April 29, 2012

संस्कृति - क्या सच में "आजादी बिना खड़क बिना ढाल" के मिली ? ....





क्या सच में "आजादी बिना खड़क बिना ढाल" के मिली ? ....


कृपया निम्न तथ्यों को बहुत ही ध्यान से तथा मनन करते हुए पढ़िये:-

1. 1942 के ‘भारत छोड़ो’ आन्दोलन को ब्रिटिश सरकार कुछ ही हफ्तों में कुचल कर रख देती है।

2. 1945 में ब्रिटेन विश्वयुद्ध में ‘विजयी’ देश के रुप में उभरता है।

3. ब्रिटेन न केवल इम्फाल-कोहिमा सीमा पर आजाद हिन्द फौज को पराजित करता है, बल्कि जापानी सेना को बर्मा से भी निकाल बाहर करता है।

4. इतना ही नहीं, ब्रिटेन और भी आगे बढ़कर सिंगापुर तक को वापस अपने कब्जे में लेता है।

5. जाहिर है, इतना खून-पसीना ब्रिटेन ‘भारत को आजाद करने’ के लिए तो नहीं ही बहा रहा है। अर्थात् उसका भारत से लेकर सिंगापुर तक अभी जमे रहने का इरादा है।

6. फिर 1945 से 1946 के बीच ऐसा कौन-सा चमत्कार होता है कि ब्रिटेन हड़बड़ी में भारत छोड़ने का निर्णय ले लेता है?

हमारे शिक्षण संस्थानों में आधुनिक भारत का जो इतिहास पढ़ाया जाता है, उसके पन्नों में सम्भवतः इस प्रश्न का उत्तर नहीं मिलेगा। हम अपनी ओर से भी इसका उत्तर जानने की कोशिश नहीं करते- क्योंकि हम बचपन से ही सुनते आये हैं- दे दी हमें आजादी बिना खड्ग बिना ढाल, साबरमती के सन्त तूने कर दिया कमाल। इससे आगे हम और कुछ जानना नहीं चाहते।

(प्रसंगवश- 1922 में असहयोग आन्दोलन को जारी रखने पर जो आजादी मिलती, उसका पूरा श्रेय गाँधीजी को जाता। मगर “चौरी-चौरा” में ‘हिंसा’ होते ही उन्होंने अपना ‘अहिंसात्मक’ आन्दोलन वापस ले लिया, जबकि उस वक्त अँग्रेज घुटने टेकने ही वाले थे! दरअसल गाँधीजी ‘सिद्धान्त’ व ‘व्यवहार’ में अन्तर नहीं रखने वाले महापुरूष हैं, इसलिए उन्होंने यह फैसला लिया। हालाँकि एक दूसरा रास्ता भी था- कि गाँधीजी ‘स्वयं अपने आप को’ इस आन्दोलन से अलग करते हुए इसकी कमान किसी और को सौंप देते। मगर यहाँ ‘अहिंसा का सिद्धान्त’ भारी पड़ जाता है- ‘देश की आजादी’ पर।)

यहाँ हम 1945-46 के घटनाक्रमों पर एक निगाह डालेंगे और उस ‘चमत्कार’ का पता लगायेंगे, जिसके कारण और भी सैकड़ों वर्षों तक भारत में जमे रहने की ईच्छा रखने वाले अँग्रेजों को जल्दीबाजी में फैसला बदलकर भारत से जाना पड़ा।

(प्रसंगवश- जरा अँग्रेजों द्वारा भारत में किये गये ‘निर्माणों’ पर नजर डालें- दिल्ली के ‘संसद भवन’ से लेकर अण्डमान के ‘सेल्यूलर जेल’ तक- हर निर्माण 500 से 1000 वर्षों तक कायम रहने एवं इस्तेमाल में लाये जाने के काबिल है!)

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लालकिले के कोर्ट-मार्शल के खिलाफ देश के नागरिकों ने जो उग्र प्रदर्शन किये, उससे साबित हो गया कि जनता की सहानुभूति आजाद हिन्द सैनिकों के साथ है।

इस पर भारतीय सेना के जवान दुविधा में पड़ जाते हैं।

फटी वर्दी पहने, आधा पेट भोजन किये, बुखार से तपते, बैलगाड़ियों में सामान ढोते और मामूली बन्दूक हाथों में लिये बहादूरी के साथ “भारत माँ की आजादी के लिए” लड़ने वाले आजाद हिन्द सैनिकों को हराकर एवं बन्दी बनाकर लाने वाले ये भारतीय जवान ही तो थे, जो “महान ब्रिटिश सम्राज्यवाद की रक्षा के लिए” लड़ रहे थे! अगर ये जवान सही थे, तो देश की जनता गलत है; और अगर देश की जनता सही है, तो फिर ये जवान गलत थे! दोनों ही सही नहीं हो सकते।

सेना के भारतीय जवानों की इस दुविधा ने आत्मग्लानि का रुप लिया, फिर अपराधबोध का और फिर यह सब कुछ बगावत के लावे के रुप में फूटकर बाहर आने लगा।

फरवरी 1946 में, जबकि लालकिले में मुकदमा चल ही रहा था, रॉयल इण्डियन नेवी की एक हड़ताल बगावत में रुपान्तरित हो जाती है।* कराची से मुम्बई तक और विशाखापत्तनम से कोलकाता तक जलजहाजों को आग के हवाले कर दिया जाता है। देश भर में भारतीय जवान ब्रिटिश अधिकारियों के आदेशों को मानने से इनकार कर देते हैं। मद्रास और पुणे में तो खुली बगावत होती है। इसके बाद जबलपुर में बगावत होती है, जिसे दो हफ्तों में दबाया जा सका। 45 का कोर्ट-मार्शल करना पड़ता है।

यानि लालकिले में चल रहा आजाद हिन्द सैनिकों का कोर्ट-मार्शल देश के सभी नागरिकों को तो उद्वेलित करता ही है, सेना के भारतीय जवानों की प्रसिद्ध “राजभक्ति” की नींव को भी हिला कर रख देता है।

जबकि भारत में ब्रिटिश राज की रीढ़ सेना की यह “राजभक्ति” ही है!

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बिल्कुल इसी चीज की कल्पना नेताजी ने की थी. जब (मार्च’44 में) वे आजाद हिन्द सेना लेकर इम्फाल-कोहिमा सीमा पर पहुँचे थे। उनका आव्हान था- जैसे ही भारत की मुक्ति सेना भारत की सीमा पर पहुँचे, देश के अन्दर भारतीय नागरिक आन्दोलित हो जायें और ब्रिटिश सेना के भारतीय जवान बगावत कर दें।

इतना तो नेताजी भी जानते होंगे कि-

1. सिर्फ तीस-चालीस हजार सैनिकों की एक सेना के बल पर दिल्ली तक नहीं पहुँचा जा सकता, और

2. जापानी सेना की ‘पहली’ मंशा है- अमेरिका द्वारा बनवायी जा रही (आसाम तथा बर्मा के जंगलों से होते हुए चीन तक जानेवाली) ‘लीडो रोड’ को नष्ट करना; भारत की आजादी उसकी ‘दूसरी’ मंशा है।

ऐसे में, नेताजी को अगर भरोसा था, तो भारत के अन्दर ‘नागरिकों के आन्दोलन’ एवं ‘सैनिकों की बगावत’ पर। ...मगर दुर्भाग्य, कि उस वक्त देश में न आन्दोलन हुआ और न ही बगावत।

इसके भी कारण हैं।

पहला कारण, सरकार ने प्रेस पर पाबन्दी लगा दी थी और यह प्रचार (प्रोपागण्डा) फैलाया था कि जापानियों ने भारत पर आक्रमण किया है। सो, सेना के ज्यादातर भारतीय जवानों की यही धारणा थी।

दूसरा कारण, फॉरवर्ड ब्लॉक के कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार कर लिया गया था, अतः आम जनता के बीच इस बात का प्रचार नहीं हो सका कि इम्फाल-कोहिमा सीमा पर जापानी सैनिक नेताजी के नेतृत्व में युद्ध कर रहे हैं।

तीसरा कारण, भारतीय जवानों का मनोबल बनाये रखने के लिए ब्रिटिश सरकार ने नामी-गिरामी भारतीयों को सेना में कमीशन देना शुरु कर दिया था। इस क्रम में महान हिन्दी लेखक सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्सयायन 'अज्ञेय' भी 1943 से 46 तक सेना में रहे और वे ब्रिटिश सेना की ओर से भारतीय जवानों का मनोबल बढ़ाने सीमा पर पहुँचे थे। (ऐसे और भी भारतीय रहे होंगे।)

चौथा कारण, भारत का प्रभावशाली राजनीतिक दल काँग्रेस पार्टी गाँधीजी की ‘अहिंसा’ के रास्ते आजादी पाने का हिमायती था, उसने नेताजी के समर्थन में जनता को लेकर कोई आन्दोलन शुरु नहीं किया। (ब्रिटिश सेना में बगावत की तो खैर काँग्रेस पार्टी कल्पना ही नहीं कर सकती थी!- ऐसी कल्पना नेताजी-जैसे तेजस्वी नायक के बस की बात है। ...जबकि दुनिया जानती थी कि इन “भारतीय जवानों” की “राजभक्ति” के बल पर ही अँग्रेज न केवल भारत पर, बल्कि आधी दुनिया पर राज कर रहे हैं।)

