जो भारत की मूल भाषाएं हैं उनमें शपथ नहीं ली जा सकती। पता नहीं सरकार की नजर में भाषा के मायने क्या हैं। हिंदी खुद भी एक बोली है जिसे खड़ी बोली कहा जाता था और जिसे पंजाब प्रांत के पूर्वी क्षेत्र में तथा पश्चिमोत्तर प्रांत के अपर दोआब यानी सहारनपुर और मेरठ कमिश्नरी के जिलों में बोला जाया करता था। इस खड़ी बोली को हिंदी कहा जाता था जो बाद में हिंदवी होते हुए उर्दू कही जाने लगी। इस बोली को ब्राह्मणों के सिवाय अन्य कौमें अरबी-फारसी लिपि में ही लिखतीं। इसी तरह ब्रज, अवधी व भोजपुरी को कायस्थ व मुसलमान अरबी-फारसी में और ब्राह्मण देवनागरी लिपि में लिखते। मगर आर्य समाज ने जब वृहत्तर पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अपना प्रचार किया तो खड़ी बोली को देवनागरी लिपि प्रदान कर दी। मलिक मोहम्मद जायसी और कुतुबन ने अपने काव्य अरबी-फारसी लिपि में लिखे हैं। पर वे हैं अवधी भाषा में। ऐसे तमाम उदाहरण मिल जाएंगे। रामचरित मानस वह पहला धार्मिक ग्रंथ था जो अवधी में लिखा गया और जिसकी लिपि देवनागरी थी। वाराणसी के पंडितों को रामचरित मानस से द्वेष इसी बात को लेकर था कि उसकी लिपि देवनागरी क्यों रखी गई। पर आर्य समाज ने पूरी हिंदी पट्टी में देवनागरी लिपि और खड़ी बोली का ऐसा प्रचार कर दिया कि अवधी व ब्रज जैसी साहित्यिक भाषाएं बस सिमट कर रह गईं।
अवधी के एक बड़े कवि स्वर्गीय चंद्र भूषण त्रिवेदी की एक अवधी कविता जो एक जमाने में पूरे अवध क्षेत्र में बड़ी लोकप्रिय हुआ करती थी।
अवधी के एक बड़े कवि स्वर्गीय चंद्र भूषण त्रिवेदी की एक अवधी कविता जो एक जमाने में पूरे अवध क्षेत्र में बड़ी लोकप्रिय हुआ करती थी।
लरिकउनू बी ए पास किहिनि, पुतहू का बैरू ककहरा ते।
वह करिया अच्छरू भैंसि कहं, यह छीछाल्यादरि द्याखौ तो।
वह करिया अच्छरू भैंसि कहं, यह छीछाल्यादरि द्याखौ तो।
दिनु राति बिलइती बोली मां, उइ गिटपिट गिटपिट बोलि रहे।
बहुरेवा सुनि सुनि सिटपिटाति, यह छीछाल्यादरि द्याखौ तो।
बहुरेवा सुनि सुनि सिटपिटाति, यह छीछाल्यादरि द्याखौ तो।
लरिकऊ कहेनि वाटर दइदे, बहुरेवा पाथर लइ आई।
यतने मा मचिगा भगमच्छरू, यह छीछाल्यादरि द्याखौ तो।
यतने मा मचिगा भगमच्छरू, यह छीछाल्यादरि द्याखौ तो।
उन अंगरेजी मां फूल कहा, वह गरगु होइगे फूलि फूलि।
उन डेमफूल कह डांटि लीनि, यह छीछाल्यादरि द्याखौ तो।
उन डेमफूल कह डांटि लीनि, यह छीछाल्यादरि द्याखौ तो।
बनिगा भोजन तब थरिया ता, उन लाय धरे छूरी कांटा।
डरि भागि बहुरिया चउका ते, यह छीछाल्यादरि द्याखौ तो।
डरि भागि बहुरिया चउका ते, यह छीछाल्यादरि द्याखौ तो।
लरिकऊ चले असनान करै, तब साबुन का उन सोप कहा।
बहुरेवा लइकै सूप चली, यह छीछाल्यादरि द्याखौ तो।
बहुरेवा लइकै सूप चली, यह छीछाल्यादरि द्याखौ तो।
शम्भुनाथ शुक्ल
No comments:
Post a Comment
All the postings of mine in this whole forum can be the same with anyone in the world of the internet. Am just doing a favor for our forum users to avoid searching everywhere. I am trying to give all interesting informations about Finance, Culture, Herbals, Ayurveda, phycology, Sales, Marketing, Communication, Mythology, Quotations, etc. Plz mail me your requirement - amit.knp@rediffmail.com