December 27, 2011

December 06, 2011

कब तक शर्म करते रहेंगे अपने भारतीय होने पर?


कब तक शर्म करते रहेंगे अपने भारतीय होने पर?

७५२ ई० तक इंग्लैण्ड में मार्च ही पहला महीना हुआ करता था और उसी गणित से ७वाँ महीना सितम्बर और दसवाँ महीना दिसम्बर था लेकिन १७५२ के बाद जब शुरुआती महीना जनवरी को बनाया गया तब से सारी व्यवस्था बिगडी़..तो अब समझे कि क्रिसमस को x-mas क्यों कहते हैं."x " जो रोमन लिपि में दस का संकेत है और "mas" यनि मास,यनि दसवाँ महीना..उस समय दिसम्बर दसवाँ महीना था जिस कारण इसका x-mas नाम पडा़..और मार्च पहला महीना इसलिए होता था क्योंकि भारतीय लोग इसी महीने में अपना नववर्ष मनाते थे और अभी भी मनाते हैं..तो सोचिए कि हमलोग बस"



पूरे विश्व को अँधेरी गुफ़ा से निकालकर सूर्य की रश्मि में भिंगोने वाले,जो चारों पैरों पर घुड़कना सीख रहे थे उन्हें उँगली पकड़कर चलना सीखाने वाले हम भारतीयों को आज अपने भारतीय होने पर शर्म महसूस होता है ,हीन भावना से ग्रसित होकर जीवन जी रहे हैं हमसब.... तभी तो हम भारतीय अपना तर्कसंगत नया साल को छोड़कर अंग्रेजों का नया साल मनाते हैं जिसका कोई आधार ही नहीं है.,हम पूजा-पाठ,यज्य-हवन,दान-पुण्य कर घी के दिए को जलाकर अपना जन्म-दिवस बनाने की परम्परा को छोड़कर अंडे से बने गंदे केक पर थूककर बेहुदा और गंदी परम्परा को बडे़ गर्व के साथ निभा रहे हैं,अपनी स्वास्थ्यकर चीजों को छोड़कर रोगों को बुलावा देने वाले चीजों को खाना अपना शान समझते हैं,अपनी मातृभाषा में बात करने में हम अपनेआप को अपमानित महसूस करते हैं और उस भाषा को बोलने में गर्व महसूस करते हैं जिसके विद्वानों को खुद उस भाषा के बारे में पता नहीं, खुद उसे अपनी सभ्यता-संस्कृति के इतिहास की कोई जानकारी नहीं और जो हमारे यहाँ के किसी बच्चे से भी कम बुद्धि रखता है.......... अगर विश्वास नहीं होता तो किसी ईसाई से पूछ्कर देखिए तो कि उनके अराधना-स्थल का नाम चर्च क्यों पडा़,क्रिस्तमस का अर्थ क्या है....?और क्रिसमस को एक्समस(x-mas) क्यों कहा जाता है...? हमलोगों के तो संस्कृत या हिन्दी के प्रत्येक शब्द का अर्थ है क्योंकि सब संस्कृत के मूल धातु से उत्पन्न हुआ है...क्रिसमस को अगर ईसा के जन्मदिवस के रुप में मनाया जाता है तो फ़िर क्रिसमस में तो जन्मदिन जैसा कोई अर्थ नहीं है और उनके जन्म को लेकर तो ईसाई विद्वानों में ही मतभेद है. कोई उनके जन्म को ४ ईसा पूर्व बताते हैं तो कोई कुछ...और ठीक है अगर मान भी लिए कि २५ दिसम्बर को ही ईसा का जन्म हुआ था तो अपना नया साल एक सप्ताह बाद क्यों....?आपको तो नया साल का शुरुआत उसी दिन से करना चाहिए था..!कोई जवाब नहीं है उनके पास लेकिन हमारे पास है...और जिन शब्दों का अर्थ उन्हें नहीं मालूम वो हमें है वो इसलिए कि नहरें नदी के जितना विशाल नहीं हो सकतीं...एक और प्रश्न कि वो लोग अपना अगला दिन और तिथि रात के १२ बजे उठकर क्यों बदलते हैं जबकि दिन तो सूर्योदय के बाद होता है..


तनिक विचार करिए कि अँग्रेजी में सेप्ट(sept) 7 के लिए प्रयुक्त होता है oct आठ के लिए deci दस के लिए तो फ़िर september,october,november & December क्रमशः नौवाँ,दसवाँ,ग्यारहवाँ और बारहवाँ महीना कैसे हो गया.....??सितम्बर को तो सातवाँ महीना होना चाहिए फ़िर वो नौंवा महीना क्यों है,दिसम्बर को तो दसवाँ महीना होना चाहिए फ़िर वो बरहवाँ महीना क्यों है और कैसे.....?कभी सोचा आपने...!!

इसका कारण ये है कि १७५२ ई० तक इंग्लैण्ड में मार्च ही पहला महीना हुआ करता था और उसी गणित से ७वाँ महीना सितम्बर और दसवाँ महीना दिसम्बर था लेकिन १७५२ के बाद जब शुरुआती महीना जनवरी को बनाया गया तब से सारी व्यवस्था बिगडी़..तो अब समझे कि क्रिसमस को x-mas क्यों कहते हैं.....! "x " जो रोमन लिपि में दस का संकेत है और "mas" यनि मास,यनि दसवाँ महीना..उस समय दिसम्बर दसवाँ महीना था जिस कारण इसका x-mas नाम पडा़..और मार्च पहला महीना इसलिए होता था क्योंकि भारतीय लोग इसी महीने में अपना नववर्ष मनाते थे और अभी भी मनाते हैं..तो सोचिए कि हमलोग बसन्त जैसे खुशहाल समय जिसमें पेड़-पौधे,फ़ूल-पत्ते सारी प्रकृति एक नए रंग में रंग जाती है और अपना नववर्ष मनाती है उसे छोड़कर जनवरी जैसे ठंडे,दुखदायी और पतझड़ के मौसम में अपना नया साल मनाकर हमलोग कितने बेवकूफ़ बनते हैं.........सितम्बर यानि सप्त अम्बर यानि आकाश का सातवाँ भाग...भारतीयों ने आकाश को बारह भागों में बाँट रखा था जिसका सतवाँ,अठवाँ,नौंवा और दसवाँ भाग के आधार पर ये चारों नाम हैं...तो अब समझे कि इन चार महीनों का नाम सेप्टेम्बर,अक्टूबर ,नवम्बर और डेसेम्बर क्यों है...!

संस्कृत में ७ को सप्त कहा जाता है तो अँग्रेजी में सेप्ट,अष्ट को ऑक्ट,दस को डेसी...अँग्रेज लोग "त" का उच्चारण "ट" और "द" का "ड" करते हैं इसलिए सप्त सेप्ट और दस डेश बन गया है...तो इतनी समानता क्यों है...??आप समझ चुके होंगे कि मैं किस ओर इशारा कर रहा हूँ.....! अगर अभी भी अस्पष्ट है तो चिंता की बात नहीं आगे स्पष्ट हो जाएगा.....