पाँचवे कारण के रुप में प्रसंगवश यह भी जान लिया जाय कि भारत के दूसरे प्रभावशाली राजनीतिक दल भारत की कम्यूनिस्ट पार्टी ने ब्रिटिश सरकार का साथ देते हुए आजाद हिन्द फौज को जापान की 'कठपुतली सेना' (पपेट आर्मी) घोषित कर रखा था। नेताजी के लिए भी अशोभनीय शब्द तथा कार्टून का इस्तेमाल उन्होंने किया था।

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खैर, जो आन्दोलन एवं बगावत 1944 में नहीं हुआ, वह डेढ़-दो साल बाद होता है और लन्दन में राजमुकुट यह महसूस करता है कि भारतीय सैनिकों की जिस “राजभक्ति” के बल पर वे आधी दुनिया पर राज कर रहे हैं, उस “राजभक्ति” का क्षरण शुरू हो गया है... और अब भारत से अँग्रेजों के निकल आने में ही भलाई है।

वर्ना जिस प्रकार शाही भारतीय नौसेना के सैनिकों ने बन्दरगाहों पर खड़े जहाजों में आग लगाई है, उससे तो अँग्रेजों का भारत से सकुशल निकल पाना ही एक दिन असम्भव हो जायेगा... और भारत में रह रहे सारे अँग्रेज एक दिन मौत के घाट उतार दिये जायेंगे।

लन्दन में ‘सत्ता-हस्तांतरण’ की योजना बनती है। भारत को तीन भौगोलिक तथा दो धार्मिक हिस्सों में बाँटकर इसे सदा के लिए शारीरिक-मानसिक रूप से अपाहिज बनाने की कुटिल चाल चली जाती है। और भी बहुत-सी शर्तें अँग्रेज जाते-जाते भारतीयों पर लादना चाहते हैं। (ऐसी ही एक शर्त के अनुसार रेलवे का एक कर्मचारी आज तक वेतन ले रहा है, जबकि उसका पोता पेन्शन पाता है!) इनके लिए जरूरी है कि सामने वाले पक्ष को भावनात्मक रूप से कमजोर बनाया जाय।

लेडी एडविना माउण्टबेटन के चरित्र को देखते हुए बर्मा के गवर्नर लॉर्ड माउण्टबेटन को भारत का अन्तिम वायसराय बनाने का निर्णय लिया जाता है- लॉर्ड वावेल के स्थान पर। एटली की यह चाल काम कर जाती है। विधुर नेहरूजी को लेडी एडविना अपने प्रेमपाश में बाँधने में सफल रहती हैं और लॉर्ड माउण्टबेटन के लिए उनसे शर्तें मनवाना आसान हो जाता है!

(लेखकद्वय लैरी कॉलिन्स और डोमेनिक लेपियरे द्वारा भारत की आजादी पर रचित प्रसिद्ध पुस्तक “फ्रीडम एट मिडनाईट” में एटली की इस चाल को रेखांकित किया गया है।)

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बचपन से ही हमारे दिमाग में यह धारणा बैठा दी गयी है कि ‘गाँधीजी की अहिंसात्मक नीतियों से’ हमें आजादी मिली है। इस धारणा को पोंछकर दूसरी धारणा दिमाग में बैठाना कि ‘नेताजी और आजाद हिन्द फौज की सैन्य गतिविधियों के कारण’ हमें आजादी मिली- जरा मुश्किल काम है। अतः नीचे खुद अँग्रेजों के ही नजरिये पर आधारित कुछ उदाहरण प्रस्तुत किये जा रहे हैं, जिन्हें याद रखने पर शायद नयी धारणा को दिमाग में बैठाने में मदद मिले-

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सबसे पहले, माईकल एडवर्ड के शब्दों में ब्रिटिश राज के अन्तिम दिनों का आकलन:

“भारत सरकार ने आजाद हिन्द सैनिकों पर मुकदमा चलाकर भारतीय सेना के मनोबल को मजबूत बनाने की आशा की थी। इसने उल्टे अशांति पैदा कर दी- जवानों के मन में कुछ-कुछ शर्मिन्दगी पैदा होने लगी कि उन्होंने ब्रिटिश का साथ दिया। अगर बोस और उनके आदमी सही थे- जैसाकि सारे देश ने माना कि वे सही थे भी- तो भारतीय सेना के भारतीय जरूर गलत थे। भारत सरकार को धीरे-धीरे यह दीखने लगा कि ब्रिटिश राज की रीढ़- भारतीय सेना- अब भरोसे के लायक नहीं रही। सुभाष बोस का भूत, हैमलेट के पिता की तरह, लालकिले (जहाँ आजाद हिन्द सैनिकों पर मुकदमा चला) के कंगूरों पर चलने-फिरने लगा, और उनकी अचानक विराट बन गयी छवि ने उन बैठकों को बुरी तरह भयाक्रान्त कर दिया, जिनसे आजादी का रास्ता प्रशस्त होना था।”

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अब देखें कि ब्रिटिश संसद में जब विपक्षी सदस्य प्रश्न पूछते हैं कि ब्रिटेन भारत को क्यों छोड़ रहा है, तब प्रधानमंत्री एटली क्या जवाब देते हैं।

प्रधानमंत्री एटली का जवाब दो विन्दुओं में आता है कि आखिर क्यों ब्रिटेन भारत को छोड़ रहा है-

1. भारतीय मर्सिनरी (पैसों के बदले काम करने वाली- पेशेवर) सेना ब्रिटिश राजमुकुट के प्रति वफादार नहीं रही, और

2. इंग्लैण्ड इस स्थिति में नहीं है कि वह अपनी (खुद की) सेना को इतने बड़े पैमाने पर संगठित एवं सुसज्जित कर सके कि वह भारत पर नियंत्रण रख सके।

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यही लॉर्ड एटली 1956 में जब भारत यात्रा पर आते हैं, तब वे पश्चिम बंगाल के राज्यपाल निवास में दो दिनों के लिए ठहरते हैं। कोलकाता उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश चीफ जस्टिस पी.बी. चक्रवर्ती कार्यवाहक राज्यपाल हैं। वे लिखते हैं:

“... उनसे मेरी उन वास्तविक विन्दुओं पर लम्बी बातचीत होती है, जिनके चलते अँग्रेजों को भारत छोड़ना पड़ा। मेरा उनसे सीधा प्रश्न था कि गाँधीजी का "भारत छोड़ो” आन्दोलन कुछ समय पहले ही दबा दिया गया था और 1947 में ऐसी कोई मजबूर करने वाली स्थिति पैदा नहीं हुई थी, जो अँग्रेजों को जल्दीबाजी में भारत छोड़ने को विवश करे, फिर उन्हें क्यों (भारत) छोड़ना पड़ा? उत्तर में एटली कई कारण गिनाते हैं, जिनमें प्रमुख है नेताजी की सैन्य गतिविधियों के परिणामस्वरुप भारतीय थलसेना एवं जलसेना के सैनिकों में आया ब्रिटिश राजमुकुट के प्रति राजभक्ति में क्षरण। वार्तालाप के अन्त में मैंने एटली से पूछा कि अँग्रेजों के भारत छोड़ने के निर्णय के पीछे गाँधीजी का कहाँ तक प्रभाव रहा? यह प्रश्न सुनकर एटली के होंठ हिकारत भरी मुस्कान से संकुचित हो गये जब वे धीरे से इन शब्दों को चबाते हुए बोले, “न्यू-न-त-म!” ”

(श्री चक्रवर्ती ने इस बातचीत का जिक्र उस पत्र में किया है, जो उन्होंने आर.सी. मजूमदार की पुस्तक ‘हिस्ट्री ऑव बेंगाल’ के प्रकाशक को लिखा था।)

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निष्कर्ष के रुप में यह कहा जा सकता है कि:-

1. अँग्रेजों के भारत छोड़ने के हालाँकि कई कारण थे, मगर प्रमुख कारण यह था कि भारतीय थलसेना एवं जलसेना के सैनिकों के मन में ब्रिटिश राजमुकुट के प्रति राजभक्ति में कमी आ गयी थी और- बिना राजभक्त भारतीय सैनिकों के- सिर्फ अँग्रेज सैनिकों के बल पर सारे भारत को नियंत्रित करना ब्रिटेन के लिए सम्भव नहीं था।

2. सैनिकों के मन में राजभक्ति में जो कमी आयी थी, उसके कारण थे- नेताजी का सैन्य अभियान, लालकिले में चला आजाद हिन्द सैनिकों पर मुकदमा और इन सैनिकों के प्रति भारतीय जनता की सहानुभूति।

3. अँग्रेजों के भारत छोड़कर जाने के पीछे गाँधीजी या काँग्रेस की अहिंसात्मक नीतियों का योगदान नहीं के बराबर रहा।

April 19, 2012

संस्कृति - Film Marketing Promotion and Politics( फिल्म मार्केटिंग प्रमोशन राजनीती)

