March 27, 2012

संस्कृति - वैज्ञानिक और स्वच्छता का प्रतीक है: शीतला माता पूजा (नवरात्र)





बसंत अब लगभग बिदाई की ओर है

होली के बाद अब गर्मी की मौसम की भी शुरुआत होने लगी है
इसके साथ ही अब रोज की दिनचर्या में भी परिवर्तन आना शुरू हो जाता है
इसी प्रकार की बातों को ध्यान में रखते हुए ही हमारे बुजुर्गो ने त्योहारों को जन्म दिया
इन्ही में से एक त्योहार है “शीतला पूजा”

“शीतला पूजा” होली के एक सप्ताह बाद या कहीं कहीं होली के बाद के पहले सोमवार को या गुरूवार को मनाया जाता है
इस आयोजन का मुख्य उद्देश्य ऋतु परिवर्तन पर होने वाले रोगों से बचना है, जैसे बुखार, पीलिया, चेचक, आँखों के रोग

भगवती शीलता की पूजा का विधान भी अनूठा है
देवी को ठंडा ओर बासी भोजन अर्पित किया जाता है, इसी लिए एक दिन पहले बने भोजन का ही भोग लगाया जाता है
इसी लिए इस उत्सव को बसोड़ा भी कहते है
ऐसी मान्यता है की इस दिन से बासी खाने को खाना बंद कर दिया जाता है, जिस का वैज्ञानिक कारण मौसम में परिवर्तन है
इस समय मौसम थोड़ा गरम भी होना शुरू हो गया होता है इसीलिए बासी खाने से बीमारियों के होने का डर बना रहता है
बासी खाना सिर्फ शरीर को ही नहीं मस्तिष्क को भी नुकसान पहुचाता है

धार्मिक रूप से देखने पर स्कंधपुराण में माता के रूप को दर्शाया गया है, जिसमें माता हाथों में सूप, झाड़ू, गले में नीम के पत्ते पहने, गर्दभ पर विराजमान दिखाई गयी है
इन बातों का वैज्ञानिक एवं प्रतीकात्मक महत्व होता है, चेचक का रोगी कपड़े उतार देता है और उसको सूप से हवा की जाती है, झाड़ू से चेचक के फोड़े फट जाते है, नीम के पत्ते फोड़ों को सड़ने नहीं देते है, और कलश के रूप में ठंडा पानी रोगी को शीतलता देता है

इसी प्रकार से शीलता माता का पूजन हमें स्वच्छता की ओर प्रेरित करती है और संक्रमण के इस समय मे साफ़ सुधरा भोजन करके स्वस्थ जीवन जीने का रास्ता दिखाती है
किसी ने सही ही कहा है: “जैसा अन्न वैसा मन”

“स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क का विकास होता है”


संस्कृति -नींव के संस्कार पर इमारतें खड़ी होती हैं, मकान के संस्कार पर घर




पिताजी ने दिल्ली में जमीन खरीदी थी। उस पर मकान बनाना था। दादी ने पूछा- "नींव की पूजा कैसे होगी?" पिताजी बोले-"हवन करवा देंगे। और क्या?" "नहीं रे! मकान की नींव डालने की विशेष पूजा होती है। तभी तो मकान का संस्कार बनता है। संस्कार में भेद के कारण ही एक मकान हंसता तो दूसरा रोता दिखता है।" पिताजी को भी हंसी आ गई। बोले-"मां अब आप मकान का भी हंसना-विसूरना देखने-सुनने लगीं।"


दादी ने पिताजी को नींव की पूजा के बारे में विस्तार से बताने की कोशिश की। उन्हें ऐसा महसूस हुआ कि वे पिताजी को नींव का मर्म नहीं समझा पाई। वे गांव चली गईं। पंडित लालदेव मिश्र को साथ ले आईं। पंडित जी ने पिताजी को समझाना प्रारंभ कर दिया। वे बोले- "घर, घर है। वह झोपड़ी में हो या फ्लैट में। आलीशान हवेली में हो या बहुमंजिली इमारतों में। कहा और समझा जाता है कि ईंट-कंक्रीट और लोहे की सरिया से बनी दीवारों और छत से घर नहीं बनता। घर तो बनता है घर में रहने वालों के संस्कारों से। "गृहिणी गृहम् उच्यते" भी कहा जाता है। चूंकि हर घर में एक गृहिणी भी होती है, उसके अपने संस्कारों से घर में शांति या कलह विद्यमान होता है। यह ठीक भी है। पर हमारी संस्कृति में मकान का भी संस्कार होता है।" पिताजी के साथ हम सब भी सुनने की स्थिति में आ गए।