चलिए पहले हम बात कर रहे थे अपने हीन भावना की तो इसी की बात कर लेते हैं ...हमारे देशवासियों की अगर ऐसी मानसिकता बन गयी है तो इसमें उनका भी कोई दोष नहीं है...भारतीयों को रुग्ण मानसिकता वाले और हीन भावना से भरने का चाल तो १८३१ से ही चला जा रहा है जबसे यहाँ अँग्रेजी शिक्षा लागू हुई....अँग्रेजी शिक्षा का मुख्य उद्देश्य ही यही था कि भारतीयों को पराधीन मानसिकता वाला बना दिया जाय ताकि वो हमेशा अंग्रेजों के तलवे चाटते रहे..यहाँ के लोगों का यहाँ के नारियों का नैतिक पतन हो जाय,भारतीय कभी अपने पूर्वजों पर गर्व ना कर सके,वो बस यही समझते रहे कि अँग्रेजो के आने से पहले वो बिल्कुल असभ्य था उसके पूर्वज अंधविश्वासी और रुढी़वादी थे,अगर अँग्रेज ना आए होते तो हम कभी तरक्की नहीं कर पाते..इसी तर्ज पर उन्होंने शिक्षा-व्यवस्था लागू की थी और सफ़ल हो भी गए... और ये हामारा दुर्भाग्य ही है आजादी के बाद भी हमारे देश का नेतृत्व किसी योग्य भारतीय के हाथ में जाने के बजाय नेहरु जैसे विकृत,बिल्कुल दुर्बल और रोगी मानसिकता वाले व्यक्ति के हाथ में चला गया जो सिर्फ़ नाम से भारतीय था पर मन और कर्म से तो वो बिल्कुल अँग्रेज ही था...बल्कि उनसे चार कदम आगे ही था..ऐसा व्यक्ति था वो जो सुभाष चन्द्र बोष,भगत सिंह, वीर सावरकर और बाल गंगाधर तिलक जैसे हमारे देशभक्तों से नफ़रत करता था क्योंकि उसकी नजर में वो लोग मजहबी थे.उसकी नजर में राष्ट्रवादी होना मजहबी होना था.वो ये समझता था कि भारतीय बहुत खुशनसीब हैं जो उनके उपर गोरे शासन कर रहे हैं, क्योंकि इससे असभ्य भारतीय सभ्य बनेंगे.. उसकी ऐसी मानसिकता का कारण ये था कि उसने भारतीय शिक्षा कभी ली ही नहीं,अपनी पूरी शिक्षा उन्होंने विदेशों से प्राप्त की थी जिसका ये परिणाम निकला था....चरित्र ऐसा कि बुढा़री में भी इश्कबाजी करना नहीं छोडे़ जब उनकी कमर झुक गयी थी और छडी़ के सहारे चलते थे...भारत के अंतिम वायसराय की पत्नी एडविन माउण्टबेटेन के साथ उनकी रंगरेलियाँ जग-जाहिर हैं जिसका विस्तृत वर्णन एडविन की बेटी पामेला ने अपनी पुस्तक "India remembered" में किया है,,पामेला के पास नेहरु द्वारा उसकी माँ को बक्सा भर-भरकर लिखे गए लव-लेटर्स भी हैं..वो तो भला हो हमारे लौह पुरुष सरदार बल्लभ भाई पटेल का जिसके कारण आज कश्मीर भारत में है नहीं तो पंडित जी ने तो इसे अपने प्यार पर कुर्बान कर ही दिया था..और उस लौह पुरुष को भी महात्मा कहे जाने वाले गांधी ने इतना अपमानित किया था कि बेचारे के आँखों से आँसू छलक पडे़ थे..सच्ची बात तो ये थी कि कश्मीर भारत में रहे या पाकिस्तान में इससे इन दोनों(नेहरु,गांधी) को कोई फ़र्क नहीं पड़ता था...लोग समझते हैं कि अँग्रेजों ने १९४७ में भारत को आजाद कर दिया था पर सच्चाई ये नहीं है..सच्चाई ये है कि उसने नेहरु के रुप में अपना नुमाइंदा यहाँ छोड़ दिया था..वो जानता था कि उसका नुमाइंदा उससे भी ज्यादा निपुणता से भारत देश को बर्बाद करने का काम करेगा....और सच में उसका नुमाइंदा उसकी आशा से ज्यादा ही खरा उतरा.....नेहरु(सीधे-सीधी कहूँ तो पूरे काँग्रेसियों का) का ही ये प्रभाव है कि हम आज तक मानसिक रुप से आजाद नहीं हो पाए अँग्रेजों से......हमारी स्थिति इतनी दयनीय हो चुकी है कि अमृत भी पीने मिल जाय तो पहले अँग्रेजों से पूछ्ने जाएँगे कि इसे पीयें कि नहीं,,अगर कोई विषैला पदार्थ भी मिल गया तो पहले हम अँग्रेजों से ही पूछेंगे कि इसे त्यागना चाहिए या पी लेना चाहिए....और जिस अँग्रेजों ने आजतक हमलोगों से नफ़रत की कभी हमलोगों की तरक्की सह नहीं पाए,क्या लगता है कि वो हमें हमारे भले की सलाह देंगे....???पूरे विश्व को सभ्यता हमने सिखाई और आज हम उनसे सभ्यता सीख रहे हैं.....ध्यान-साधना,योग,आयुर्वेद ये सारी अनमोल चीजें हमारी विरासत थी लेकिन अँग्रेजों ने हमलोगों के मन में बैठा दिया कि ये सब फ़ालतू चीजें हैं और हमलोगों ने मान भी लिया पर आज जब उनको जरुरत पड़ रही है इनसब चीजों की तो फ़िर से हमलोगों की शरण में दौडे़-भागे आ रहे है और अब हमारा योग योगा बनकर हमारे पास आया तब जाकर हमें एह्सास हो रहा है कि जिसे कँचे समझकर खेल रहे थे हम वो हीरा था...पर अब देर हो चुकी है.....जिस आयुर्वेद का ज्यान सदियों पहले से हमारे हरेक घर के एक-एक बच्चे तक को है कि हल्दी का क्या उपयोग है और नीम का क्या उपयोग है....उस आयुर्वेद के ज्यान को विदेशी वाले अपने नाम से पेटेंट करा रहे हैं जिसके बाद उसका व्यापारिक उपयोग हम नहीं कर पाएँगे.... इस आयुर्वेद का ज्यान इस तरह रच बस गया है हमलोगों के खून में कि चाहकर भी हम इसे भुला नही सकते...आज भले ही बहुत कम ज्यान है हमें आयुर्वेद का पर पहले घर की हरेक औरतों को इसका पर्याप्त ज्यान होता था तभी तो आज भी दादी माँ के नुस्खे या नानी माँ के नुस्खे पुस्तक बनकर छप रहे हैं... उस आयुर्वेद की छाया प्रति तैयार करके अरबी वाले यूनानी चिकित्सा का नाम देकर प्रचारित कर रहे हैं....