फिल्म के प्रमोशन दो तरह के होते हैं. एक अच्छा प्रमोशन और दूसरा बुरा. अच्छा प्रमोशन वह है, जिसमें लोगों में ख़ुशियां बांटी जाती हैं सकारात्मक मनोरंजन होता है और जिसमें लोग ख़ुशी-ख़ुशी शरीक होते हैं. बुरा प्रमोशन वह होता है, जिससे समाज में कलह, धार्मिक द्वेष और हिंसा फैलती है. अच्छे और बुरे प्रमोशन में यही फर्क़ होता है. फिल्म माई नेम इज ख़ान ने इतिहास में अपना नाम दर्ज़ करा लिया. यह कोई क्लासिक नहीं है और न ही यह फिल्म पापुलर कैटेगरी में दिल वाले दुल्हनिया ले जाएंगे की तरह है. यह फिल्म दूसरे सप्ताह में ही अपनी हैसियत पर आ गई. दूसरे सप्ताह में ही सिनेमाघरों के मालिकों ने इस फिल्म को बाहर का रास्ता दिखा दिया या फिर इस फिल्म के शोज कम कर दिए. कई जगहों पर माई नेम इज ख़ान को हटाकर पुरानी फिल्में लगा दी गई हैं. इसके  बावजूद इस फिल्म को ग़लत वजहों के कारण याद किया जाएगा. फॉक्स-स्टार, शाहरुख ख़ान और करण जौहर ने इस फिल्म के लिए प्रमोशन का जो तरीक़ा अपनाया, उसे जानकर कोई भी इंसान हैरान हो जाएगा. मीडिया, नेता और सरकारों की मूर्खता का इससे बेहतर नमूना पहले कभी नहीं देखा गया

माई नेम इज ख़ान का प्रमोशन नवंबर या दिसंबर में शुरू नहीं हुआ. इस फिल्म के प्रमोशन का पहला दांव शाहरुख ख़ान ने 14 अगस्त 2009 को खेला. वह भी अमेरिका में. भारत में स्वतंत्रता दिवस मनाया जा रहा था. छुट्टी का दिन था. लोग अपने-अपने घरों में टीवी देख रहे थे. ऐसे में बिजली की तरह एक ख़बर चमकी. शाहरुख ख़ान को न्यू जर्सी एयरपोर्ट पर सुरक्षा के लिहाज़ से रोका गया है और उन्हें अपमानित किया गया है. शाहरुख ख़ान ने अमेरिका से टीवी चैनलों पर फोन से इस फिल्म का पहला डायलॉग पूरे देश को सुनाया-माई नेम इज ख़ान एंड आई एम नॉट ए टेरररिस्ट. उन्होंने बताया कि उनके नाम के पीछे ख़ान लगा है, इसलिए उनके साथ दुर्व्यवहार हुआ है. टीआरपी के भूखे टीवी चैनलों का आलम यह था कि उन्होंने देश भर में प्रायोजित जुलूस और प्रदर्शन को ऐसे दिखाना शुरू किया, जैसे अमेरिका ने भारत पर हमला कर दिया हो. ऐसी घटना पहले भी हो चुकी है. देश के पूर्व राष्ट्रपति डॉ. अब्दुल कलाम आज़ाद को भी सुरक्षा जांच के लिए रोका गया था. देश के कद्दावर नेता एवं रक्षा मंत्री होते हुए जॉर्ज फर्नांडीस के साथ भी यही हुआ था. मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री बाबूलाल ग़ौर को तो केवल अंडरवियर पहनने की इजा़जत दी गई थी. ऐसा हर किसी के साथ होता है, लेकिन इसे मुद्दा नहीं बनाया जाता. यह बात और है कि अमेरिका में स्टार के प्रतियोगी टीवी चैनल सीएनएन ने उसी दिन यह ख़बर भी दिखाई कि शाहरुख ख़ान अपनी फिल्म के प्रमोशन के लिए अमेरिका आए हैं. इस फिल्म का विषय नस्लवाद से जुड़ा है और उन्होंने नॉर्मल सिक्योरिटी चेकअप को मुद्दा बनाकर का़फी पब्लिसिटी हासिल कर ली है. अगर शाहरुख ख़ान के साथ दुर्व्यवहार हुआ तो उन्होंने कोई मामला क्यों नहीं दर्ज़ कराया. स़िर्फ मीडिया में बयानबाज़ी करके वह क्या हासिल करना चाहते थे? यह बात और है कि जिस किसी ने माई नेम इज ख़ान देखी, उसे यह समझाने की ज़रूरत नहीं है कि फिल्म का पहला सीन 14 अगस्त के वाकये का नाट्य रूपांतर है. फिल्म में भी मिस्टर ख़ान के साथ एयरपोर्ट के अधिकारियों ने कुछ नहीं किया और असल ज़िंदगी में भी शाहरुख ख़ान के साथ ऐसा ही हुआ. आज की तारीख़ में इस मामले को लेकर दुनिया की किसी भी अदालत में कोई केस नहीं है.

माई नेम इज ख़ान के निर्माण में कई बड़े नाम और बड़ी कंपनियां जुड़ी हैं. इसमें शाहरुख
ख़ान का रेड चिली प्रोडक्शन, करण जौहर का धर्मा प्रोडक्शन भी शामिल है. इसके अलावा इस फिल्म के लिए पहली बार फॉक्स सर्चलाइट और स्टार नेटवर्क ने साझीदारी करते हुए फॉक्स स्टार बैनर बनाया. भारत के बाहर इस फिल्म के वितरण अधिकार फॉक्स स्टार के पास हैं. यह भी याद रखना चाहिए कि फॉक्स और स्टार दुनिया के दो सबसे शक्तिशाली मीडिया हाउस हैं. फिल्मों के अलावा इनके पास दुनिया भर में कई टीवी चैनल और बड़े-बड़े अख़बार हैं. अमेरिका, यूरोप और भारत में इनकी पहुंच सीधे केंद्रीय मंत्रियों और अधिकारियों तक है. यह बात भी सच है कि इन कंपनियों के पास दुनिया की सबसे बेहतरीन प्रमोशनल टीम है, जो जब चाहे जहां चाहे, विवाद खड़ा कर सकती है. समाज में कोहराम मचा सकती है. यह ख़बरें बनाने, उन्हें टीवी और अखबार में प्रकाशित करके दुनिया भर में हंगामा खड़ा करने की ज़बरदस्त ताक़त रखती है. इसलिए माई नेम इज ख़ान के प्रमोशन का सारा ज़िम्मा इन कंपनियों के पास होना स्वाभाविक है. माई नेम इज ख़ान की प्रमोशन टीम दुनिया भर में सक्रिय थी. चाहे वह यूरोप का कोई देश हो या फिर अमेरिका. हर जगह फॉक्स स्टार की प्रमोशन टीम ने पूरी दक्षता के साथ फिल्म को प्रमोट किया और उसमें सफलता पाई. इस टीम ने भारत और भारत के बाहर के देशों के लिए एक सटीक फार्मूला बनाया. इसकी रिसर्च इतनी पक्की है और यह जानती है कि यूरोप और अमेरिका में वे फिल्में ज़बरदस्त हिट साबित होती हैं, जो वहां की जीवनशैली पर सवाल उठाती हैं. माई नेम इज ख़ान इसी अमेरिकन शैली पर सवाल उठाने वाली फिल्म है. साथ ही भारत, पाकिस्तान और पश्चिम एशिया के देशों में पहले से ही अमेरिका के ख़िला़फ वातावरण है. साथ ही कुछ कट्टरवादी संगठनों की वजह से भारत में धार्मिक उन्माद खड़ा करना बड़ा आसान हो गया. फिल्म माई नेम इज ख़ान के प्रमोशन का फार्मूला इन्हीं बातों पर आधारित था. फॉक्स स्टार की अन्य फिल्में भी कई मसलों पर विवादित रही हैं. स्लमडॉग मिलेनियर को लेकर यह कंपनी विवाद के घेरे में आ चुकी है. इसके प्रमोशन में जिस तरह भारत के ग़रीबों को पेश किया गया, उससे यही साबित होता है कि इन कंपनियों को यह अच्छी तरह से पता है कि भारत के कौन से विषय, विवाद और स्टार्स विदेशों में बेचे जा सकते हैं. यह इनकी मीडिया की ताक़त का ही असर है कि स्लमडॉग मिलेनियर की बाल कलाकार रूबीना को उसके पिता द्वारा तीन लाख डॉलर में बेचने की ख़बर फैलाकर इस फिल्म का प्रमोशन किया गया था. कुछ साल पहले वाराणसी में दीपा मेहता की फिल्म वाटर की शूटिंग के दौरान हंगामा हुआ. फिल्म वाटर के वितरण अधिकार भी फॉक्स फिल्म्स के पास थे. लेकिन, माई नेम इज ख़ान का प्रमोशन अपने आप में इतिहास है. इस फिल्म की प्रमोशन टीम ने एक ही झटके में राजनीतिक दलों, मीडिया, मंत्रियों, सरकारों और देश की जनता को बेवकू़फ बना दिया. हैरानी की बात यह है कि ये लोग बेवकू़फ भी बन गए और इन्हें इस बात की भनक तक नहीं है.