"मकान छोटा हो या बड़ा, उसके निर्माण के पूर्व उस स्थान पर नींव डालने की परम्परा है। पूजा पाठ करके नींव डाली जाती है। कहते हैं कि मकान की मजबूती और उसकी आयु उसकी नींव पर निर्भर करती है। कितना और कैसा सीमेंट, बालू और सरिया का इस्तेमाल हुआ है। कितना पानी से तर किया गया है। कितनी धूप लगी है। पर इससे पूर्व नींव में डाली गई सामग्रियों का भी महत्त्व है। वे प्रतीक होती हैं राष्ट्रीय संस्कार की, राष्ट्रीय एकता की। घर को सुखी और संपन्न बनाने के सूत्रों और प्रतीकों के साथ घर की नींव रखी जाती है। घर, मात्र तीन या तीस कमरे का मकान नहीं होता। उसे तो संसार भी कहा जाता है। मकान बनाने के पूर्व जमीन का संस्कार देखा जाता है। उसके संस्कार के निर्णय के बाद ही उस स्थान पर मकान बनाने की राय बनती है। मकान पूर्ण पुरुष होता है। इसलिए जिस प्रकार शिशु के जन्म लेने के पूर्व ही उसके अंदर विभिन्न गुणों के बीजारोपण करने के लिए गर्भ संस्कार किया जाता रहा है, मकान की नींव डालने के समय उसके जन्मकाल में डाले गए संस्कार से ही पूर्ण विकसित पुरुष की कामना की जाती है।" पंडित जी ने समझाया। पिताजी ध्यान से सुन रहे थे। दादी मुस्कुरा रही थीं। उन्हें सुखद लग रहा था कि पण्डित जी की बातें पिताजी के अंतर्मन तक पहुंच रही थीं।

पंडित जी बोले- "हमारे छोटे-छोटे जीवन व्यवहार और संकल्प में जीवन को सुखी बनाने का उपक्रम होता है। मकान निर्माण तो बहुत बड़ा संकल्प है। दीर्घ जीवन का संकल्प। मकान की नींव में कलश, कौड़ी, कछुआ-कछवी, बेमाप का कंकड़, नदी में तैरने वाले सेमाल की टहनी, मेड़ पर उगने वाले कतरे की जड़, सात स्थानों-हथिसार, घोड़सार, गोशाला, गंगा, वेश्या के दरवाजे, चौराहा, देवस्थान की मिट्टी डालने का विधान है। इसमें एक वास्तु पुरुष बनाकर डाला जाता है। सोने-चांदी का नाग। यह वास्तुदोष नाशक यंत्र होता है। हरी मूंग और गुड़ भी डालते हैं।

उपरोक्त सभी वस्तुएं जोड़कर नींव में डाली जाती हैं, उनका प्रतीकात्मक अर्थ है। उस मकान में रहने वालों को सुखी, संपन्न, रोगमुक्त, दीर्घायु और यशस्वी बनाने के प्रतीक हैं। भारत की सांस्कृतिक और आध्यात्मिक सोच भी उसमें समाई होती है।

कौड़ी, पानी के अंदर रहती है। असंख्य थपेड़ों को खाकर भी घिसती नहीं। इस वस्तु को नींव के अंदर रखने का अभिप्राय है कि उस मकान को किसी की नजर न लगे। कछुआ और कछवी की आकृतियां इसलिए कि कछुआ भगवान विष्णु का एक अवतार है। उस मकान को भी कछुआ-कछवी धारण किए रहें। सुपारी और सोना भी विष्णु का ही प्रतीक है। नाग-नागिन की आकृति डालने का अभिप्राय है कि धरती के भीतर विराजमान नाग चक्र उस मकान को संभाले रखे। कंकड़ किसी के उपयोग में न आई मिट्टी का प्रतीक है। नदी के जल पर उगा सेवाल किनारे को पकड़े रहता है। कितना भी झंझावात आए वह बहता नहीं। मकान को झंझावातों से बचाने के लिए सेवाल की डांट रखी जाती है।

मेड़ों पर उगी दूब का वंश कभी समाप्त नहीं होता। इसलिए दूब की जड़ नींव में रखी जाती है। मूंग और कच्चा दूध डाला जाता है। मूंग में औषधीय गुण हैं। प्रतिदिन एक मुट्ठी मूंग खाने से शरीर स्वस्थ्य रहता है। गुड़ तो मीठेपन का प्रतीक है ही। दुग्ध डालने का अभिप्राय यह कि घर में कभी गोरस की कमी न हो। उपरोक्त सारे प्रतीक जीवन को सुखमय और संस्कारी बनाने वाले हैं। इसलिए तो मकान की नींव को ही संस्कारी बनाया जाता है।

