमास में दिए गए हैं-
योग : योग 27 प्रकार के होते हैं। सूर्य-चंद्र की विशेष दूरियों की स्थितियों को योग कहते हैं। दूरियों के आधार पर बनने वाले 27 योगों के नाम क्रमश: इस प्रकार हैं:- विष्कुम्भ, प्रीति, आयुष्मान, सौभाग्य, शोभन, अतिगण्ड, सुकर्मा, धृति, शूल, गण्ड, वृद्धि, ध्रुव, व्याघात, हर्षण, वज्र, सिद्धि, व्यातीपात, वरीयान, परिघ, शिव, सिद्ध, साध्य, शुभ, शुक्ल, ब्रह्म, इन्द्र और वैधृति।
27 योगों में से कुल 9 योगों को अशुभ माना जाता है तथा सभी प्रकार के शुभ कामों में इनसे बचने की सलाह दी गई है। ये अशुभ योग हैं: विष्कुम्भ, अतिगण्ड, शूल, गण्ड, व्याघात, वज्र, व्यतीपात, परिघ और वैधृति।
करण : एक तिथि में दो करण होते हैं- एक पूर्वार्ध में तथा एक उत्तरार्ध में। कुल 11 करण होते हैं- बव, बालव, कौलव, तैतिल, गर, वणिज, विष्टि, शकुनि, चतुष्पाद, नाग और किस्तुघ्न। कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी (14) के उत्तरार्ध में शकुनि, अमावस्या के पूर्वार्ध में चतुष्पाद, अमावस्या के उत्तरार्ध में नाग और शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा के पूर्वार्ध में किस्तुघ्न करण होता है। विष्टि करण को भद्रा कहते हैं। भद्रा में शुभ कार्य वर्जित माने गए हैं।
पक्ष को भी जानें : प्रत्येक महीने में तीस दिन होते हैं। तीस दिनों को चंद्रमा की कलाओं के घटने और बढ़ने के आधार पर दो पक्षों यानी शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष में विभाजित किया गया है। एक पक्ष में लगभग पंद्रह दिन या दो सप्ताह होते हैं। एक सप्ताह में सात दिन होते हैं। शुक्ल पक्ष में चंद्र की कलाएँ बढ़ती हैं और कृष्ण पक्ष में घटती हैं।
सौरमास :
सौरमास का आरम्भ सूर्य की संक्रांति से होता है। सूर्य की एक संक्रांति से दूसरी संक्रांति का समय सौरमास कहलाता है। यह मास प्राय: तीस, इकतीस दिन का होता है। कभी-कभी अट्ठाईस और उन्तीस दिन का भी होता है। मूलत: सौरमास (सौर-वर्ष) 365 दिन का होता है।
12 राशियों को बारह सौरमास माना जाता है। जिस दिन सूर्य जिस राशि में प्रवेश करता है उसी दिन की संक्रांति होती है। इस राशि प्रवेश से ही सौरमास का नया महीना ‍शुरू माना गया है। सौर-वर्ष के दो भाग हैं- उत्तरायण छह माह का और दक्षिणायन भी छह मास का। जब सूर्य उत्तरायण होता है तब हिंदू धर्म अनुसार यह तीर्थ यात्रा व उत्सवों का समय होता है। पुराणों अनुसार अश्विन, कार्तिक मास में तीर्थ का महत्व बताया गया है। उत्तरायण के समय पौष-माघ मास चल रहा होता है।
मकर संक्रांति के दिन सूर्य उत्तरायण होता है जबकि सूर्य कुंभ से मकर राशि में प्रवेश करता है। सूर्य कर्क राशि में प्रवेश करता है तब सूर्य दक्षिणायन होता है। दक्षिणायन व्रतों का समय होता है जबकि चंद्रमास अनुसार अषाढ़ या श्रावण मास चल रहा होता है। व्रत से रोग और शोक मिटते हैं।