अब सवाल यह है कि ऐसे प्रमोशन की ज़रूरत क्यों पड़ी. फिल्म से जुड़े सभी निर्माताओं को इस बात का अंदाज़ा था कि यह फिल्म ज़्यादा नहीं चलेगी, क्योंकि ऐसी ही कहानी पर आधारित करण जौहर की ही फिल्म क़ुर्बान बॉक्स आफिस पर पिट चुकी थी. माई नेम इज ख़ान का हाल भी कहीं क़ुर्बान जैसा न हो, इसलिए एक आक्रामक रणनीति बनाई गई. शाहरुख ख़ान और करण जौहर की रणनीति सा़फ है. इस फिल्म को 50 करोड़ रुपये की लागत से बनाया गया और फॉक्स ग्रुप को 90 करोड़ रुपये में भारत के बाहर के अधिकार बेच दिए गए.

मतलब यह कि फिल्म रिलीज़ होने से पहले ही करण जौहर और शाहरुख ख़ान मुना़फे में थे. इस फिल्म के सुपरहिट होने पर भी मुंबई में स़िर्फ 10 करोड़ रुपये ही कमाए जा सकते थे, जो फिल्म की कुल कमाई के 10 फीसदी के बराबर हैं. माई नेम इज ख़ान के रणनीतिकारों ने इसी 10 करोड़ रुपये पर जुआ खेला. बॉक्स आफिस का गणित सा़फ है कि ख़राब से ख़राब हालत में भी मुंबई से 4-5 करोड़ रुपये आ सकते हैं. यह समझने के लिए किसी को बहुत बड़ा रणनीतिकार होने की ज़रूरत नहीं है कि मुंबई में हुई घटनाओं का असर मुंबई के बाहर होगा. मुंबई में अगर शिवसेना ने फिल्म का विरोध किया और टीवी पर इसे जमकर दिखाया गया तो देश के दूसरे हिस्सों में लोग फिल्म देखने ज़रूर निकलेंगे. प्रमोशन के इस ख़तरनाक खेल को फॉक्स-स्टार की टीम ने बड़ी खूबी से अंजाम दिया. स्टार ग्रुप के न्यूज चैनल देश के हर रीजन और भाषा में भी हैं. अ़खबारों में भी इनकी साख है. इसके अलावा इस फिल्म के प्रचार के लिए टीवी चैनलों और अ़खबारों में जमकर खर्च किया गया. विवाद खड़ा होते ही इन टीवी चैनलों और अ़खबारों ने अपना फर्ज़ निभाया. इन टेलीविजन चैनलों, अ़खबारों और रेडियो ने मुंबई की घटनाओं से जुड़ी खबरों को ऐसे दिखाया, जैसे कोई राष्ट्रीय संकट पैदा हो गया हो. यह संभव है कि टीवी चैनल एवं अ़खबार प्रमोशन के इस खतरनाक खेल से अंजान हों और वे स़िर्फ अपने व्यवसायिक हित के लिए ऐसा कर रहे हों. दरअसल, सटीक प्रोपेगंडा का उसूल ही यही है कि जो लोग इसमें शामिल होते हैं, उन्हें इस बात का पता ही न चले कि वे किसके लिए काम कर रहे हैं.

बड़े लोगों और छोटे लोगों में एक बुनियादी फर्क़ होता है. बड़े लोग बेवजह कुछ नहीं बोलते हैं. शिवसेना के हंगामे, महाराष्ट्र सरकार की सुरक्षा व्यवस्था के बीच मीडिया में बयानों की बौछार और खिचखिच के बीच 16 दिसंबर 2009 को शाहरु़ख खान ने जो कहा, उस पर से लोगों का ध्यान हट गया. मीडिया ने शाहरु़ख खान के बयानों को सही परिपेक्ष्य में देखा होता तो शायद सच्चाई पर से कुछ पर्दा उतर जाता. 16 दिसंबर 2009 को शाहरु़ख, काजोल और करण जौहर माई नेम इज खान के प्रमोशन के लिए मीडिया के सामने आए. शाहरु़ख से एक सवाल पूछा गया कि फिल्म रिलीज होने से पहले विवाद क्यों हो जाते हैं? जिस तरह आमिर फिल्म थ्री इडियट्स के लिए शहर-शहर जाकर प्रमोशन कर रहे हैं, जब आपकी फिल्म आएगी, तब आप क्या करेंगे?

शाहरु़ख खान ने जवाब दिया कि अंदाज़ वही होगा, जो मेरा अंदाज़ है. तुझे देखा तो यह जाना सनम… कंट्रोवर्सी करना तो छिछोरापन होता है. हम फिल्म की पब्लिसिटी के लिए छिछोरापन नहीं करेंगे. हमारे प्रमोशन का अपना ही तरीक़ा होगा. इस प्रेस कांफ्रेंस में शाहरु़ख ने यह पहले ही ऐलान कर दिया था कि मुझे लगता है कि इस फिल्म का जादू दिल वाले दुल्हनिया ले जाएंगे से डेढ़ करोड़ गुना ज़्यादा चलेगा. हम तीनों जादूगर हैं. जब हम आएंगे, तब पूरी दुनिया देखेगी. फिल्म आ गई और दुनिया ने भी देख लिया. शाहरु़ख ने जिस अंदाज़ में यह बयान दिया, उससे सा़फ ज़ाहिर होता है कि फिल्म के प्रमोशन के लिए वह कुछ अलग और कुछ बड़ा करेंगे.

माई नेम इज खान को इतिहास में एक अच्छी फिल्म की तरह नहीं, लेकिन शिवसेना और शाहरु़ख के विवाद के लिए जाना जाएगा. फिल्म रिलीज होने वाली थी. उससे पहले शाहरु़ख खान का बयान आया कि आईपीएल में पाकिस्तानी खिलाड़ियों को मौक़ा मिलना चाहिए था. यह एक विचित्र स्थिति है. शाहरु़ख खान खुद आईपीएल की एक टीम कोलकाता नाइट राइडर्स के मालिक हैं. उन्होंने खुद किसी पाकिस्तानी को नहीं चुना और बाद में उनके चुनाव के लिए मीडिया में बयानबाज़ी करने लगे. शाहरु़ख खान भले ही लोगों को शटअप कहने का अधिकार रखते हों, लेकिन उनसे यह सवाल पूछा जाना चाहिए कि पाकिस्तानी क्रिकेटरों के आईपीएल में न चुने जाने का उन्होंने विरोध तो किया, लेकिन अपनी ही टीम में किसी भी पाकिस्तानी खिलाड़ी को जगह क्यों नहीं दी.

इस पूरे विवाद में देश की जनता की भावनाओं से खिलवाड़ किया गया. जनता की इस परेशानी के बीच तीन ऐसे मोहरे थे, जिन्हें इस विवाद से भरपूर फायदा हुआ शिवसेना, शाहरु़ख-फॉक्स और कांग्रेस-एनसीपी सरकार. बाल ठाकरे पिछले कुछ दिनों से महाराष्ट्र की राजनीति के साइड हीरो बन चुके थे. कई महीनों से अ़खबारों ने बाल ठाकरे के बारे में लिखना भी बंद कर दिया था. टीवी पर बाल ठाकरे दिखना बंद हो गए थे. बाल ठाकरे की जगह मराठा मानुष के नाम पर गुंडागर्दी करने का ज़िम्मा राज ठाकरे ने ले लिया. राज ठाकरे ने शिवसेना के मुद्दे को हथिया कर उनकी नींद उड़ा दी. लेकिन एक ही झटके में सब कुछ बदल गया. फिल्म माई नेम इज खान की रिलीज के साथ ही वह अचानक केंद्र में आ आए. अ़खबारों में बाल ठाकरे की तस्वीरें छपने लगीं. बाल ठाकरे द्वारा लिखे गए लेख टीवी चैनलों पर बार-बार दिखाए जाने लगे. शिवसेना पहली बार राज ठाकरे पर भारी दिखाई दी. यह सही है कि लोकसभा चुनाव और विधानसभा चुनाव हारने के बाद शिवसेना में मायूसी है. कार्यकर्ता निराश होकर राज ठाकरे की पार्टी की तरफ झुकने लगे थे. शिवसेना का वोट बैंक खिसकने लगा था. लोकसभा और विधानसभा में हारने के बाद बीएमसी का चुनाव सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है. फिलहाल इस पर शिवसेना और बीजेपी का क़ब्ज़ा है और वे इसे किसी भी सूरत में अपने हाथ से गंवाना नहीं चाहती हैं. माई नेम इज खान विवाद ने शिवसेना के संगठन में जान डाल दी. इस विवाद के दौरान हुए हंगामे में 1500 से ज़्यादा कार्यकर्ता गिरफ्तार हुए. तीन-चार दिनों तक वे जेल में रहे. और, जब वे बाहर निकले तो अपने-अपने इला़के में उनका जमकर स्वागत हुआ. फूल-मालाओं से और जुलूस निकाल कर लोगों ने इनका स्वागत किया. जेल गए शिवसैनिकों को सरकार के इस कदम से का़फी लोकप्रियता मिली और शिवसेना के संगठन को नई ऊर्जा. इसका असर यह है कि अब शिवसेना अपने वोटबैंक को बिखरने से बड़ी आसानी से बचा पाएगी. यही वजह है कि इस विवाद के दौरान राज ठाकरे शिवसेना पर ही हमला करते नज़र आए.