पंडित जी ने नींव में डाली जाने वाली सामग्रियों का प्रतीकात्मक अर्थ समझाकर पिताजी अपनी मां की ओर देखा। बोले-"ठीक है, आप इन सारी चीजों को इकट्ठा करवाएं। हम विधि विधान से ही नींव डलवाएंगे। आखिर हम ऐसा ही मकान बनवाना चाहते हैं जिसमें रहने वाले दीर्घायु और सुखी-संपन्न हों।"

दादी बहुत प्रसन्न हो गईं। उनमें से बहुत सी सामग्री पंडित जी ही लाने वाले थे। दादी ने नाग-नागिन और कछुआ-कछवी (धातु के बने) अपने गांव के सुनार से ही बनवाए।

पंडित जी ने बहुत सोच-समझकर तिथि और मुहूर्त निश्चित कर दिया था। वे एक दिन पूर्व ही शहर आ गए। तभी जमीन की साफ-सफाई करवा दी गई थी। गोबर से लिपवाना था। गोबर ढूंढ़ना भी कठिन कार्य था। पर दादी की आज्ञा थी। पिताजी को माननी पड़ी। सुबह से दादी सभी सामान को धो रहीं थीं। पिताजी के लिए एक पीली धोती गांव से ही लाई थीं। पिताजी ने पहन ली। हम लोग जमीन पर पहुंचे। पंडित लालदेव मिश्र समझ गए थे कि पिताजी विस्तार से रस्म की जानकारी चाहते हैं। इसलिए वे नींव डालने की तैयारी करते-करते पिताजी को पूजा की विधि और मर्म समझाते रहे।

पंडित जी पांचों ईंटों में कलेवा लपेट कर रख रहे थे। बोले-"अब हम पूजा प्रारंभ करेंगे।" उन्होंने कलश, कौड़ी, कछुआ-कछवी, बेमाप का कंकड़, सेवाल, दूब की जड़, सात जगहों की मिट्टी और गंगा की दोमट मिट्टी को अंदर गड्ढे में रखा। ईशान कोण से ईशान कोण तक कच्चा दूध गिराया। वैसे ही खैर की लकड़ी की खूंटी रखी। पश्चिम दिशा में कौड़ी और कछुआ-कछवी को कौड़ी के आसपास रखा। कलेवा लपेटी हुई पहली ईंट पूरब दिशा में रखी। बोले-"ओम नन्दा इव नम:"।

सफेद तिल डाला। उत्तर दिशा में दूसरी ईंट - ओम भद्रा इव नम:। तीसरी दक्षिण दिशा में - ओम जया इव नम:। चौथी पश्चिम दिशा में - ओम रिक्ता इव नम:। और पांचवीं बीच में - पूर्णइव नम: उच्चारण के साथ।

उन्होंने शांतिपाठ किया। मिट्टी से नींव को ढंक दिया गया। दादी बहुत प्रसन्न थीं। प्रसन्न तो हम भी थे। पिताजी मुस्कुरा रहे थे। मानो कह रहे हों - "हमारे बीच मां का रहना कितना आवश्यक है। हम तो अब भी बहुत बातों से अनभिज्ञ हैं।"

बात पुरानी हो गई। दादी और पिताजी भी नहीं रहे। उस घर में आज भी सुख-शांति और समृद्धि है। दोनों भाइयों के बीच मेल-मिलाप भी। जब कभी मायके जाती हूं, सुखद लगता है। पंडित जी की बातें स्मरण हो आती है-"नींव के संस्कार पर इमारतें खड़ी होती हैं। मकान के संस्कार पर निर्भर करता है घर का संस्कार।" कितनी गहरी सोच। तभी तो हमारी संस्कृति भी गहरी धंसी है हमारी मिट्टी में।



March 22, 2012

संस्कृति - नवदुर्गा के रूपों से औषधि उपचार

नवदुर्गा के रूपों से औषधि उपचार




नवरात्रि में माँ दुर्गा के औषधि रूपों का पूजन करें

पं. सुरेन्द्र बिल्लौरे




माँ जगदम्बा दुर्गा के नौ रूप मनुष्य को शांति, सुख, वैभव, निरोगी काया एवं भौतिक आर्थिक इच्छाओं को पूर्ण करने वाले हैं। माँ अपने बच्चों को हर प्रकार का सुख प्रदान कर अपने आशीष की छाया में बैठाकर संसार के प्रत्येक दुख से दूर करके सुखी रखती है।