आज अगर विदेशी वाले हमारे ज्यान को अपने नाम से पेटेंट करा रहे हैं तो हमारी नपुंसकता के कारण ही ना...?वो तो योग के ज्याता नहीं रहे होंगे विदेश में और जब तक होते तब तक स्वामी रामदेव जी आ गए नहीं तो ये भी किसी विदेशी के नाम से पेटेंट हो चुका होता...हमारी एक और महान विरासत है संगीत की जो मा सरस्वती की देन है किसी सधारण मानवों की नहीं...!!फ़िर इसे हम तुच्छ समझकर इसका अपमान कर रहे हैं....याद है आज से साल भर पहले हमारे संगीत-निर्देशक ए.आर.रहमान (पहले दिलीप कुमार था ) को संगीत के लिए ऑस्कर पुरस्कार दिया गया था...और गर्व से सीना चौडा़ हो गया था हम भारतीयों का...जबकि मुझे ऐसा लग रहा था कि मेरे अपनों ने मुझे जख्म दिया और अँग्रेज उसमें नमक छिड़क रहे हैं और मेरे अपने उसे देखकर खुश हो रहे हैं......किस तरह भींगाकर जूता मारा था अँग्रेजों ने हम भारतीयों के सर पर और हम गुलाम भारतीय उसमें भी खुश हो रहे थे कि मालिक ने हमें पुरस्कार तो दिया.....भले ही वो जूते का हार ही क्यों ना हो....??अरे शर्म से डूब जाना चाहिए हम भारतीयों को अगर रत्ती मात्र भी शर्म बची है हमलोगों में तो......?अगर थोडा़ सा भी स्वाभिमान बचा है हमलोगों में तो...?बेशक रहमान की जगह कोई देशभक्त होता तो ऐसे ऑस्कर को लात मार कर चला आता..क्योंकि उसे पुरस्कार अच्छे संगीत के नहीं दिए गए थे बल्कि उसने पश्चिमी संगीत को मिलाया था भारतीय संगीत में इसलिए मिले उसे वो पुरस्कार...यनि कि भारतीय संगीत कितना भी मधुर क्यों ना हो ऑस्कर लेना है तो पश्चिमी संगीत को अपनाना होगा...सीधा सा मतलब ये है कि हमें कौन सा संगीत पसंद करना है और कौन सा नहीं ये हमें अब वो बताएँगे...इससे बडा़ और गुलामी का सबूत क्या हो सकता है कि हम अपनी इच्छा से कुछ पसन्द भी नहीं कर सकते...कुछ पसंद करने के लिए भी विदेशियों की मुहर लगवानी पड़ती है उसपर हमें....भाई पसंद तो अपनी-अपनी होती है फ़िर इसे कोई अन्य निर्धारित कैसे कर सकता है..उसपर भी उसकी सभ्यताएँ अलग हैं और हमारी अलग,,उसके पसंद अलग हैं और हमारे अलग....अगर कोई भारतीय संगीतग्य हमारी पसंद निर्धारित करे तो कोई बात नहीं पर जिसे संगीत का "क ख ग" भी नहीं पता वो हमें क्या सिखाएँगे...?जहाँ संगीत का मतलब सिर्फ़ गला फ़ाड़कर चिल्ला देना भर होता है वो हमें सिखायेंगे...??ज्यादा पुरानी बात भी नहीं है ये........हरिदास जी और उसके शिष्य तानसेन(जो अकबर के दरबारी संगीतग्य थे) के समय की बात है जब राज्य के किसी भाग में सूखा और अकाल की स्थिति पैदा हो जाती थी तो तानसेन को वहाँ भेजा जाता था वर्षा कराने के लिए..तानसेन में इतनी क्षमता थी कि मल्हार गाके वर्षा करा दे,दीपक राग गाके दीपक जला दे और शीतराग से शीतलता पैदा कर दे तो प्राचीन काल में अगर संगीत से पत्थर मोम बन जाता था जंगल के जानवर खींचे चले आते थे कोई आश्चर्य की बात नहीं होनी चाहिए क्योंकि ये बात कोई भी अनुभव कर सकता है कि किस तरह दिनों-दिन संगीत-कला विलुप्त होती जा रही है.....और संगीत कला का गुण तो हम भारतीयों के खून में है..देख लिजिए किस तरह यहाँ हरेक बच्चा बोलना सीखता नहीं है कि गायक बन जाता है.....किशोर कुमार,उषा मंगेश्कर,कुमार सानू जैसे अनगिनत उदाहरण है जो बिना किसी से संगीत की शिक्षा लिए ही बॉलीवुड में आए थे.....एक और उदाहरण है जब तानसेन की बेटी ने रात भर में ही "शीत राग" सीख लिया था...चूँकि दीपक राग गाते समय शरीर में इतनी उष्मा पैदा हो जाती है कि अगर अन्य कोई शीत राग ना गाए तो दीपक राग गाने वाले व्यक्ति की मृत्यु हो जाएगी....और तानसेन के प्राण लेने के उद्देश्य से ही एक चाल चलकर उसे दीपक राग गाने के लिए बाध्य किया था उससे ईर्ष्या करने वाले दरबारियों ने...और तानसेन भी अपनी मृत्यु निश्चित मान बैठे थे क्योंकि उनके अलावे कोई और इसका ज्याता(जानकार) था नहीं और रात भर में सीखना संभव भी ना था किसी के लिए पर वो भूल गए थे कि उनकी बेटी में भी उन्हीं का खून था और जब पिता के प्राण पर बन आए तो बेटी असंभव को भी संभव करने की क्षमता रखती है.....--तान सेन के ऐसे सैकडो कहानियाँ हैं पर ये छोटी सी कहानी मैने आपलोगों को अपने भारत के महान संगीत विरासत की झलक दिखाने के लिए लिखी...अब सोचिए कि ऐसे में अगर विदेशी हमें संगीत की समझ कराएँ तो ये तो ऐसा ही है जैसे पोता अपने दादा जी को धोती पहनना सिखाए,राक्षस साधु-महात्माओं को धर्म का मर्म समझाए और शेर किसी हिरण को अपने पंजे में दबोचकर अहिंसा की शिक्षा दे......नहीं..??हमलोगों के यहाँ सात सुर से संगीत बनता है इसलिए सात तारों से बना हुआ सितार बजाते हैं हमलोग,लेकिन अँग्रेजों को क्या समझ में आ गया जो छह तार वाला वाद्य-यंत्र बना लिया और सितार की तर्ज पर उसका नामकरण गिटार कर दिया.....????

इतना कहने के बाद भी हमारे भारतीय नहीं मानेंगे मेरी बात ,,पर जब कोई अँग्रेज कहेगा कि उसने गायों को भारतीय संगीत सुनाया तो ज्यादा दूध निकाल लिया या जब ये शोध सामने आएगा कि भारतीय संगीत का असर फ़सलों पर पड़ता है और वे जल्दी-जल्दी बढ़ने लगते हैं तब हम विश्वास करेंगे......क्यों भाई..?ये सब शोध अँग्रेज को भले आश्चर्यचकित कर दे पर अगर ये शोध किसी भारतीय को आश्चर्यचकित करती है तो ये दुःख की बात नहीं है...??

