March 25, 2011

कविता : नियति

कविता : नियति




हर रात मेरे बिस्‍‍तर पर आकर लेट जाता है, एक नपुंसक मर्द !

आंखें

अधर

चिबुक

पागलों की तरह चूमते-चूमते,

अपनी दोनों मुट्‍ठियों में भर लेता है-स्‍‍तन!

मुंह में भरकर चूसता रहता है ।

मारे प्‍‍सास के जाग उठता है, मेरा रोम-रोम

मांगते हुए सागर भर पानी, छटपटाता रहता है ।

बालों के अरण्‍‍य में अपनी बेचैन उंगलियां,

उंगलियों की दाह

मुझमें सिर से पांव तक अंगार भरकर,

खेलता है उछालने-लपकने का खेल!

उन पलों में मेरी आधी-अधूरी देह

उस मर्द का तन-बदन कर डालती है चकनाचूर,

मांगते हुए नदी भर पानी, छटपटाता रहता है ।

सिरहाने पूस की पूर्णिमा !

रात बैठी रहती है जगी-जगी

उसकी गोद में सिर रखकर,

करके मुझे उत्‍‍तप्‍‍त,

बनाकर मुझे अंगार

नपुंसक-नामर्द सो जाता है बेसुध!

उन पलों में मेरी समूची देह में जगी-जगी प्‍‍यास,

उस सोए हुए मर्द की मुर्दा देह छूकर,

मांगते हुए बून्द भर पानी, रोती रहती है ।


(तसलीमा नसरीन)


किताब: 'निर्वासित बाहर-भीतर' (तसलीमा की जीवनी के तीसरे खंड द्विखंडित में वर्णित)

नोट: तसलीमा के शब्‍‍दों में, 'निर्वासित बाहर-भीतर' काव्‍‍य संग्रह में संकलित सभी कविताएं उस दौर में लिखी गई थीं, जब रूद्र से मेरा रिश्‍‍ता, बस, टूटने- टूटने को था । 'नियति' कविता भी, रूद्र की किसी हरकत पर ही लिखी गई थी ।





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