जानिए नवदुर्गा के नौ रूप औषधियों के रूप में कैसे कार्य करते हैं एवं अपने भक्तों को कैसे सुख पहुँचाते हैं। सर्वप्रथम इस पद्धति को मार्कण्डेय चिकित्सा पद्धति के रूप में दर्शाया परंतु गुप्त ही रहा। भक्तों की जिज्ञासा की संतुष्टि करते हुए नौ दुर्गा के औषधि रूप दे रहे हैं। इस चिकित्सा प्रणाली के रहस्य को ब्रह्माजी ने अपने उपदेश में दुर्गाकवच कहा है। नौ प्रमुख दुर्गा का विवेचन किया है। ये नवदुर्गा वास्तव में दिव्य गुणों वाली नौ औषधियाँ हैं।


प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्मचारिणी,

तृतीयं चंद्रघण्टेति कुष्माण्डेती चतुर्थकम।।

पंचम स्कन्दमा‍तेति षुठ कात्यायनीति च।

सप्तमं कालरात्रीति महागौ‍र‍ीति चाष्टम।।

नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गा प्रकीर्तिता।



ये औषधियाँ प्राणियों के समस्त रोगों को हरने वाली और रोगों से बचाए रखने के लिए कवच का काम करने वाली है। ये समस्त प्राणियों की पाँचों ज्ञानेंद्रियों व पाँचों कमेंद्रियों पर प्रभावशील है। इनके प्रयोग से मनुष्य अकाल मृत्यु से बचकर सौ वर्ष की आयु भोगता है।

ये आराधना मनुष्य विशेषकर नौरात्रि, चैत्रीय एवं अगहन (क्वार) में करता है। इस समस्त देवियों को रक्त में विकार पैदा करने वाले सभी रोगाणुओं को काल कहा जाता है।

प्रथम शैलपुत्री (हरड़) - प्रथम रूप शैलपुत्री माना गया है। इस भगवती देवी शैलपुत्री को हिमावती हरड़ कहते हैं।

यह आयुर्वेद की प्रधान औषधि है जो सात प्रकार की होती है। हरीतिका (हरी) जो भय को हरने वाली है। पथया - जो हित करने वाली है।

कायस्थ - जो शरीर को बनाए रखने वाली है। अमृता (अमृत के समान) हेमवती (हिमालय पर होने वाली)।चेतकी - जो चित्त को प्रसन्न करने वाली है। श्रेयसी (यशदाता) शिवा - कल्याण करने वाली ।



द्वितीय ब्रह्मचारिणी (ब्राह्मी) - दुर्गा का दूसरा रूप ब्रह्मचारिणी को ब्राह्मी कहा है। ब्राह्मी आयु को बढ़ाने वाली स्मरण शक्ति को बढ़ाने वाली, रूधिर विकारों को नाश करने के साथ-साथ स्वर को मधुर करने वाली है। ब्राह्मी को सरस्वती भी कहा जाता है।

क्योंकि यह मन एवं मस्तिष्क में शक्ति प्रदान करती है। यह वायु विकार और मूत्र संबंधी रोगों की प्रमुख दवा है। यह मूत्र द्वारा रक्त विकारों को बाहर निकालने में समर्थ औषधि है। अत: इन रोगों से पीड़ित व्यक्ति ने ब्रह्मचारिणी की आराधना करना चाहिए।


तृतीय चंद्रघंटा (चन्दुसूर) - दुर्गा का तीसरा रूप है चंद्रघंटा, इसे चनदुसूर या चमसूर कहा गया है। यह एक ऐसा पौधा है जो धनिये के समान है। (इस पौधे की पत्तियों की सब्जी बनाई जाती है। ये कल्याणकारी है। इस औषधि से मोटापा दूर होता है। इसलिए इसको चर्महन्ती भी कहते हैं। शक्ति को बढ़ाने वाली, खत को शुद्ध करने वाली एवं हृदयरोग को ठीक करने वाली चंद्रिका औषधि है।अत: इस बीमारी से संबंधित रोगी ने चंद्रघंटा की पूजा करना चाहिए।

चतुर्थ कुष्माण्डा (पेठा) - दुर्गा का चौथा रूप कुष्माण्डा है। ये औषधि से पेठा मिठाई बनती है। इसलिए इस रूप को पेठा कहते हैं। इसे कुम्हडा भी कहते हैं। यह कुम्हड़ा पुष्टिकारक वीर्य को बल देने वाला (वीर्यवर्धक) व रक्त के विकार को ठीक करता है। एवं पेट को साफ करता है। मानसिक रूप से कमजोर व्यक्ति के लिए यह अमृत है। यह शरीर के समस्त दोषों को दूर कर हृदय रोग को ठीक करता है। कुम्हड़ा रक्त पित्त एवं गैस को दूर करता है। यह दो प्रकार की होती है। इन बीमारी से पीड़ित व्यक्ति ने पेठा का उपयोग के साथ कुष्माण्डा देवी की आराधना करना चाहिए।