हमारे देश वासियों को लगता है हमलोग कितने पिछडे़ हुए हैं जो हमारे यहाँ छोटे-छोटे घर हैं और दूसरी ओर अँग्रेज तकनीकी विद्या के कितने ज्यानी हैं,वो खुशनसीब हैं जो उनके यहाँ इतनी ऊँची-ऊँची अट्टालिकाएँ(buildings) हैं और इतने बडे़-बडे़ पुल हैं........इसपर मैं अपने देश वासियों से यही कहूँगा कि ऊँचे घर बनाना मजबूरी और जरुरत है उनकी,विशेषता नहीं,, हमलोग बहुत भाग्यशाली हैं जो अपनी धरती माँ की गोद मे रहते हैं विदेशियों की तरह माँ के सर पर चढ़ कर नही बैठते....हमलोगों को घर के छत, आँगन और द्वार का सुख प्राप्त होता है..जिसमें गर्मी में सुबह-शाम ठंडी-ठंडी हवा जो हमें प्रकृति ने उपहार-स्वरुप प्रदान किए हैं उसका आनंद लेते हैं और ठंड में तो दिन-दिन भर छत या आँगन में बैठकर सूर्य देव की आशीर्वाद रुपी किरणों को अपने शरीर में समाते हैं,विदिशियों की तरह धूप सेंकने के लिए नंगा होकर समुन्द्र के किनारे रेत पर लेटते नहीं हैं....

रही बात क्षमता की तो जरुरत पड़ने पर हमने समुन्द्र पर भी पत्थरों का पुल बना दिया था और रावण तो पृथ्वी से लेकर स्वर्ग तक सीढी़ बनाने की तैयारी कर रहा था.....तो अगर वो चाहता तो गगन्चुम्बी इमारतें भी बना सकता था लेकिन अगर नहीं बनाया तो इसलिए कि वो विद्वान था.....

तथ्यपूर्ण बात तो ये है कि हम अपनी धरती माँ के जितने ही करीब रहेंगे रोगों से उतना ही दूर रहेंगे और जितना दूर रहेंगे रोगों के उतना ही करीब जाएँगे...

हमारे मित्रों को इस बात की भी शर्म महसूस होती है कि हमलोग कितने स्वार्थी,बेईमान,झूठे,मक्कार, भ्रष्टाचारी और चोर होते हैं जबकि अँग्रेज लोग कितने ईमानदार होते हैं...हमलोगों के यहाँ कितनी धूल और गंदगी है जबकि उनके यहाँ तो लोग महीने में एक-दो बार ही झाडू़ मारा करते हैं............तो जान लिजिए कि वैज्यानिक शोध ये कहती है कि साफ़-सुथरे पर्यावरण में पलकर बडे़ होने वाले शिशु कमजोर होते हैं,उनके अंदर रोगों से लड़ने की शक्ति नहीं होती है दूसरी तरफ़ दूषित वातावरण में पलकर बढ़ने वाले शिशु रोगों से लड़ने के लिए शक्ति-सम्पन्न होते हैं..इसका अर्थ ये मत लगा लिजिएगा कि मैं गंदगी पसन्द आदमी हूँ,मैं भारत में गंदगी को बढा़वा दे रहा हूँ.......मेरा अर्थ ये है कि सीमा से बाहर शुद्धता भी अच्छी नहीं होती...और जहाँ तक भारत की बात है तो यहाँ हद से ज्यादा गंदगी है जिसे साफ़ करने की अत्यंत आवश्यकता है..रही बात झाड़ू मारने की तो घर गंदा हो या ना हो हमें झाड़ू तो रोज मारना ही चाहिए क्योकि झाड़ू मारकर हम सिर्फ़ धूल-गंदगी को ही बाहर नहीं करते बल्कि अपशकुन को भी झाड़-फ़ुहाड़ कर बाहर कर देते हैं तभी तो हम गरीब होते हुए भी खुश रहते हैं...भारतीय को समृद्धि की सूचि में पाँचवे स्थान पर रखा गया था क्योंकि ये पैसे के मामले में भले कम है लेकिन और लोगों से ज्यादा सुखी हैं......और जहाँ तक हमारे बेईमान बनने का बात है तो वो सब अँग्रेजों और मुसलमानों ने ही सिखाया है हमें नहीं तो उसके आने के पहले हम छल-कपट जानते तक नहीं थे..उन्होंने हमें धर्म-विहिन और चरित्र-विहिन शिक्षा देना शुरु किया ताकि हम हिंदू धर्म से घृणा करने लगे और ईसाई बन जायें....उन्होंने नौकरी-आधारित शिक्षा व्यवस्था लागू कि ताकि बच्चे नौकरी करने की पढा़ई के अलावे और कुछ सोच ही ना पाए.इसका परिणाम तो देख ही रहे हैं कि अभी के बच्चे को अगर चरित्र,धर्म या देशहित के बारे में कुछ कहेंगे तो वो सुनना ही नहीं चाहता है...वो कहता है उसे अभी सिर्फ़ अपने कोर्स की किताब से मतलब रखना है और किसी चीज से कोई मतलब नहीं उसे...अभी की शिक्षा का एकमात्र उद्देश्य नौकरी पाना रह गया है....लोगों को किताबी ज्यान तो बहुत मिल जाता है कि वो डॉक्टर-इंजीनियर,वकील,आई०ए०एस० या नेता बन जाता है पर उसकी नैतिक शिक्षा न्यूनतम स्तर की भी नहीं होती है जिसकारण रोज एक-से-बढ़कर एक अपराध और घोटाले करते रहते हैं ये लोग...अभी की शिक्षा पाकर बच्चे नौकरी पा लेते हैं लेकिन उनका मानसिक और बौद्धिक विकास नहीं हो पाता है,इस मामले में वो पिछडे़ ही रह जाते हैं जबकि हमारी सभ्यता मे ऐसी शिक्षा दी जाती थी जिससे उस व्यक्ति के पूर्ण व्यक्तित्व का विकास होता था..उसकी बुद्धि का विकास होता था,उसकी सोचने-समझने की शक्ति बढ़ती थी.....