इस विवाद से सबसे ज़्यादा फायदा शाहरु़ख खान और स्टार-फॉक्स को हुआ. शाहरु़ख खान ने यह साबित किया है कि फिल्म की मार्केटिंग और प्रमोशन करने में वह आमिर और सलमान जैसे दूसरे प्रतियोगी फिल्म स्टार से का़फी आगे हैं. टीवी चैनलों ने इस फिल्म की रिलीज को एक राष्ट्रीय पर्व बना दिया. शिवसैनिकों के बयान दिखाए जा रहे थे. न्यूज़ चैनलों पर बहस और लोगों की राय का सिलसिला फिल्म के हिट हो जाने तक चलता रहा. पुलिस का इंतजाम कैसा है, यह देखने के लिए टीवी चैनलों के कैमरों के सामने नेता, अधिकारी और मंत्रियों की लाइन लग गई. शाहरु़ख खान की राहुल गांधी से नजदीकियां जगज़ाहिर हैं, इसलिए महाराष्ट्र के कांग्रेसी नेता और मंत्री लाइन में लगकर टिकट खरीदते दिखे. हर सिनेमाहाल के बाहर पुलिस का जमावड़ा था. शिवसैनिकों की पकड़-धकड़ न्यूज़ चैनलों में लगातार दिखाई गई. यह एक शर्मनाक स्थिति है कि माई नेम इज खान विवाद ने ऐसा रूप अख्तियार कर लिया, जहां राज्य सरकार ने फिल्म को रिलीज और हिट कराने का ज़िम्मा अपने सिर ले लिया हो. हद तो तब हो गई, जब उप मुख्यमंत्री आर आर पाटिल खुद फिल्म देखने थियेटर पहुंच गए. जिस हिसाब से कांग्रेस और एनसीपी की सरकार ने इस फिल्म को रिलीज कराने में अपनी सारी ताक़त झोंक दी, अगर वैसी ही कोशिश ग़रीब टैक्सी वालों के लिए की गई होती, तो मुंबई की सड़कों पर बिहार एवं यूपी के टैक्सी ड्राइवर और परीक्षा देने वाले विद्यार्थियों को दौड़ा-दौड़ाकर पीटा न गया होता. आर आर पाटिल साहब ने बिहार या यूपी वालों की टैक्सियों पर बैठने की ज़हमत क्यों नहीं उठाई?

देश के कई शहरों में खौ़फ और आतंक का माहौल, दुनिया भर की मीडिया में खलबली, शिवसैनिकों का हंगामा, हिंदुस्तान-पाकिस्तान के नेताओं की बयानबाज़ी, राज्य के मुख्यमंत्री, गृहमंत्री और कई नेताओं का सड़क पर उतरना, कई शहरों में सुरक्षा व्यवस्था, 1500 से ज़्यादा लोगों की गिरफ़्तारी. इतनी सारी घटनाएं, त़ेजी से चला घटनाचक्र, सौ करोड़ का देश और इन्हें अपने जाल में फंसाने वाली अमेरिका की एक कंपनी, जिसने देश की बीस करोड़ से ज़्यादा मुस्लिम आबादी को भी अपने जाल में भावनात्मक रूप से फंसा उन्हें फिल्म देखने सिनेमाहाल में भेज दिया. आमतौर पर मुसलमान अमेरिका के खिला़फ हैं, लेकिन इस मसले में वे अमेरिकी कंपनी के जाल में फंसे और खूब फंसे. पर अमेरिकी कंपनी फॉक्स ने जिस तरह रणनीति बनाई, उसके लिए उसकी तारी़फ होनी चाहिए और भारतीयों को उसके जाल में फंसने के लिए अपना सिर पीटना चाहिए.


April 18, 2012

संस्कृति - Proud to be Indian- हिंदुस्तान के गौरवशाली ऋषि-मुनियों का वैज्ञानिक इतिहास !

हिंदुस्तान के गौरवशाली ऋषि-मुनियों का वैज्ञानिक इतिहास !




हिंदु वेदोंको मान्यता देते हैं और वेदोंमें विज्ञान बताया गया है । केवल सौ वर्षोंमें पृथ्वीको नष्टप्राय बनानेके मार्गपर लानेवाले आधुनिक विज्ञानकी अपेक्षा, अत्यंत प्रगतिशील एवं एक भी समाजविघातक शोध न करनेवाला प्राचीन ‘हिंदु विज्ञान’ था ।

... पूर्वकालके शोधकर्ता हिंदु ऋषियोंकी बुद्धिकी विशालता देखकर आजके वैज्ञानिकोंको अत्यंत आश्चर्य होता है । पाश्चात्त्य वैज्ञानिकोंकी न्यूनता सिद्ध करनेवाला शोध सहस्रों वर्ष पूर्व ही करनेवाले हिंदु ऋषिमुनि ही खरे वैज्ञानिक शोधकर्ता हैं ।



गुरुत्वाकर्षणका गूढ उजागर करनेवाले भास्कराचार्य !


भास्कराचार्यजीने अपने (दूसरे) ‘सिद्धांतशिरोमणि’ ग्रंथमें गुरुत्वाकर्षणके विषयमें लिखा है कि, ‘पृथ्वी अपने आकाशका पदार्थ स्व-शक्तिसे अपनी ओर खींच लेती हैं । इस कारण आकाशका पदार्थ पृथ्वीपर गिरता है’ । इससे सिद्ध होता है कि, उन्होंने गुरुत्वाकर्षणका शोध न्यूटनसे ५०० वर्ष पूर्व लगाया ।



* परमाणुशास्त्रके जनक आचार्य कणाद !


अणुशास्त्रज्ञ जॉन डाल्टनके २५०० वर्ष पूर्व आचार्य कणादजीने बताया कि, ‘द्रव्यके परमाणु होते हैं । ’विख्यात इतिहासज्ञ टी.एन्. कोलेबु्रकजीने कहा है कि, ‘अणुशास्त्रमें आचार्य कणाद तथा अन्य भारतीय शास्त्रज्ञ युरोपीय शास्त्रज्ञोंकी तुलनामें विश्वविख्यात थे ।’



* कर्करोग प्रतिबंधित करनेवाला पतंजलीऋषिका योगशास्त्र !


‘पतंजलीऋषि द्वारा २१५० वर्ष पूर्व बताया ‘योगशास्त्र’, कर्करोग जैसी दुर्धर व्याधिपर सुपरिणामकारक उपचार है । योगसाधनासे कर्करोग प्रतिबंधित होता है ।’ - भारत शासनके ‘अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्था’के (‘एम्स’के) ५ वर्षोंके शोधका निष्कर्ष !



* औषधि-निर्मितिके पितामह : आचार्य चरक !


इ.स. १०० से २०० वर्ष पूर्व कालके आयुर्वेद विशेषज्ञ चरकाचार्यजी । ‘चरकसंहिता’ प्राचीन आयुर्वेद ग्रंथके निर्माणकर्ता चरकजीको ‘त्वचा चिकित्सक’ भी कहते हैं । आचार्य चरकने शरीरशास्त्र, गर्भशास्त्र, रक्ताभिसरणशास्त्र, औषधिशास्त्र इत्यादिके विषयमें अगाध शोध किया था । मधुमेह, क्षयरोग, हृदयविकार आदि दुर्धररोगोंके निदान एवं औषधोपचार विषयक अमूल्य ज्ञानके किवाड उन्होंने अखिल जगतके लिए खोल दिए । चरकाचार्यजी एवं सुश्रुताचार्यजीने इ.स. पूर्व ५००० में लिखे गए अर्थववेदसे ज्ञान प्राप्त करके ३ खंडमें आयुर्वेदपर प्रबंध लिखे ।



* शल्यकर्ममें निपुण महर्षि सुश्रुत !


६०० वर्ष ईसापूर्व विश्वके पहले शल्यचिकित्सक (सर्जन) महर्षि सुश्रुत शल्यचिकित्साके पूर्व अपने उपकरण उबाल लेते थे । आधुनिक विज्ञानने इसका शोध केवल ४०० वर्ष पूर्व किया ! महर्षि सुश्रुत सहित अन्य आयुर्वेदाचार्य त्वचारोपण शल्यचिकित्साके साथ ही मोतियाबिंद, पथरी, अस्थिभंग इत्यादिके संदर्भमें क्लिष्ट शल्यकर्म करनेमें निपुण थे । इस प्रकारके शल्यकर्मोंका ज्ञान पश्चिमी देशोंने अभीके कुछ वर्षोंमें विकसित किया है !