पंचम स्कंदमाता (अलसी) - दुर्गा का पाँचवा रूप स्कंद माता है। इसे पार्वती एवं उमा भी कहते हैं। यह औषधि के रूप में अलसी के रूप में जानी जाती है। यह वात, पित्त, कफ, रोगों की नाशक औषधि है।



अलसी नीलपुष्पी पावर्तती स्यादुमा क्षुमा।

अलसी मधुरा तिक्ता स्त्रिग्धापाके कदुर्गरु:।।

उष्णा दृष शुकवातन्धी कफ पित्त विनाशिनी।



इस रोग से पीड़ित व्यक्ति ने स्कंदमाता की आराधना करना चाहिए।



षष्ठम कात्यायनी (मोइया) - दुर्गा का छठा रूप कात्यायनी है। इस आयुर्वेद औषधि में कई नामों से जाना जाता है। जैसे अम्बा, अम्बालिका, अम्बिका इसको मोइया अर्थात माचिका भी कहते हैं। यह कफ, पित्त, अधिक विकार एवं कंठ के रोग का नाश करती है। इससे पीड़ित रोगी ने कात्यायनी की माचिका प्रस्थिकाम्बष्ठा तथा अम्बा, अम्बालिका, अम्बिका, खताविसार पित्तास्त्र कफ कण्डामयापहस्य।



सप्तम कालरात्रि (नागदौन) - दुर्गा का सप्तम रूप कालरात्रि है जिसे महायोगिनी, महायोगीश्वरी कहा गया है। यह नागदौन औषधि के रूप में जानी जाती है। सभी प्रकार के रोगों की नाशक सर्वत्र विजय दिलाने वाली मन एवं मस्तिष्क के समस्त विकारों को दूर करने वाली औषधि है।

इस पौधे को व्यक्ति अपने घर में लगा ले तो घर के सारे कष्ट दूर हो जाते हैं। यह सुख देने वाली एवं सभी विषों की नाशक औषधि है। इस कालरात्रि की आराधना प्रत्येक पीड़ित व्यक्ति को करना चाहिए।



अष्टम महागौरी (तुलसी) - दुर्गा का अष्टम रूप महागौरी है। जिसे प्रत्येक व्यक्ति औषधि के रूप में जानता है क्योंकि इसका औषधि नाम तुलसी है जो प्रत्येक घर में लगाई जाती है। तुलसी सात प्रकार की होती है। सफेद तुलसी, काली तुलसी, मरुता, दवना, कुढेरक, अर्जक, षटपत्र। ये सभी प्रकार की तुलसी रक्त को साफ करती है। रक्त शोधक है एवं हृदय रोग का नाश करती है।



तुलसी सुरसा ग्राम्या सुलभा बहुमंजरी।

अपेतराक्षसी महागौरी शूलघ्‍नी देवदुन्दुभि:

तुलसी कटुका तिक्ता हुध उष्णाहाहपित्तकृत् ।

मरुदनिप्रदो हध तीक्षणाष्ण: पित्तलो लघु:।



इस देवी की आराधना हर सामान्य एवं रोगी व्यक्ति को करना चाहिए।

नवम सिद्धदात्री (शतावरी) - दुर्गा का नवम रूप सिद्धिदात्री है। जिसे नारायणी या शतावरी कहते हैं। शतावरी बुद्धि बल एवं वीर्य के लिए उत्तम औषधि है। रक्त विकार एवं वात पित्त शोध नाशक है। हृदय को बल देने वाली महाऔषधि है। सिद्धिधात्री का जो मनुष्ट नियमपूर्वक सेवन करता है। उसके सभी कष्ट स्वयं ही दूर हो जाते हैं। इससे पीड़ित व्यक्ति को सिद्धिदात्री देवी की आराधना करना चाहिए।


इस प्रकार प्रत्येक देवी आयुर्वेद की भाषा में मार्कण्डेय पुराण के अनुसार नौ औषधि के रूप में मनुष्य की प्रत्येक बीमारी को ठीक कर रक्त का संचालन उचित एवं साफ कर मनुष्य को स्वस्थ करती है। अत: मनुष्य को इनकी आराधना एवं सेवन करना चाहिए।
















March 20, 2012

संस्कृति -पुराण क्या है ?(What is Puran)


पुराण क्या है ?