आज ये अँग्रेज जो पूरी दुनिया में ढोल पीट रहे हैं कि ईसाईयत के कारण ही वो सभ्य और विकसित हुए और उनके यहाँ इतनी वैज्यानिक प्रगति हुई तो क्या इस बात का उत्तर है उनके पास कि कट्टर और रुढी़वादी ईसाई धर्म जो तलवार के बल पर २५-५० की संख्या से शुरु होकर पूरा विश्व में फ़ैलाया गया,,जो ये कहता हो कि सिर्फ़ बाईबल पर आँख बंदकर भरोसा करने वाले लोग ही स्वर्ग जाएँगे बाँकि सब नर्क जाएँगे,,जिस धर्म में बाईबल के विरुद्ध बोलने की हिम्मत बडा़ से बडा़ व्यक्ति भी नहीं कर सकता वो इतना विकासशील कैसे बन गया..??चार सौ साल पहले जब गैलीलियों ने यूरोप की जनता को इस सच्चाई से अवगत कराना चाहा कि पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करती है तो ईसाई धर्म-गुरुओं ने उसे खम्बे से बाँधकर जीवित जलाए जाने का दण्ड दे दिया .....वो तो बेचारा क्षमा मांगकर बाल-बाल बचा...एक और प्रसिद्ध पोप,उनका नाम मुझे अभी याद नहीं,वे भी मानते थे कि पृथ्वी सूर्य के चारों ओर घूमती है लेकिन जीवन भर बेचारे कभी कहने की हिम्मत नहीं जुटा पाए..उनके मरने के बाद उनकी डायरी से ये बात पता चली...क्या ऐसा धर्म वैज्यानिक उन्नति में कभी सहायक हो सकता है.....?ये तो सहायक की बजाय बाधक ही बन सकता है..हिंदू जैसे खुले धर्म को जिसे गरियाने की पूरी स्वतंत्रता मिली हुई है सबको जिसमें कोई मूर्त्ति-पूजा, करता है कोई ध्यान-साधना कोई तंत्र-साधना कोई मंत्र-साधना....ऐसे अनगिनत तरीके हैं इस धर्म में,जिस धर्म में कोई बंधन नहीं,,जिसमें नित नए खोज शामिल किए जा सकते है और समय तथा परिस्थिति के अनुसार बदलाव करने की पूरी स्वतंत्रता है,जिसने सिर्फ़ पूजा-पाठ ही नहीं बल्कि जीवन जीने की कला सिखाई,वसुधैव कुटुम्बकम का नारा दिया,पूरे विश्व को अपना भाई माना,जिसने अंक शास्त्र,ज्योतिष-शास्त्र,आयुर्वेद-शास्त्र,संगीत-कला,भवन-निर्माण कला,काम-कला आदि जैसे अनगिनत कलाएँ तुमलोगों(ईसाईयों और मुसलमानों) को दी और तुमलोग कृतघ्न, जो नित्य-कर्म के बाद अपने गुदा को पानी से धोना भी नहीं जानते,,हमें ही गरियाकर चले गए,,अगर ईसाई धर्म के कारण ही तुमने तरक्की की तो वो तो १८०० साल पहले कर लेना चाहिए था पर तुमने तो २००-३०० साल पहले जब सबको लूटना शुरु किए और यहाँ(भारत) के ज्यान को सीख-सीखकर यहाँ के धन-दौलत को हड़पना शुरु किए तबसे तुमने तरक्की की...ऐसा क्यूँ..?.ये दुनिया करोडो़ वर्ष पुरानी है लेकिन तुमलोगों को ईसा और मुहम्मद के पहले का इतिहास पता ही नहीं......कहते हो बडे़-बडे़ विशाल भवन बना दिए तुमने.....अरे जाओ जब आज तक पिछवाडा़ धोना सीख ही नहीं पाए,,खाना बनाना सीख ही पाए जो कि अभी तक उबालकर नमक डालकर खाते हो,तो बडे़-बडे़ भवन क्या बनाओगे तुम..एक भी ग्रंथ हैं तुम्हारे पास भवन-निर्माण के...? जो भी छोटे-मोटे होंगे वो हमारे ही नकल किए हुए होंगे........,,प्रोफ़ेसर ओक ने तो सिद्ध कर दिया है कि भारत में जितने भी प्राचीन भवन हैं वो हिन्दू भवन या मंदिर हैं जिसे मुस्लिम शासकों ने हड़प कर अपना नाम दे दिया.....और विश्व में भी जो बडे़-बडे़ भवन हैं उसमें हिंदू शैली की ही प्रधानता है... ये भी हँसी की ही बात है कि मुगल शासक महल नहीं सिर्फ़ मकबरे और मस्जिद ही बनवाया करते थे भारत में...जो हमेशा गद्दी के लिए अपने बाप-भाईयों से लड़ता-झगड़ता रहता था,अपना जीवन युद्ध लड़ने में बिता दिया करते थे उसके मन में अपने बाप या पत्नी के लिए विशाल भवन बनाने का विचार आ जाया करता था...!!इतना प्यार करता था अपनी पत्नी से जिसको बच्चा पैदा करवाते करवाते मार डाला उसने...!!मुमताज की मौत बच्चा पैदा करने के दौरान ही हुई थी और उसके पहले वो १४ बच्चे को जन्म दे चुकी थी......जो भारत को बर्बाद करने के लिए आया था,यहाँ के नागरिकों को लूटकर,लाखों-लाख हिंदुओं को काटकर और यहाँ के मंदिर और सांस्कृतिक विरासत को तहस-नहस करके अपार खुशी का अनुभव करता था वो यहाँ कोई सृजनात्मक कार्य करे ये तो मेरे गले से नहीं उतर सकता....जिसके पास अपना कोई स्थापत्य कला का ग्रंथ नहीं है जो भारत की स्थापत्य कला को देखकर ये कहने को मजबूर हो गया था कि भारत इस दुनिया का आश्चर्य है,इसके जैसा दूसरा देश पूरी दुनिया में कहीं नहीं हो सकता है वो लोग अगर ताजमहलबनाने का दावा करता है तो ये ऐसा ही है जैसे ३ साल के बच्चे द्वारा दशवीं का प्रश्न हल करना...दुःख तो ये है कि देश आजाद होने के बाद भी मुसलमानों को खुश रखने के लिए इतिहास में कोई सुधार नहीं किए हमारे मुसलमान और ईसाई भाईयों के मूत्र-पान करने वाले हमारे राजनीतिक नेताओं ने......आज जब ये सिद्ध हो चुका है कि ताजमहल शाजहाँ ने नहीं बनवाया बल्कि उससे सौ-दो सौ साल पहले का बना हुआ है तो ऐसे में अगर सरकार सच्चाई लाने की हिम्मत करती तो क्या हम भारतीय गर्व का अनुभव नहीं करते...?क्या हमारी हीन भावना दूर होने में मदद नहीं मिलती...?ताजमहल सात आश्चर्यों में से एक है ये सब जानते हैं पर सात आश्चर्यों में ये क्यों शामिल है ये कितने लोग जानते हैं...?इसके शामिल होने का कारण है इसकी उत्कृष्ट स्थापत्य कला...इसकी अद्भुत कारीगरी को अब तक आधुनिक इंजीनियर समझने की कोशिश कर रहे हैं..जिस प्रकार कुतुबमीनार के लौह-स्तम्भ की तकनीक को समझने की कोशिश कर रहे हैं जो कि अब तक समझ नहीं पाए हैं.(इस भुलावे में मत रहिएगा कि कुतुबमीनार को कुतुबुद्दीन एबक ने बनवाया था)मोटा-मोटी तो मैं इतना ही जानता हूँ कि यमुना नदी के किनारे के गीली मुलायम मिट्टी को इतने विशाल भवन के भार को सहन करने लायक बनाना,पूरे में सिर्फ़ पत्थरों का काम करना समान्य सी बात नहीं है...इसको बनाने वाले इंजीनियर के इंजीनिरिंग प्रतिभा को देखकर अभी के इंजीनियर दाँतों तले अपनी उँगली दबा रहे हैं...अगर ये सब बातें जनता के सामने आएगी तभी तो हम अपना खोया हुआ आत्मविश्वास प्राप्त कर पाएँगे....१२०० सालों तक हमें लूटते रहे लूटते रहे लूटते रहे और जब लूट-खसोट कर कंगाल बना दिया तब अब हमें एहसास करा रहे हो कि हम कितने दीन-हीन हैं और उपर से हमें इतिहास भी गलत ही पढा़ रहे हो इस डर से कि कहीं फ़िर से अपने पूर्वजों का गौरव इतिहास पढ़कर हम अपना आत्म-विश्वास ना पा लें.....! अरे अगर हिम्मत है तो एक बार सही इतिहास पढा़कर देखो हमें.....हम स्वभिमानी भारतीय जो सिर्फ़ अपने वचन को टूटने से बचाने के लिए जान तक गँवा देते थे इतने दिनों तक दुश्मनों के अत्याचार सहते रहे तो ऐसे में हमारा आत्म-विश्वास टूटना स्वभाविक ही है...हम भारतीय जो एक-एक पैसे के लिए ,अन्न के एक-एक दाने के लिए इतने दिनों तक तरसते रहे तो आज अगर हीन भावना में डूब गए,लालची बन गए,स्वार्थी बन गए तो ये कोई शर्म की बात नहीं...ऐसी परिस्थिति में तो धर्मराज युधिष्ठिर के भी पग डगमगा जाएँ ...आखिर युधिष्ठिर जी भी तो बुरे समय में धर्म से विचलित हो गए थे जो अपनी पत्नी तक को जुएँ में दाँव पर लगा दिए थे.....!