महर्षि सुश्रुतद्वारा लिखित ‘सुश्रुतसंहिता' ग्रंथमें शल्य चिकित्साके विषयमें विभिन्न पहलू विस्तृतरूपसे विशद किए हैं । उसमें चाकू, सुईयां, चिमटे आदि १२५ से भी अधिक शल्यचिकित्सा हेतु आवश्यक उपकरणोंके नाम तथा ३०० प्रकारके शल्यकर्मोंका ज्ञान बताया है ।



* नागार्जुन


नागार्जुन, ७वीं शताब्दीके आरंभके रसायन शास्त्रके जनक हैं । इनका पारंगत वैज्ञानिक कार्य अविस्मरणीय है । विशेष रूपसे सोने धातुपर शोध किया एवं पारेपर उनका संशोधन कार्य अतुलनीय था । उन्होंने पारेपर संपूर्ण अध्ययन कर सतत १२ वर्ष तक संशोधन किया । पश्चिमी देशोंमें नागार्जुनके पश्चात जो भी प्रयोग हुए उनका मूलभूत आधार नागार्जुनके सिद्धांतके अनुसार ही रखा गया


* बौद्धयन

२५०० वर्ष पूर्व (५०० इ.स.पूर्व) ‘पायथागोरस सिद्धांत’की खोज करनेवाले भारतीय त्रिकोणमितितज्ञ । अनुमानतः २५०० वर्षपूर्व भारतीय त्रिकोणमितिवितज्ञोंने त्रिकोणमितिशास्त्रमें महत्त्वपूर्ण शोध किया । विविध आकार-प्रकारकी यज्ञवेदियां बनानेकी त्रिकोणमितिय रचना-पद्धति बौद्धयनने खोज निकाली । दो समकोण समभुज चौकोनके क्षेत्रफलोंका योग करनेपर जो संख्या आएगी उतने क्षेत्रफलका ‘समकोण’ समभुज चौकोन बनाना और उस आकृतिका उसके क्षेत्रफलके समानके वृत्तमें परिवर्तन करना, इस प्रकारके अनेक कठिन प्रश्नोंको बौद्धयनने सुलझाया


* ऋषि भारद्वाज


राइट बंधुओंसे २५०० वर्ष पूर्व वायुयानकी खोज करनेवाले भारद्वाज ऋषि !

आचार्य भारद्वाजजीने ६०० वर्ष इ.स.पूर्व विमानशास्त्रके संदर्भमें महत्त्वपूर्ण संशोधन किया । एक ग्रहसे दूसरे ग्रहपर उडान भरनेवाले, एक विश्वसे दूसरे विश्व उडान भरनेवाले वायुयानकी खोज, साथ ही वायुयानको अदृश्य कर देना इस प्रकारका विचार पश्चिमी शोधकर्ता भी नहीं कर सकते । यह खोज आचार्य भारद्वाजजीने कर दिखाया ।

पश्चिमी वैज्ञानिकोंको महत्वहीन सिद्ध करनेवाले खोज, हमारे ऋषि-मुनियोंने सहस्त्रों वर्ष पूर्व ही कर दिखाया था । वे ही सच्चे शोधकर्ता हैं ।


* गर्गमुनि

कौरव-पांडव कालमें तारोंके जगतके विशेषज्ञ गर्गमुनिजीने नक्षत्रोंकी खोजकी । गर्गमुनिजीने श्रीकृष्ण एवं अर्जुनके जीवनके संदर्भमें जो कुछ भी बताया वह शत प्रतिशत सत्य सिद्ध हुआ । कौरव-पांडवोंका भारतीय युद्ध मानव संहारक रहा, क्योंकि युद्धके प्रथम पक्षमें तिथि क्षय होनेके तेरहवें दिन अमावस थी । इसके द्वितीय पक्षमें भी तिथि क्षय थी । पूर्णिमा चौदहवें दिन पड गई एवं उसी दिन चंद्रग्रहण था, यही घोषणा गर्गमुनिजीने भी की थी ।



।। जयतु संस्‍कृतम् । जयतु भारतम् ।।

संस्कृति -Proud to be Indian-Gravitational Force

जिस समय न्यूटन के पुर्वज जंगली लोग थे ,उस समय मह्रिषी भाष्कराचार्य ने प्रथ्वी की... गुरुत्वाकर्षण शक्ति पर एक पूरा ग्रन्थ रच डाला था. किन्तु आज हमें कितना बड़ा झूंठ पढना पढता है कि गुरुत्वाकर्षण शक्ति कि खोंज न्यूटन ने की ,ये हमारे लिए शर्म की बात है.

भास्कराचार्य सिद्धान्त की बात कहते हैं कि वस्तुओं की शक्ति बड़ी विचित्र है।

मरुच्लो भूरचला स्वभावतो यतो

विचित्रावतवस्तु शक्त्य:।।

- सिद्धांतशिरोमणि गोलाध्याय - भुवनकोश

आगे कहते हैं-

आकृष्टिशक्तिश्च मही तया यत् खस्थं

गुरुस्वाभिमुखं स्वशक्तत्या।

आकृष्यते तत्पततीव भाति

समेसमन्तात् क्व पतत्वियं खे।।

- सिद्धांतशिरोमणि गोलाध्याय - भुवनकोश

अर्थात् पृथ्वी में आकर्षण शक्ति है। पृथ्वी अपनी आकर्षण शक्ति से भारी पदार्थों को अपनी ओर खींचती है और आकर्षण के कारण वह जमीन पर गिरते हैं। पर जब आकाश में समान ताकत चारों ओर से लगे, तो कोई कैसे गिरे? अर्थात् आकाश में ग्रह निरावलम्ब रहते हैं क्योंकि विविध ग्रहों की गुरुत्व शक्तियाँ संतुलन बनाए रखती हैं।

ऐसे ही अगर यह कहा जाय की विज्ञान के सारे आधारभूत अविष्कार भारत भूमि पर हमारे विशेषज्ञ ऋषि मुनियों द्वारा हुए तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी ! सबके प्रमाण उपलब्ध हैं ! आवश्यकता स्वभाषा में विज्ञान की शिक्षा दिए जाने की है !
अगर आप अपनी पोस्ट को अपनी भाषा हिंदी में लिखें तो निश्चय ही आपका प्रभाव और भी बढ़ जायेगा . हिंदी हमारे देश भारत वर्ष की राष्ट्र भाषा है .....प्रयोग कीजिये ...अच्छा लगता है ..इसके प्रयोग से हमारा मान सम्मान और भी बढ़ जाता है

April 17, 2012

संस्कृति - "एक भारतीय सियाचिन सैनिक का अपनी मरी हुई माँ को लिखा हुआ खत"


  • "एक भारतीय सियाचिन सैनिक का अपनी मरी हुई माँ को लिखा हुआ खत"

    प्रणाम माँ,

    माँ बचपन में मैं जब भी रोते रोते सो जाया करता था तो तू चुपके से मेरे सिरहाने खिलोने रख दिया करती थी और कहती थी की ऊपर से एक परी ने आके रखा है और कह गई है की अगर मैं फिर कभी रोया तो और खिलोने नहीं देगी ! लेकिन इस मरते हुए देश का सैनिक बनके रो तो मैं आज भी रहा हूँ पर अब ना तू आती है और ना तेरी परी ! परी क्या .. यहाँ ढाई हजार मीटर ऊपर तो परिंदा भी नहीं मिलता !

    मात्र 14 हज़ार रुपए के लिए मुझे कड़े अनुशासन में रखा जाता है, लेकिन वो अनुशासन ना इन भ्रष्ट नेताओं के लिए है और ना इन मनमौजी देशवासियों केलिए !

    रात भर जगते तो हम भी हैं लेकिन अपनी देश के सुरक्षा के लिए लेकिन वो जगते हैं लेट नाईट पार्टी के लिए !

    हम इस -12 डिग्री में आग जला के अपने आप को गरम करते हैं . लेकिन हमारे देश के नेता हमारे ही पोशाकों, कवच, बन्दूकों, गोलियों और जहाजों में घोटाले करके अपनी जेबे गरम करते हैं !

    आतंकियों से मुठभेड़ में मरे हुए सैनिकों की संख्या को न्यूज़ चैनल नहीं दिखाया जाता लेकिन सचिन के शतक से पहले आउट हो जाने को देश के राष्टीय शोक की तरह दिखाया जाता है !

    हर चार-पांच सालों ने हमें एक जगह से दुसरे जगह उठा के फेंक दिया जाता है लेकिन यह नेता लाख चोरी करलें बार बारउसी विधानसभा - संसद में पहुंचा दिए जाते हैं !

    मैं किसी आतंकी को मार दूँ तो पूरी राजनितिक पार्टियां वोट के लिए उसे बेकसूर बना के मुझे कसूरवार बनाने मेंलग जाती हैं लेकिन वो आये दिन अपने अपने भ्रष्टाचारो से देश को आये दिन मारते हैं, कितने ही लोग भूखे मरते हैं, कितने ही किसान आत्महत्या करते हैं, कितने ही बच्चे कुपोषण का शिकार होते हैं. लेकिन उसके लिए इन नेताओं को जिम्मेवार नहीं ठहराया जाता.

    निचे अल्पसंख्यको के नाम पर आरक्षण बाटा जा रहा है लेकिन आज तक मरे हुए शहीद सैनिकों की संख्या के आधार पर कभी किसी वर्ग को आरक्षण नहीं दिया गया.

    मैं दुखी हूँ इस मरे हुए संवेदनहीन देश का सैनिक बनके ! यह हमें केवल याद करते हैं 26 जनवरी को और 15 अगस्त को! बाकी दिन तो इनको शाहरुख़, सलमान, सचिन, युवराज की फ़िक्र रहती है !
    हमारी हालत ठीक वैसे ही उस पागल किसानकी तरह है जो अपने मरे हुए बेल पर भी कम्बल डाल के खुद ठंड में ठिठुरता रहता है !
    मैंने गलती की इस देश का रक्षक बनके !
    तू भगवान् के ज्यादा करीब है तो उनसे कह देना की अगले जन्म में मुझे अगर इस देश में पैदा करे तो सेनिक ना बनाए और अगर सैनिक बनाए तो इस देश में पैदा ना करे !
    यहाँ केवल परिवार वाद चलता है, अभिनेता का बेटा जबरदस्ती अभिनेता बनता है और नेता का बेटा जबरदस्ती नेता!
    प्रणाम-
    लखन सिंह (मरे हुए देश का जिन्दा सेनिक) !
    भारतीय सैनिक सियाचिन .