सृष्टि के रचनाकर्ता ब्रह्मा ने सर्वप्रथम स्वयं जिस प्राचीनतम धर्...मग्रंथ की रचना की, उसे पुराण के नाम से जाना जाता है। इस धर्मग्रंथ में लगभग एक अरब श्लोक हैं। यह बृहत् धर्मग्रंथ पुराण, देवलोक में आज भी मौजूद है। मानवता के हितार्थ महान संत कृष्णद्वैपायन वेदव्यास ने एक अरब श्लोकों वाले इस बृहत् पुराण को केवल चार लाख श्लोकों में सम्पादित किया। इसके बाद उन्होंने एक बार फिर इस पुराण को अठारह खण्डों में विभक्त किया, जिन्हें अठारह पुराणों के रूप में जाना जाता है। ये पुराण इस प्रकार हैं :

1. ब्रह्म पुराण

2. पद्म पुराण

3. विष्णु पुराण

4. शिव पुराण

5. भागवत पुराण

6. भविष्य पुराण

7. नारद पुराण

8. मार्कण्डेय पुराण

9. अग्नि पुराण

10. ब्रह्मवैवर्त पुराण

11. लिंग पुराण

12. वराह पुराण

13. स्कंद पुराण

14. वामन पुराण

15. कूर्म पुराण

16. मत्स्य पुराण

17. गरुड़ पुराण

18. ब्रह्माण्ड पुराण

पुराण शब्द का शाब्दिक अर्थ है पुराना, लेकिन प्राचीनतम होने के बाद भी पुराण और उनकी शिक्षाएँ पुरानी नहीं हुई हैं, बल्कि आज के सन्दर्भ में उनका महत्त्व और बढ़ गया है। ये पुराण श्वांस के रूप में मनुष्य की जीवन-धड़कन बन गए हैं। ये शाश्वत हैं, सत्य हैं और धर्म हैं। मनुष्य जीवन इन्हीं पुराणों पर आधारित है।
पुराण प्राचीनतम धर्मग्रंथ होने के साथ-साथ ज्ञान, विवेक, बुद्धि और दिव्य प्रकाश का खज़ाना हैं। इनमें हमें प्राचीनतम् धर्म, चिंतन, इतिहास, समाज शास्त्र, राजनीति और अन्य अनेक विषयों का विस्तृत विवेचन पढ़ने को मिलता है। इनमें ब्रह्माण्ड (सर्ग) की रचना, क्रमिक विनाश और पुनर्रचना (प्रतिसर्ग), अनेक युगों (मन्वन्तर), सूर्य वंश और चन्द्र वंश का इतिहास और वंशावली का विशद वर्णन मिलता है। ये पुराण के साथ बदलते जीवन की विभिन्न अवस्थाओं व पक्षों का प्रतिनिधित्व करते हैं। ये ऐसे प्रकाश स्तंभ हैं जो वैदिक सभ्यता और सनातन धर्म को प्रदीप्त करते हैं। ये हमारी जीवनशैली और विचारधारा पर भी विशेष प्रभाव डालते हैं। गागर में सागर भर देना अच्छे रचनाकार की पहचान होती है। किसी रचनाकार ने अठारह पुराणों के सार को एक ही श्लोक में व्यक्त कर दिया गया है:

परोपकाराय पुण्याय पापाय पर पीड़नम्। अष्टादश पुराणानि व्यासस्य वचन।।

अर्थात्, व्यास मुनि ने अठारह पुराणों में दो ही बातें मुख्यत: कही हैं, परोपकार करना संसार का सबसे बड़ा पुण्य है और किसी को पीड़ा पहुँचाना सबसे बड़ा पाप है। जहाँ तक शिव पुराण का संबंध है, इसमें भगवान् शिव के भव्यतम व्यक्तित्व का गुणगान किया गया है। शिव- जो स्वयंभू हैं, शाश्वत हैं, सर्वोच्च सत्ता है, विश्व चेतना हैं और ब्रह्माण्डीय अस्तित्व के आधार हैं। सभी पुराणों में शिव पुराण को सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण होने का दर्जा प्राप्त है। इसमें भगवान् शिव के विविध रूपों, अवतारों, ज्योतिर्लिंगों, भक्तों और भक्ति का विशद् वर्णन किया गया है।See More

By: My friend - "दीपक सरकार"

संस्कृति - सनातन इतिहास से TEST-TUBE BABIES की कुछ उदाहरणे...

आज का तथा-कथित आधुनिक विज्ञ...ान (Modern Science) कितना आधुनिक है, इस बात का प्रमाण निम्न-लिखित कुछ उदाहरणों से स्पष्ट रूप से मिल जाता है... जोकि सनातन शास्त्रों से हैं... वास्तव में यह विज्ञान भारत में युगों प्राचीन हमारे महान ऋषि-मुनिओ को भली-भाँती विदित था... परन्तु पश्चिम के अंधा-धुंध अनुसरण और अपने शास्त्रों से विमुख हो जाने के कारण, हम अपनी गौरव-मयी संस्कृति का मूल्य नहीं जानते...