सौरमास के नाम : मेष, वृषभ, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चितक, धनु, कुंभ, मकर, मीन।
चंद्रमास :
चंद्रमा की कला की घट-बढ़ वाले दो पक्षों (कृष्णि और शुक्ल) का जो एक मास होता है वही चंद्रमास कहलाता है। यह दो प्रकार का शुक्ल प्रतिपदा से प्रारंभ होकर अमावस्या को पूर्ण होने वाला 'अमांत' मास मुख्य। चंद्रमास है। कृष्णत प्रतिपदा से 'पूर्णिमात' पूरा होने वाला गौण चंद्रमास है। यह तिथि की घट-बढ़ के अनुसार 29, 30 व 28 एवं 27 दिनों का भी होता है।
पूर्णिमा के दिन, चंद्रमा जिस नक्षत्र में होता है उसी आधार पर महीनों का नामकरण हुआ है। सौर-वर्ष से 11 दिन 3 घटी 48 पल छोटा है चंद्र-वर्ष इसीलिए हर 3 वर्ष में इसमें 1 महीना जोड़ दिया जाता है।
सौरमास 365 दिन का और चंद्रमास 355 दिन का होने से प्रतिवर्ष 10 दिन का अंतर आ जाता है। इन दस दिनों को चंद्रमास ही माना जाता है। फिर भी ऐसे बड़े हुए दिनों को 'मलमास' या 'अधिमास' कहते हैं।
चंद्रमास के नाम : चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, अषाढ़, श्रावण, भाद्रपद, अश्विन, कार्तिक, अगहन, पौष, माघ और फाल्गुन।
नक्षत्रमास :
आकाश में स्थित तारा-समूह को नक्षत्र कहते हैं। साधारणतः यह चंद्रमा के पथ से जुडे हैं। ऋग्वेद में एक स्थान पर सूर्य को भी नक्षत्र कहा गया है। अन्य नक्षत्रों में सप्तर्षि और अगस्त्य हैं। नक्षत्र से ज्योतिषीय गणना करना वेदांग ज्योतिष का अंग है। नक्षत्र हमारे आकाश मंडल के मील के पत्थरों की तरह हैं जिससे आकाश की व्यापकता का पता चलता है। वैसे नक्षत्र तो 88 हैं किंतु चंद्र पथ पर 27 ही माने गए हैं।
चंद्रमा अश्विननी से लेकर रेवती तक के नक्षत्र में विचरण करता है वह काल नक्षत्रमास कहलाता है। यह लगभग 27 दिनों का होता है इसीलिए 27 दिनों का एक नक्षत्रमास कहलाता है।
महीनों के नाम पूर्णिमा के दिन चंद्रमा जिस नक्षत्र में रहता है:
1.चैत्र : चित्रा, स्वाति।
2.वैशाख : विशाखा, अनुराधा।
3.ज्येष्ठ : ज्येष्ठा, मूल।
4.आषाढ़ : पूर्वाषाढ़, उत्तराषाढ़, सतभिषा।
5.श्रावण : श्रवण, धनिष्ठा।
6.भाद्रपद : पूर्वभाद्र, उत्तरभाद्र।
7.आश्विन : अश्विन, रेवती, भरणी।
8.कार्तिक : कृतिका, रोहणी।
9.मार्गशीर्ष : मृगशिरा, उत्तरा।
10.पौष : पुनर्वसु, पुष्य।
11.माघ : मघा, अश्लेशा।
12.फाल्गुन : पूर्वाफाल्गुन, उत्तराफाल्गुन, हस्त।
नक्षत्रों के गृह स्वामी :
केतु : अश्विन, मघा, मूल।
शुक्र : भरणी, पूर्वाफाल्गुनी, पूर्वाषाढ़।
रवि : कार्तिक, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़।
चंद्र : रोहिणी, हस्त, श्रवण।
मंगल : मॄगशिरा, चित्रा, श्रविष्ठा।
राहु : आद्रा, स्वाति, शतभिषा ।
बृहस्पति : पुनर्वसु, विशाखा, पूर्वभाद्रपदा।
शनि . पुष्य, अनुराधा, उत्तरभाद्रपदा।
बुध : अश्लेशा, ज्येष्ठा, रेवती।