चलिए इतिहास तो बहुत हो गया अब वर्त्तमान पर आते हैं...--------

वर्त्तमान में आपलोग देख ही रहे हैं कि विदेशी हमारे यहाँ से डॉक्टर-इंजीनियर और मैनेजर को ले जा रहे हैं...इसलिए कि उनके पास हम भारतीयों की तुलना में दिमाग बहुत ही कम है...आपलोग भी पेपरों में पढ़ते रहते होंगे कि अमेरिका में कभी अमेरिका में गणित पढा़ने वाले शिक्षकों की कमी हो जाती जिसके लिए वो भारत से शिक्षक की मांग करते हैं तो कभी ओबामा भारतीय बच्चों की प्रतिभा से कर डर कर अमेरिकी बच्चों को सावधान होने की नसीहत देते हैं... पूर्वजों द्वारा लूटा हुआ माल है तो अपनी कम्पनी खडी़ कर लेते हैं लेकिन दिमाग कहाँ से लाएँगे.....उसके लिए उन्हें यहीं आना पड़ता है...हम बेचारे भारतीय गरीब पैसे के लालच में बडे़ गर्व से उनकी मजदूरी करने चले जाते थे पर अब परिस्थिति बदलनी शुरु हो गयी है अब हमारे युवा भी विदेश जाने के बजाय अपने देश की सेवा करना शुरु कर दिए हैं..वो दिन दूर नहीं जब हमारे युवाओं पर टिके विदेशी फ़िर से हमारे गुलाम बनेंगे...फ़िर से इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि पूरे विश्व पर पहले हमारा शासन चलता था जिसका इतिहास मिटा दिया गया है....लेकिन जिस तरह सालों पहले हुई हत्या जिसकी खूनी ने अपने तरफ़ से सारे सबूत मिटा देने की भरसक कोशिश की हो,,उसकी जाँच अगर की जाती है तो कई सुराग मिल ही जाते हैं जिससे गुत्थी सुलझ ही जाती है...बिल्कुल यही कहानी हमारे इतिहास के साथ भी है..... जिस तरह अब हमारे युवा विदेशों के करोडो़ रुपए की नौकरी को ठुकराकर अपने देश में ही इडली,बडा़ पाव सब्जी बेचकर या चलित शौचालय,रिक्शा आदि का कारोबार कर करोडो़ रुपए सलाना कमा रहे है...ये संकेत है कि अब हमारे युवा अपना खोया आत्म-विश्वास प्राप्त कर रहे हैं और उनमें नेतृत्व क्षमता भी लौट चुकी है तो वो दिन दूर नहीं जब पूरे विश्व का नेतृत्व फ़िर से हम भारतीयों के हाथों में होगा और हम पुनः विश्वगुरु के सिंहासन पर आसीन होंगे.....भारतीय प्रतिभा के धनी होते हैं बस अभी हमें पर्याप्त साधन उपलब्ध नहीं हो पा रहे हैं..जितनी सुविधा अँग्रेजों को मिलती है उसका अगर एक चौथाई भी भारतीयों को मिल जाय तो इसके सामने किसी की एक ना चले.....इसका उदाहरण भी है कि कुछ दिन पहले अमेरिका में एक सर्वे में देखने को मिला था जिसमें अमेरिका के नागरिकों को आय के आधार पर बाँटा गया था..उसमें सबसे उपर एक लाख डालर से ज्यादा आय वाले वर्ग में ४६% यहूदी और ४३% हिंदू हैं..(ये यहूदी वही यदु वंश के लोग हैं जो महाभारत के भयानक युद्ध के बाद जब यहाँ की धरती आण्विक विकिरणों से पूरी तरह दूषित हो गयी थी तो यहाँ की धरती को छोड़कर विश्व के अन्य भागों में जाकर बस गए थे) फ़िर ७५,००० से एक लाख की सूची में भी सबसे ज्यादा हिंदू ही थे २२%और नीचे से दो पायदानों ३०,००० से कम आय वालों में ईसाई ४७% और मुस्लिम ३५% थे.इस सूची में हिंदु केवल ९% थे...-ऐसे अनगिनत उदाहरण हैं जब अवसर मिला है तो भारतीयों ने अपने आप को श्रेष्ठ साबित कर दिया है...फ़िर भी भारत में रहने वाले हम भारतीय हीन भावना से उबर नहीं पाते....बहुत लोग बोलते हैं कि विदेशी कितने लम्बे-चौडे़ शरीर वाले होते हैं और हम भारतीय कितने दुबले-पतले छोटे शरीर वाले....!!मै उनसे यही कहूँगा कि भगवान ने विशाल शरीर दानवों को दिया था,,मानवों को तो उसने बुद्धि दी थी और बुद्धि बल शारीरिक बल से श्रेष्ठ होता है ये सभी जानते हैं...दानवों में सिर्फ़ शारीरिक बल था पर ना तो उसके पास चरित्र बल था और ना ही बुद्धि क्योंकि शारीरिक बल चरित्र और बुद्धि का दुश्मन होता है दूसरी तरफ़ मानवों में शारीरिक बल भले बहुत कम था पर इसमें चरित्र बल और बुद्धि बहुत ज्यादा थी देवताओं से भी ज्यादा...ये भी सार्वभौमिक सत्य(Universal truth) है कि जिसका आकार जितना बढ़ता जाता है उसका गुण भी घटता जाता है....इसकी पुष्टि आप अपने आस-पास ही कर लिजिए - -देशी फ़ल और सब्जियाँ भले आकार में छोटी होती हैं पर काफ़ी स्वादिष्ट होते हैं दूसरी तरफ़ विदेशी फ़ल आकार में भले ही बडे़ होते हैं पर स्वाद के मामले में लगभग शून्य ही होते है...देशी गाय या मुर्गे की ही तुलना करके देख लिजिए...भारतीय देशी गाय दूध भले ही कम दे पर उसकी गुणवत्ता के सामने किसी और दूध की तुलना ही नहीं है...आप किसी भी पशु-पक्षी में देख लो कि हमारे देशी कितने गुणी और अंदर से कितने मजबूत होते हैं...उनमें रोगो-वोग भी जल्दी नहीं होते पर विदेशी पशु-पक्षी को देख लो..एक बच्चे की तरह लालन-पालन किया जाता है फ़िर भी क्या हाल है उनका.....!!बर्ड-फ़्लू जैसा भयानक रोग हमारे मुर्गे-मुर्गी में तो नहीं फ़ैला कभी....!!इनसब को देखकर आप आदमियों का भी अंदाजा लगा सकते हो..........