सनातन शास्त्रों से इस बात के स्पष्ट प्रमाण मिलते हैं की पुरातन काल में यह विद्या कितनी सामान्य थी...

१) सगर के ६०,००० पुत्र... जिनका कालान्तर में ऋषि भगीरथ द्वारा उद्धार किया गया था
२) द्रोणाचार्य - द्रोणाचार्य ऋषि भरद्वाज तथा घृतार्ची नामक अप्सरा के पुत्र तथा धर्नुविद्या में निपुण परशुराम के शिष्य थे
एक समय गंगाद्वार नामक स्थान पर महर्षि भरद्वाज रहा करते थे। वे बड़े व्रतशील व यशस्वी थे। एक बार वे यज्ञ कर रहे थे। एक दिन वे महर्षियों को साथ लेकर गंगा स्नान करने गए। वहां उन्होंने देखा कि घृताची नामक अप्सरा स्नान करके जल से निकल रही है। उसे देखकर उनके मन में काम वासना जाग उठी और उनका वीर्य स्खलित होने लगा। तब उन्होंने उस वीर्य को द्रोण नामक यज्ञपात्र ( कुंभ/घड़े) में रख दिया। उसी से द्रोणाचार्य का जन्म हुआ।
३) महर्षि अगस्त्य - ॠग्वेद का कथन है कि मित्र तथा वरुण नामक वेदताओं का अमोघ तेज एक दिव्य यज्ञिय कलश (कुंभ/घड़े) में पुंजीभूत हुआ... और उसी कलश के मध्य भाग से दिव्य तेज:सम्पन्न महर्षि अगस्त्य का प्रादुर्भाव हुआ
४) कर्ण - महारानी कुंती पुत्र कर्ण का जन्म तब हुआ था जब राजकुमारी कुंती अविवाहित थी
तब सूर्य नारायण के वरदान से उन्हें तत्क्षण एक तेजस्वी पुत्र की प्राप्ति हुयी... जो कवच और कुंडल सहित ही प्रकट हुआ था इस में भी इसी विद्या का प्रयोग किया गया था

५) पांडव- महारानी कुंती को धर्मराज से युधिष्ठिर, पवन देव से भीम और देवराज इन्द्र से अर्जुन जैसे पुत्रो की प्राप्ति भी इसी विद्या के परिणाम स्वरुप हुयी थी... महारानी कुंती ने इन देवो से विवाह नहीं किया था... इसी प्रकार माद्री के आवाहन से अश्वनी-कुमारो से नकुल और सहदेव उत्पन्न हुए थे
६) कौरव - महारानी गांधारी के अंड-कोष (Ovaries) को निकालकर और १०० अंडानुओ (ova) को एक साथ ध्रितराष्ट्र के वीर्य कनो (sperms) के साथ जोड़ने (Fertilization) पर... एक साथ ही १०० कौरवो का जन्म हुआ था...
आधुनिक विज्ञान जिस DNA की खोज को इस युग की महानतम खोज का दर्जा देता है ( DNA was discovered by Watson and Crick in 1950s)... वही हमारे शास्त्रों में "गुण-सूत्र" नाम से लिखित है... हमारे ऋषियो को इसका भली-भाँती ज्ञान था...
 
 
आधुनिक वैज्ञानिक तरीके से न केवल किसी शिशु का जन्म, बल्कि वैज्ञानिकता के अनेक (बताये जा रहे/ हो रहे ‘आधुनिक अविष्कार हमारे प्राचीनतम वैदिक दर्शन–ज्ञान पर ही आधारित हैं’, यह अलग व दुःखद बात है कि स्वयम् हमें इसका ज्ञान नहीं है, पर जब वही ‘आध...ुनिकता की चादर’ में लिपटाकर हमारे समक्ष परोसा जाता है तो हम उसकी ओर कातर नेत्रों से देखते हैं...........और बहुधा हाथ मलते हैं किन्तु हममें अपने अतीत की ओर न झाँकने की क़ुव्वत है और नहीं न देख पाने की टीस !!!


March 12, 2012

इलाज -आयुर्वेद -Clean your Kidneys



Years pass by and our kidneys are filtering the blood by removing salt, poison and any unwanted entering our body. With time, the salt accumulates and this needs to undergo cleaning treatments and how are we going to overcome this?


It is very easy, first take a bunch of parsley.