केलिन्डर कियूं गलत हैं ?

200 सालों तक तो इसी बात पर यूरोप में युद्ध चलता रहा कि नया वर्ष 25 दिसंबर को मानें या 1 जनवरी को, अर्थात काल के नियमों से ऊपर थी व्यक्तिगत प्रतिष्ठा| इस पद्धति में समय का केन्द्र बिंदु है इंग्लैंड में स्थित ग्रीनविच, जो उत्तरी गोलार्ध में है जबकि ऐसे किसी भी स्थान को समय का केन्द्र बिंदु नहीं माना जा सकता जो भूमध्य रेखा पर न हो| उसका कारण यह है कि भूमध्य रेखा पर सूर्य की किरणें सीधी पड़ती हैं इसीलिए इसी स्थान से सौर मंडल के सापेक्ष समय का सही सही पता लगाया जा सकता है| अनुसन्धान हेतु इस रेखा पर पड़ने वाले हर स्थान का Latitude 0 डिग्री होता है जो कि ग्रीनविच के सन्दर्भ में नहीं है| क्योंकि वह इंग्लैंड में है इसीलिए वही केन्द्र बिंदु होना चाहिए हालांकि इसके केन्द्र बिंदु होने से कोई अनुसंधानात्मक लाभ विश्व को आज तक नहीं हुआ|
भारतीय काल गणना इतनी वैज्ञानिक व्यवस्था है कि सदियों-सदियों तक एक पल का भी अन्तर नहीं पड़ा जबकि पश्चिमी काल गणना में वर्ष के 365.2422 दिन को 30 और 31 के हिसाब से 12 महीनों में विभक्त करते है। इस प्रकार प्रतयेक चार वर्ष में फरवरी महीनें को लीपइयर घोषित कर देते है फिर भी। नौ मिनट 11 सेकण्ड का समय बच जाता है तो प्रत्येक चार सौ वर्षो में भी एक दिन बढ़ाना पड़ता है तब भी पूर्णाकन नहीं हो पाता है। अभी 10 साल पहले ही पेरिस के अन्तरराष्ट्रीय परमाणु घड़ी को एक सेकण्ड स्लो कर दिया गया फिर भी 22 सेकण्ड का समय अधिक चल रहा है।यह पेरिस की वही प्रयोगशाला है जहां की सी जी एस सिस्टम से संसार भर के सारे मानक तय किये जाते हैं।
रोमन कैलेण्डर में तो पहले 10 ही महीने होते थे। किंगनुमापाजुलियस ने 355 दिनों का ही वर्ष माना था। जिसे में जुलियस सीजर ने 365 दिन घोषित कर दिया और उसी के नाम पर एक महीना जुलाई बनाया गया उसके 1 ) सौ साल बाद किंग अगस्ट्स के नाम पर एक और महीना अगस्ट भी बढ़ाया गया चूंकि ये दोनो राजा थे इसलिए इनके नाम वाले महीनों के दिन 31 ही रखे गये।
आज के इस वैज्ञानिक युग में भी यह कितनी हास्यास्पद बात है कि लगातार दो महीने के दिन समान है जबकि अन्य महीनों में ऐसा नहीं है। यदि नहीं जिसे हम अंग्रेजी कैलेण्डर का नौवा महीना सितम्बर कहते है, दसवा महीना अक्टूबर कहते है, इग्यारहवा महीना नवम्बर और बारहवा महीना दिसम्बर कहते है। इनके शब्दों के अर्थ भी लैटिन भाषा में 7,8,9 और 10 होते है। भाषा विज्ञानियों के अनुसार भारतीय काल गणना पूरे विश्व में व्याप्त थी और सचमूच सितम्बर का अर्थ सप्ताम्बर था, आकाश का सातवा भाग, उसी प्रकार अक्टूबर अष्टाम्बर, नवम्बर तो नवमअम्बर और दिसम्बर दशाम्बर है।
संस्कृत के होरा शब्द से ही, अंग्रेजी का आवर (Hour) शब्द बना है। इस प्रकार यह सिद्ध हो रहा है कि वर्ष प्रतिपदा ही नव वर्ष का प्रथम दिन है। एक जनवरी को नव वर्ष मनाने वाले दोहरी भूल के शिकार होते है क्योंकि भारत में जब 31 दिसम्बर की रात को 12 बजता है तो ब्रीटेन में सायं काल होता है, जो कि नव वर्ष की पहली सुबह हो ही नहीं सकती।
सन १७५२ में ब्रिटेन नें ग्रेगोरियन कैलेंडर को अपना लिया। इसका नतीजा यह हुआ कि ३ सितम्बर १४ सितम्बर में बदल गया। इसीलिए कहा जाता है कि ब्रिटेन के इतिहास में ३ सितंबर १७५२ से १३ सितंबर १७५२ तक कुछ भी घटित नही हुआ। इससे कुछ लोगों को भ्रम हुआ कि इससे उनका जीवनकाल ११ दिन कम हो गया और वे अपने जीवन के ११ दिन वापिस देने की मांग को लेकर सड़कों पर उतर आए।