चलिए कुछ और तथ्य भारतीयों की महानता के बारे में

 विश्व के १० शीर्ष धनी व्यक्तियों में ४ भारतीय हैं.लक्ष्मी मित्तल जो विश्व में पाँचवे हैं वो इंग्लैण्ड में पहले स्थान पर यनि सबसे ज्यादा धनी व्यक्ति हैं..और जहाँ तक मैं जानता हूँ तो बहुत दिन से वो इस स्थान पर हैं..

 विश्व का सबसे महँगा घर मित्तल जी का ही है जो इंगलैण्ड में बना हुआ है जिसकी कीमत ७०करोड़ पॉण्ड है...

 Hp (कमप्युटर बनाने वाली कम्पनी) के जेनेरल मैनेजर राजीव गुप्ता हैं जो भारतीय हैं...

 पेंटियम चिप(Pentium chip) जिस पर अभी ९०% कमप्युटर काम करते हैं के निर्माता विनोद दह्म हैं(ये भी भारतीय हैं)

 हॉटमेल(hotmail) के संस्थापक(founder)और निर्माता( creator) सबीर भाटिया भारतीय ही हैं...

 अमेरिका के ३८% डॉक्टर और १२% वैज्यानिक भारतीय हैं..(आज से ६-७ साल पहले मैंने किसी पत्रिका में ये आँकडा़ ५०% देखा था कि अमेरिका में ५०% डॉक्टर और वैज्यानिक भारतीय मूल के हैं..)

 पूरे विश्व में भारतीयों की स्थिति.- IBM में नौकरी करने वालों में २८% "intel"में १७% "NASA"में ३६% और Microsoft में ३४%

 Sun Microsystems" के सह-संस्थापक--विनोद खोसला

 फ़ॉर्चून मैग्जीन के नए रिपोर्ट के अनुसार अजीज प्रेमजी दुनिया के तीसरे धनी व्यक्ति हैं जो विप्रो के CEO हैं..

 AT & T-Bell जो कि C,C++ जैसे कमप्युटर भाषा के निर्माता हैं के अध्यक्ष --अरुण नेत्रावाली

 Microsoft Testing Director of window 2000 ---- - सन्जय तेजव्रिका

1. Chief Executive of CitiBank,Mckensey & Stanchart--- Victor Menezes,Rajat Gupta & Rana Talwar..

आईटी क्षेत्र में तो भारत नम्बर एक है ही पर किसी भी क्षेत्र में आप देख लो १ से १० में होंगे ही..एविएशन क्षेत्र में नौवें पर मध्यम तथा भारी वाहनों में चौथे पर कार में ग्यारहवाँ दोपहिया और तीनपहिया में एशिया में पहले स्थान पर ...

अमेरिका और जापान के बाद भारत ही ऐसा देश है जिसने खुद से सुपर कमप्युटर का निर्माण किया है.



इस तरह एक-एक कर भारत की वर्त्तमान उपलब्धियों को गिनाना संभव नहीं है


चलिए अब कुछ पौराणिक उपलब्धियाँ--

 शतरंज का आविष्कार भारत में ,

 दुनिया को दशमलव पद्धति,अंक पद्धति,आधारीय पद्धति का ज्यान हमने दिया..

 दुनिया को शून्य(आर्यभट्ट) का ज्यान हमने दिया...

 बीजगणित(algebra),त्रिकोणमिति जिससे जिसको अँग्रेज ट्रिगोनोमेट्री(trigonometry) कहते हैं,कलन गणित जिसका अँग्रेजी में नामकरण हो गया केलकुलस(calculas)...ये सारी चीजें विश्व को भारतीयों की ही देन हैं....द्विघातीय समीकरण श्रीधराचार्य ने ११वीं सदी में ही दिया था..ग्रीक या रोम वाले सबसे बडी़ संख्या 10*6(ten to the power six) तक का ही उपयोग कर पाए थे और वर्त्तमान में भी10*12 तक का ही जिसे टेरा कहा जाता है जबकि हमलोगों ने 10*53 का उपयोग किया था,इसका भी विशेष नाम है.(पर वो विशेष नाम मुझे नहीं पता इसलिए नहीं लिखे)

 आज जिसे पाइथागोरस सिद्धांत का नाम दिया जाता है या ग्रीक गणितज्यों की देन कहा जाता है वो सारे भारत में बहुत पहले से उपयोग में लाए जा रहे थे....इसमेम कौन सी बडी़ बात है अगर ये कहा जाय कि उनलोगों ने यहाँ से नकल कर अपनी वाहवाही लूट ली...

 पाई का मान सबसे पहले बुद्धायन ने दिया था पाइथागोरस से कई सौ साल पहले..

 अपनी कक्षा में पृथ्वी द्वारा सूर्य की परिक्रमा करने की अवधि हमारे गणितज्य भष्कराचार्य ने हजारों साल पहले ही दे दिया था जो अभी से ज्यादा शुद्ध है........365.258756484 दिन

 विश्व का पहला विश्वविद्यालय तक्षशिला में स्थापित हुआ था ७००ईसा पूर्व जिसमें पूरे विश्व के छात्र पढ़ने आया करते थे तभी तो इसका नाम विश्वविद्यालय पडा़...(इसी विश्वविद्यालय को अँग्रेजी में अनुवाद करके यूनिवर्सिटी नामकरण कर लिया अँग्रेजों ने..)इसमें ६० विषयों की पढा़ई होती थी..इसके बाद फ़िर ३००साल बाद यानि ४०० ईसा पूर्व नालंदा में एक विश्वविद्यालय खुला था जो शिक्षा के क्षेत्र में भारतीयों की महान उपलबद्धि थी.. {*{एक मुख्य बात और कि हमारे महान भारतीय परम्परा के अनुसार चिकित्सा और शिक्षा जैसी मूलभूत चीजें मुफ़्त दी जाती थी इसलिए इन विश्वविद्यालयों में भी सारी सुविधाएँ मुफ़्त ही थी,,रहने खाने सब चीज की...इसमें प्रतिस्पर्द्धा के द्वारा बच्चों को चुना जाता था..इस विश्वविद्यालय की महानता का अंदाजा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि यहाँ पढ़ने को इच्छुक अनगिनत छात्रों को दरबान से शास्त्रार्थ करके ही वापस लौट जाना पड़ता था..आप सोच सकते हैं कि जिसके दरबान इतने विद्वान हुआ करते थे उसके शिक्षक कितने विद्वान होते होंगे...यहाँ के पुस्तकालय में इतनी पुस्तकें थी कि जब फ़िरंगियों नेर इसमें आग लगा दी तो सालों साल तक ये जलता ही रहा..

 सभी यूरोपीय भाषाओं की जननी संस्कृत है.और १९८७ ई० में फ़ोब्स पत्रिका ने ये दावा किया था कि कमप्युटर लैंग्वेज की सबसे उपयुक्त भाषा संस्कृत है....