April 15, 2012

संस्कार- SANSKAR

सनातन अथवा हिन्दू धर्म की संस्कृति संस्कारों पर ही आधारित है। हमारे ऋषि-मुनियों ने मानव जीवन को पवित्र एवं मर्यादित बनाने के लिये संस्कारों का अविष्कार किया। धार्मिक ही नहीं वैज्ञानिक दृष्टि से भी इन संस्कारों का हमारे जीवन में विशेष महत्व ...है। भारतीय संस्कृति की महानता में इन संस्कारों का महती योगदान है।


प्राचीन काल में हमारा प्रत्येक कार्य संस्कार से आरम्भ होता था। उस समय संस्कारों की संख्या भी लगभग चालीस थी। जैसे-जैसे समय बदलता गया तथा व्यस्तता बढती गई तो कुछ संस्कार स्वत: विलुप्त हो गये। इस प्रकार समयानुसार संशोधित होकर संस्कारों की संख्या निर्धारित होती गई। गौतम स्मृति में चालीस प्रकार के संस्कारों का उल्लेख है। महर्षि अंगिरा ने इनका अंतर्भाव पच्चीस संस्कारों में किया। व्यास स्मृति में सोलह संस्कारों का वर्णन हुआ है। हमारे धर्मशास्त्रों में भी मुख्य रूप से सोलह संस्कारों की व्याख्या की गई है। इनमें पहला गर्भाधान संस्कार और मृत्यु के उपरांत अंत्येष्टि अंतिम संस्कार है। गर्भाधान के बाद पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण ये सभी संस्कार नवजात का दैवी जगत् से संबंध स्थापना के लिये किये जाते हैं।

नामकरण के बाद चूडाकर्म और यज्ञोपवीत संस्कार होता है। इसके बाद विवाह संस्कार होता है। यह गृहस्थ जीवन का सर्वाधिक महत्वपूर्ण संस्कार है। हिन्दू धर्म में स्त्री और पुरुष दोनों के लिये यह सबसे बडा संस्कार है, जो जन्म-जन्मान्तर का होता है।

विभिन्न धर्मग्रंथों में संस्कारों के क्रम में थोडा-बहुत अन्तर है, लेकिन प्रचलित संस्कारों के क्रम में गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चूडाकर्म, विद्यारंभ, कर्णवेध, यज्ञोपवीत, वेदारम्भ, केशान्त, समावर्तन, विवाह तथा अन्त्येष्टि ही मान्य है।

गर्भाधान से विद्यारंभ तक के संस्कारों को गर्भ संस्कार भी कहते हैं। इनमें पहले तीन (गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन) को अन्तर्गर्भ संस्कार तथा इसके बाद के छह संस्कारों को बहिर्गर्भ संस्कार कहते हैं। गर्भ संस्कार को दोष मार्जन अथवा शोधक संस्कार भी कहा जाता है। दोष मार्जन संस्कार का तात्पर्य यह है कि शिशु के पूर्व जन्मों से आये धर्म एवं कर्म से सम्बन्धित दोषों तथा गर्भ में आई विकृतियों के मार्जन के लिये संस्कार किये जाते हैं। बाद वाले छह संस्कारों को गुणाधान संस्कार कहा जाता है। दोष मार्जन के बाद मनुष्य के सुप्त गुणों की अभिवृद्धि के लिये ये संस्कार किये जाते हैं।

हमारे मनीषियों ने हमें सुसंस्कृत तथा सामाजिक बनाने के लिये अपने अथक प्रयासों और शोधों के बल पर ये संस्कार स्थापित किये हैं। इन्हीं संस्कारों के कारण भारतीय संस्कृति अद्वितीय है। हालांकि हाल के कुछ वर्षो में आपाधापी की जिंदगी और अतिव्यस्तता के कारण सनातन धर्मावलम्बी अब इन मूल्यों को भुलाने लगे हैं और इसके परिणाम भी चारित्रिक गिरावट, संवेदनहीनता, असामाजिकता और गुरुजनों की अवज्ञा या अनुशासनहीनता के रूप में हमारे सामने आने लगे हैं।

समय के अनुसार बदलाव जरूरी है लेकिन हमारे मनीषियों द्वारा स्थापित मूलभूत सिद्धांतों को नकारना कभीश्रेयस्कर नहीं होगा।
 

संस्कृति - गुरुकुल छात्रावास - Gurukul Hostel

एक विद्दयालय के छात्रावास में एक कक्षा के सभी छात्रों को एक कमरे में रखने का प्रावधान था। वह छात्रावास ग्राम में स्थित था , वहाँ सूर्योदय के पश्चात बिजली चली जाती थी , जैसा कि होता है गुरुकुल आर्थिक रूप से समृद्ध नहीं थी और ना ही वहाँ के छा...त्र ! इस कारण बिजली का कोई और विकल्प नहीं था , वहाँ सूर्योदय के बाद लालटैन जलाकर पढा करते थे । एक कक्षा के सभी छात्र आपस में लडा करते थे और रात को सभी अपनी अपनी लालटैन जला कर पढा करते थे इस कारण से ५-१० दिन में उनका मिट्टी का तेल समाप्त हो जाता था या वे उसे प्रतिदिन थोडी थोडी मात्रा में प्रयोग किया करते थे जिससे वे प्रतिदिन आधे से एक घँटा ही पढ पाते थे । जिसके कारण वे गुरुकुल में पिछडते जा रहे थे एक दिन गुरुकुल के एक अध्यापक ने इस समस्या को समझा व सभी छात्रों को समझाया कि इस प्रकार से लडने के कारण आप लोग अपना ही भविष्य का पतन कर रहे हैं एक छात्र को छोड सभी छात्रों के बात समझ में आयी उन्होंने लडना बंद किया व अपने थोडे थोडे मिट्टी के तेल को एकत्र कर प्रतिदिन एक लालटैन में डाल देते थे जिसके कारण प्रतिदिन लालटैन भी अधिक देर तक जलती व महीने के अंत तक जलती रहती थी व सभी छात्र गोल घेरा बनाकर अधिक देर तक पढ पाते थे व जिस छात्र ने अध्यापक की बात नहीं मानी वह अकेला अपनी लालटैन में पढता रहा अतः वह अधिक देर तक नहीं पढ पाया


व कक्षा के सत्र के अंत में जब परीक्षा का परिणाम आया तब सभी छात्र के बहुत ही अच्छे अंक आये क्यूँकि एक तो उन्होंने एक साथ बैठकर पढाई करी थी जिससे कोइ छात्र गणित में कमजोर था व विज्ञान में अच्छा तो दूसरा छात्र ने जो गणित में तो अच्छा था परंतु विज्ञान में कमजोर तो दोंनों ने एक दूसरे को पढा दिया इस प्रकार हर छात्र ने एक दूसरे की सहायता करी

कक्षा में मात्र एक छात्र असफल रहा जो सभी से अलग रहा अब वह पछता रहा था परंतु अब वह उसी कक्षा में रह गया था और बाकी छात्र अगली कक्षा में चले गये थे और अब उनसे माफी माँगने से भी वह परीक्षा में सफल नहीं हो सकता था

इस कहानी से हमें दो सबक मिलते हैं

एकता में बल व बाद में पछताने से बीता समय वापिस नहीं आता

संस्कृति - भगवान कहाँ छुपे हैं ????? एक लघुकथा




सुना था की ईश्वर पहले यहीं रहते थे ,इसी धरती पर ! लेकिन लोगों ने जान खा ली थी ,चौबीस घंटे सोने ही ना दें । जब देखो तब लोगों का ताँता लगा है दरवाजे पर खडे हैं ,कतार लगी हुई है इसको यह चाहिये ,उसको वह चाहिये और माँगे एसी कि एक की पूरी करो तो दूसरे दूसरे की माँग बिखर जाये ,दूसरे की माँग पूरी करो तो किसी तीसरे के लिये गडबड हो जाये । कोई कहता है आज बारिश हो जाये क्युँकि मैने बीज बोये हैं,कोई कहता है कि आज कडक धूप निकालना मैंने कपडे रंगे हैं उन्हें सुखाना है।अब परमात्मा क्या करे और... क्या ना करे हजारों लोग हजारों माँगे ।इसीलिये अपने सलाहकरों को बुलाया और कहा कि भैय्या अब मुझे कोई जगह बताओ जहाँ मैं छिप सकूँ ।अब भूल होगयी जो इंसान बना दिया।




यह तो पता है कि इंसान को बनाने के बाद ईश्वर ने कुछ नहीं बनाया ,क्युँ नहीं बनाया ?

बनाने से ही विरक्त हो गया आदमी को बनाकर समझ गया गडबड हो गयी अब रुक जाओ पूर्णविराम लगादो।आदमी जब तक नहीं बनाया तबतक बनाता ही चला गया ।गधे बनाये,घोडे बनाये, तब भी नहीं घबराया, शेर बनाया,बंदर बनाया,भालू बनाया ! नहीं रुका बडाही मस्त था उसी मस्ती में निर्माण होता चला गया उसी धुन में उसी मस्ती में उसी भूल में आदमी बन गया।

और बस आदमी ने ईश्वर की जान साँसत में डाल दी कि सलाहकारों से पूछना पड गया कि कहाँ छिप जाऊँ कोई जगह बताओ?