(In Tamil it is – KOTHA MALLI Leaves) DHANIYA and wash it clean. Then cut it in small pieces and put it in a pot and pour clean water and boil it for ten minutes and let it cool down and then filter it and pour in a clean bottle and keep it inside refrigerator to cool. Drink one glass daily and you will notice all salt and other accumulated poison coming out of your kidney by urination also you will be able to notice the difference which you never felt before. Parsley is known as best cleaning treatment for kidneys and it is natural!



Hope you will definitely inform this to all your loved ओंस






March 08, 2012

इलाज - आयुर्वेदिक दोहे (ayurved dohe)

  आयुर्वेदिक दोहे


1.जहाँ कहीं भी आपको,काँटा कोइ लग जाय। दूधी पीस लगाइये, काँटा बाहर आय।।

2.मिश्री कत्था तनिक सा,चूसें मुँह में डाल। मुँह में छाले हों अगर,दूर होंय तत्काल।।

3.पौदीना औ इलायची, लीजै दो-दो ग्राम। खायें उसे उबाल कर, उल्टी से आराम।।

4.छिलका लेंय इलायची,दो या तीन गिराम। सिर दर्द मुँह सूजना, लगा होय आराम।।

5.अण्डी पत्ता वृंत पर, चुना तनिक मिलाय। बार-बार तिल पर घिसे,तिल बाहर आ जाय।।

6.गाजर का रस पीजिये, आवश्कतानुसार। सभी जगह उपलब्ध यह,दूर करे अतिसार।।

7.खट्टा दामिड़ रस, दही,गाजर शाक पकाय। दूर करेगा अर्श को,जो भी इसको खाय।।

8.रस अनार की कली का,नाक बूँद दो डाल। खून बहे जो नाक से, बंद होय तत्काल।।

9.भून मुनक्का शुद्ध घी,सैंधा नमक मिलाय। चक्कर आना बंद हों,जो भी इसको खाय।।

10.मूली की शाखों का रस,ले निकाल सौ ग्राम। तीन बार दिन में पियें, पथरी से आराम।।

11.दो चम्मच रस प्याज की,मिश्री सँग पी जाय। पथरी केवल बीस दिन,में गल बाहर जाय।।

12.आधा कप अंगूर रस, केसर जरा मिलाय। पथरी से आराम हो, रोगी प्रतिदिन खाय।।

13.सदा करेला रस पिये,सुबहा हो औ शाम। दो चम्मच की मात्रा, पथरी से आराम।।

14.एक डेढ़ अनुपात कप, पालक रस चौलाइ। चीनी सँग लें बीस दिन,पथरी दे न दिखाइ।।

15.खीरे का रस लीजिये,कुछ दिन तीस ग्राम। लगातार सेवन करें, पथरी से आराम।।

16.बैगन भुर्ता बीज बिन,पन्द्रह दिन गर खाय। गल-गल करके आपकी,पथरी बाहर आय।।

17.लेकर कुलथी दाल को,पतली मगर बनाय। इसको नियमित खाय तो,पथरी बाहर आय।।

18.दामिड़(अनार) छिलका सुखाकर,पीसे चूर बनाय। सुबह-शाम जल डाल कम, पी मुँह बदबू जाय।।

19. चूना घी और शहद को, ले सम भाग मिलाय। बिच्छू को विष दूर हो, इसको यदि लगाय।।

20. गरम नीर को कीजिये, उसमें शहद मिलाय। तीन बार दिन लीजिये, तो जुकाम मिट जाय।।

21. अदरक रस मधु(शहद) भाग सम, करें अगर उपयोग। दूर आपसे होयगा, कफ औ खाँसी रोग।।

22. ताजे तुलसी-पत्र का, पीजे रस दस ग्राम। पेट दर्द से पायँगे, कुछ पल का आराम।।

23.बहुत सहज उपचार है, यदि आग जल जाय। मींगी पीस कपास की, फौरन जले लगाय।।

24.रुई जलाकर भस्म कर, वहाँ करें भुरकाव। जल्दी ही आराम हो, होय जहाँ पर घाव।।

25.नीम-पत्र के चूर्ण मैं, अजवायन इक ग्राम। गुण संग पीजै पेट के, कीड़ों से आराम।।

26.दो-दो चम्मच शहद औ, रस ले नीम का पात। रोग पीलिया दूर हो, उठे पिये जो प्रात।।

27.मिश्री के संग पीजिये, रस ये पत्ते नीम। पेंचिश के ये रोग में, काम न कोई हकीम।।

28.हरड बहेडा आँवला चौथी नीम गिलोय, पंचम जीरा डालकर सुमिरन काया होय॥

29.सावन में गुड खावै, सो मौहर बराबर पावै॥

BRAND Archetypes through lens -Indian-Brands

There has been so much already written about brand archetypes and this is certainly not one more of those articles. In fact, this is rather ...