August 07, 2014

और इस तरह लिया महाराजा जय सिंह ने अंग्रेजो से अपने अपमान का बदला



और इस तरह लिया महाराजा जय सिंह ने अंग्रेजो से अपने अपमान का बदला 




इंगलैण्ड की राजधानी लंदन में यात्रा के दौरान एक शाम महाराजा जयसिंह सादे कपड़ों में बॉन्ड स्ट्रीट में घूमने के लिए निकले और वहां उन्होने रोल्स रॉयस कम्पनी का भव्य शो रूम देखा और मोटर कार का भाव जानने के लिए अंदर चले गए। शॉ रूम के अंग्रेज मैनेजर ने उन्हें “कंगाल भारत” का सामान्य नागरिक समझ कर वापस भेज दिया। शोरूम के सेल्समैन ने भी उन्हें बहुत अपमानित किया, बस उन्हें “गेट आऊट” कहने के अलावा अपमान करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी।अपमानित महाराजा जयसिंह वापस होटल पर आए और रोल्स रॉयस के उसी शोरूम पर फोन लगवाया और संदेशा कहलवाया कि अलवर के महाराजा कुछ मोटर कार खरीदने चाहते हैं।

कुछ देर बाद जब महाराजा रजवाड़ी पोशाक में और अपने पूरे दबदबे के साथ शोरूम पर पहुंचे तब तक शोरूम में उनके स्वागत में “रेड कार्पेट” बिछ चुका था। वही अंग्रेज मैनेजर और सेल्समेन्स उनके सामने नतमस्तक खड़े थे। महाराजा ने उस समय शोरूम में पड़ी सभी छ: कारों को खरीदकर, कारों की कीमत के साथ उन्हें भारत पहुँचाने के खर्च का भुगतान कर दिया।
भारत पहुँच कर महाराजा जयसिंह ने सभी छ: कारों को अलवर नगरपालिका को दे दी और आदेश दिया कि हर कार का उपयोग (उस समय के दौरान 8320 वर्ग कि.मी) अलवर राज्य में कचरा उठाने के लिए किया जाए।

विश्‍व की अव्वल नंबर मानी जाने वाली सुपर क्लास रोल्स रॉयस कार नगरपालिका के लिए कचरागाड़ी के रूप में उपयोग लिए जाने के समाचार पूरी दुनिया में फैल गया और रोल्स रॉयस की इज्जत तार-तार हुई। युरोप-अमरीका में कोई अमीर व्यक्‍ति अगर ये कहता “मेरे पास रोल्स रॉयस कार” है तो सामने वाला पूछता “कौनसी?” वही जो भारत में कचरा उठाने के काम आती है! वही?

बदनामी के कारण और कारों की बिक्री में एकदम कमी आने से रोल्स रॉयस कम्पनी के मालिकों को बहुत नुकसान होने लगा। महाराज जयसिंह को उन्होने क्षमा मांगते हुए टेलिग्राम भेजे और अनुरोध किया कि रोल्स रॉयस कारों से कचरा उठवाना बन्द करवावें। माफी पत्र लिखने के साथ ही छ: और मोटर कार बिना मूल्य देने के लिए भी तैयार हो गए।

महाराजा जयसिंह जी को जब पक्‍का विश्‍वास हो गया कि अंग्रेजों को वाजिब बोधपाठ मिल गया है तो महाराजा ने उन कारों से कचरा उठवाना बन्द करवाया !


BRAND Archetypes through lens -Indian-Brands

There has been so much already written about brand archetypes and this is certainly not one more of those articles. In fact, this is rather ...