एक सलाहकार ने कहा आप हिमालय के शिखर पर चले जाओ तो ईश्वर ने कहा कि वहाँ भी कुछ समय बाद तेनसिंग हेलरी को लेकर आने वाला है एक पहुँच जाये फिर क्या औरों को आने में देर लगती है जल्दी ही बसें आ जायेंगी सिनेमा खुल जायेंगे होटल खुल जायेंगे मेरी जान ये लोग वहीं खायेंगे यह तो अस्थायी इलाज है कोई स्थाई इलाज बताओ ।

एक सलाहकार ने कहा कि आप चाँद पर चले जाओ

ईश्वर बोले तुम भी नहीं समझे और दो दिन की देरी इंसान वहाँ भी पहुँच जायेगा ये मुझे वहाँ भी नहीं छोडेंगे

तब एक बूढे सलाहकार ने कहा कि आप एसा करो इंसान के अंदर छिप जाओ और यह बात ईश्वर के जंचगयी और तब से वह इंसान के अंदर छिपा है क्यूँकि उस बूढे इंसान ने कहा था कि इंसान एक जगह कभी नहीं जायेगा अपने भीतर ,बाकी सभी जगह जायेगा

और यह सही भी था हमारी आँखे दूर टकटकी लगाये बठा है आकाश में तारों में मक्का में मदीना में काशी में कैलाश में कि मक्का से आयेगा ईश्वर,काशी से आयेगा गिरनार से आयेगा,शिखर जी से आयेगा ।

आँख खोलो नहीं बंद करो मौन में डूबो! आनंदमग्न ! अपने भीतर ! जितनी गहराई में बैठो वहीं उसे पाओगे । वह वहीं मौजूद है न देर है न अंधेर मात्र तुम ठीक जगह पहुँच जाओ,तुम ठीक हो जाओ । तुम्हारे तार ठीक बैठ जायें तुम सरगम में आ जाओगे, तुम्हारा साज ठीक से बैठ जाये बस धुन बज उठेगी,गीत झर उठेंगे, फूल खिल उठेंगे !

संस्कृति - निंदारस - Criticism


इस दोहे में यही कहा गया है कि अपनी निंदा, आलोचना, बुराई करने वालों सदा अपने पास रखना चाहिए। अपनी आलोचना सुनकर उसे सुधारने से हमारा स्वभाव अच्छा होता है और हमारी कमियां दूर होती हैं।


यह दोहा अति प्राचीन है और आज के युग में कोई अपनी बुराई कतई सुनना नहीं चाहता। भला मेरे काम में कमी कैसी? यही सोच है अधिकांश लोगों की। सभी चाहते हैं कि चारों ओर उनकी तारीफ हो, उनके कार्य में कमियां ना निकाले। परंतु जब उम्मीद के विपरित कोई बुराई या कमी निकाल देता है तो वहां उनका अहं जाग जाता है।

लोगो...ं को मजा भी बुराई निकालने में ही आता है। दुसरों की बुराई करने को आज भी भाषा में निंदारस कहा जाने लगा है। बुराई करना जैसे एक फैशन हो गया है। किसी के अच्छे कार्यों को कोई एक बार भले याद ना करें परंतु यदि किसी से कोई चूक या गलती हो गई तो जैसे उसने गुनाह कर दिया।

दरअसल व्यक्ति दूसरों की बुराई करके अपनी कमजोरियों को छुपाना चाहता है। वह यही दिखाना चाहता है कि कमियां सिर्फ मुझ ही में नहीं है। कुछ लोगों की सोच होती है जो कार्य मैं नहीं कर सकता या मुझसे नहीं हुआ तो उसे कोई और कैसे कर सकता है? परंतु जब कोई वह कार्य कर देता है तो उसे अपनी कमजोरी का अहसास होता है और वह उसके कार्य में बुराई या कमी तलाश करने में लग जाता है।इसी तरह की भावनाओं से ग्रसित होकर दूसरों में बुराई ढूंढी जाती है और फिर उसे प्रचारित करने में उन्हें एक अद्भूत आंनद की प्राप्ति होती है।यदि कोई आपकी बुराई करता है या कमियां निकालता है तो कोशिश करनी चाहिए उसे पॉजिटिव रूप में लेने की और अपनी कमजोरी दूर करें। साथ ही दूसरों की बुराई करने से बचें। इससे होता कुछ नहीं है उलटा आपकी इमेज पर नेगेटिव प्रभाव पड़ता है।

संस्कृति - पूजन में तिलक लगाने का बड़ा महत्व

पूजन में तिलक लगाने का बड़ा महत्व है। पूजन के अलावा रोजाना तिलक लगाना हमारे लिए लाभकारी है। आइए जानते हैं, कैसे?स्नान के बाद देवी-देवताओं की प्रतिमा को चंदन समर्पित किया जाता है। पूजन करने वाला भी अपने मस्तक पर चंदन का तिलक लगाता है। यह सुगंधित होता है तथा इसका गुण शीतलता देने वाला होता है। भगवान को चंदन अर्पण करने का भाव यह है कि हमारा जीवन आपकी कृपा से सुगंध से भर जाए तथा हमारा व्यवहार शीतल रहे यानी हम ठंडे दिमाग से काम करे। अक्सर उत्तेजना में काम बिगड़ता है। चंदन लगाने से ...उत्तेजना काबू में आती है। स्त्रियों को मस्तक पर कस्तूरी का तिलक या बिंदी लगाना चाहिए। गणेशजी, हनुमानजी, माताजी या अन्य मुर्तियों से सिंदूर निकालकर ललाट पर नही लगाना चाहिए। सिंदूर उष्ण होता है।

चंदन का तिलक ललाट पर या छोटी सी बिंदी के रूप में दोनों भौहों के मध्य लगाया जाता है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से चंदन का तिलक लगाने से दिमाग में शांति, तरावट एवं शीतलता बनी रहती है। मस्तिष्क में सेराटोनिन व बीटाएंडोरफिन नामक रसायनों का संतुलन होता है। मेघाशक्ति बढ़ती है तथा मानसिक थकावट विकार नहीं होता।
 

संस्कृति - 33 करोड़ देवी-देवता ?????

सामान्यत: कहा जाता है कि हिंदुओं के 33 करोड़ देवी-देवता हैं। इतने देवी-देवता कैसे? यह प्रश्न कई बार अधिकांश लोगों के मन में उठता है। शास्त्रों के अनुसार देवताओं की संख्या 33 कोटि बताई गई हैं। इन्हीं 33 कोटियों की गणना 33 करोड़ देवी-देवताओं के रूप में की जाती है। इन 33 कोटियों में आठ वसु, ग्यारह रुद्र, बारह आदित्य, इंद्र और प्रजापति शामिल है। इन्हीं देवताओं को 33 करोड़ देवी-देवता माना गया है।

कुछ ...विद्वानों ने अंतिम दो देवताओं में इंद्र और प्रजापति के स्थान पर दो अश्विनीकुमारों को भी मान्यता दी है। श्रीमद् भागवत में भी अश्विनीकुमारों को ही अंतिम दो देवता माना गया है। इस तरह हिंदू देवी-देवताओं में तैंतीस करोड़ नहीं, केवल तैंतीस ही प्रमुख देवता हैं। कोटि शब्द के दो अर्थ हैं, पहला करोड़ और दूसरा प्रकार या तरह के। इस तरह तैंतीस कोटि को जो कि मूलत: तैंतीस तरह के देव-देवता हैं, उन्हें ही तैंतीस करोड़ माना गया है।
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April 12, 2012

संस्कृति - आप धनी हैं you are RICH



१ – आप कल रात भूखे पेट नहीं सोये।

२ – आप कल रात सड़क पर नहीं सोये।

३ – आपके पास आज सुबह नहाने के बाद पहनने के लिए कपड़े थे।

४ – आपने आज पसीना नहीं बहाया।

५ – आप आज एक पल के लिए भी भयभीत नहीं हुए।

६ – आप साफ़ पानी ही पीते हैं।

७ – आप बीमार पड़ने पर दवाएं ले सकते हैं।

८ – आप इसे इन्टरनेट पर पढ़ रहे हैं।

९ – आप इसे पढ़ रहे हैं।

१० – आपको वोट देने का अधिकार है।



संस्कृति - The Law Of The Wild says kill only when you are hungry..

Photographer Michel Denis captured these amazing pictures on safari in Kenya.


He was astounded by what he saw: "These brothers (cheetahs) have been living together since they left their mother at about 18 months old, On the morning he saw them, they seemed not to be hungry, walking quickly but stopping sometimes to play together. 'At one ...point, they met a group of impala who ran away.. But one youngster was not quick enough and the brothers caught it easily'."

Then extraordinary scenes followed; they just walked away without hurting him.

Life is short... forgive quickly, love truly, laugh uncontrollably...and never regret anything that made you smile




BRAND Archetypes through lens -Indian-Brands

There has been so much already written about brand archetypes and this is certainly not one more of those articles. In fact, this is rather ...