 मनुष्यों द्वारा ज्यात जानकारी में औषधियों का सबसे प्राचीन ग्रंथ आयुर्वेद जिसे चरक जी ने २५००ई०पूर्व संग्रहित किया था.उन्हें चिकित्सा-शास्त्र का पिता भी कहा जाता है..{*{पर हमारे धर्मग्रंथ के अनुसार तो आयुर्वेद हजारों करोडो़ साल पहले धन्वन्तरि जी लेकर आए थे समुंद्र-मंथन के समय}*}

 शल्य चिकित्सा{[अभी इसी शल्य का नाम सर्जरी(surgery) हो गया है अँग्रेजी में]} का पिता शुश्रुत को कहा जाता है..२६०० साल पहले ये और इसके सहयोगी स्वास्थ्य वैज्यानिक जटिल से जटिल ऑपरेशन किया करते थे जैसे-सिजेरियन(ऑपरेशन द्वारा प्रसव),,कैटेरेक्ट(आँखों का आपरेशन),क्रित्रिम पैर,टूटी हड्डी जोड़ना,मूत्राशय का पत्थर..इन सबके अलावे मस्तिष्क की जटिल शल्य क्रिया तथा प्लास्टिक सर्जरी भी.......१२५ से ज्यादा प्रकार के साधनों का उपयोग करते थे अपने शल्य-क्रिया के लिए वे..इसके अलावे भी उन्हें इन सब चीजों की भी गहरी जानकारी थी..--anatomy(जंतुओं और पादपों की संरचना का ज्यान),,physiology(प्राणियों के शरीर में होने वाली सभी क्रियाओं का विज्यान),etiology(रोग के कारण का विज्यान),embryology(भ्रूण-विग्यान),metabolism,पाचन,जनन,प्रतिरक्षण आदि आदि...सीधे-सीधी कहूँ तो चिकित्सा सम्बंधी शायद ही ऐसा कोई ज्यान हो जो भारतीयों को ज्यात ना होगा..ये उतना विकसित था जितना अभी भी नहीं है...हमलोगों की एक कथा के अनुसार तो च्यवन ऋषि जडी़-बूटी का सेवन करके वृद्ध से युवक बन गए थे जिसके नाम पर अभी भी च्यवन-प्राश बाजार में बेचा जा रहा है...

 पाँच हजार साल पहले जब अन्य देशों में लोग जंगली बने हुए थे उस समय हमारे यहाँ सिंधु घाटी और हड़प्पा की संस्कृति काफ़ी उन्नत अवस्था में थी..(हलांकि प्रमाण भले ही ५००० साल पहले तक का उपलब्ध हो पर हमारी सभ्यता-संस्कृति इससे भी पुरानी है)

 ६००० साल पहले सिंधु नदी के किनारे नेविगेशन(समुंद्री यातायात या परिवहन) का विकास हो चुका था..उस समय सारे विश्व को विशाल बरगद वृक्ष के लकडी़ का नाव बनाकर भारत ही दिया करता था....ये शब्द नेविगेशन संस्कृत के नवगातिह से बना है..नौसेना जिसका अँग्रेजी शब्द नेवी(navy) है वो भी हमारे संस्कृत शब्द nau (नौ) से बना है..

 सबसे पहला नदी पर बाँध सौराष्ट्र में बना था...इससे पहले के इतिहास का साक्ष्य भले ना हो पर ये सब कला इससे भी काफ़ी पुरानी है..अज भले ही भारत की प्राचीन उपलब्धियों को गिनाना पड़ रहा है क्योंकि काफ़ी लम्बे सालों के प्रयास से दुश्मनों ने इसे लगभग विलुप्त कर दिया गया है नहीं तो इसे गिनाने की जरुरत नहीं पड़ती फ़िर भी अभी भी ये संभव नहीं है कि कोई हमारी उपलब्धियों को १०-१५ वाक्य लिखकर गिना दे..ये तो अनगिनत हैं.......


अभी सब भारत को भले ही गरीब-गरीब कहकर मजाक उडा़ ले पर उस समय सारा विश्व इसपे अपनी नजरें गडा़ए रहता था..कोलंबस और वास्कोडिगामा भारत के बेशुमार धन को ही देखकर ही तो लालच में पड़ गया था तभी तो उस दुष्कर अनजान यात्रा पर निकल पडा़ जिसमें अगर उसका भाग्य ने साथ ना दिया होता तो जीवन भर समुंद्र में ही भटक-भटक कर अपने प्राण गँवा देता...और मैंने तो ये भी सुना है कि अँग्रेज १७ दिन तक या शायद एक-डेढ़ महीने तक सोना ढोता रहा था फ़िर भी यहाँ का सारा सोना इंग्लैण्ड ना ले जा पाया..वैसे छोडि़ए अँग्रेजों की बात को ये तो साले चोर-डकैत होते ही हैं अभी भले हमलोगों को चोर-डकैत कहता रहता है....बात करते हैं हमारे धर्मराज युधिष्ठिर की जिन्होंने राजसूय यज्य में सैकडो ब्राह्मणों को सोने की थाली में भोजन करवाया था और फ़िर वो थाली उन्हें दान में दे दी थी....और ये अँग्रेज जब हमलोगों को लूट रहे थे उस समय वो असभ्य,बहशी,लूटेरा,लालची,चोर-डकैत नहीं था अब जब हमलोगों के पास कुछ बचा नहीं लूटने को और उसके पास धन-दौलत का ढेर लग गया तो उसे डर लगने लगा कि कहीं उससे लूटा हुआ धन हमलोग छीन ना लें तो हमलोग को चोर-बदमाश कहकर बदनाम करने लगे...अभी अब शरीफ़ और सभ्य बनते हो....ये तो वही बात हुई कि १०० चूहे खाकर बिल्ली(जो अब शिकार करने में अक्षम हो गयी हो)हज करने को चली.......



चलिए अब कुछ उदार विदेशियों द्वारा भारत की महानता की स्वीकोरोक्ति---

 आइंस्टीन जी ने कहा था कि हमलोग भरतीयों के कृतघ्न हैं जिसने हमें अंकशास्त्र के ज्यान दिए नहीं तो कोई भी वैज्यानिक खोज या सिद्धान्त संभव ना हो पाता..

we owe a lot to the indians,who taught us how to count,without which no wortwhile scientific discovery could have been made...

 मार्क ट्वैन जिसने कहा था कि सारे ज्यान के खजाने भारत में ही हैं और मानव का इतिहास,भाषा और परम्परा का जन्म स्थान भारत ही है....

India is the credal of the human race,the birthplace of human speech,the mothr of history,the grandmother of legend,and the great grandmother of tradition.our most valuable and most instructive materials in the history of man are treasured up in India only...

 हु शिह,चीन का भूतपूर्व राजदूत जिन्होंने अमेरिका को कहा था कि भारत ने चीन को २००० साल पहले ही जीत लिया है..भारत की सभ्यता ने चीन की सभ्यता पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया है जिसके लिए उसे एक सैनिक का भी उपयोग नहीं करना पडा़.........तो भई चीन ही क्या,,चीन जापान थाईलैण्ड जितने भी बौद्ध देश हैं सबको ज्यान बुद्ध ने दिया और उस बुद्ध को ज्यान हमने दिया..आखिर बुद्ध जी ने यहीं से तो ज्यान प्राप्त किए थे और यहीं की तो सभ्यता संस्कृति ले गए थे....

 फ़्रेंच विद्वान रोमैन रोनाल्ड का कथन--जबसे मनुष्य का अस्तित्व इस पृथ्वी पर आया तबसे अगर उसके सपने साकार होने शुरु हुए तो वो जगह पृथ्वी पर ये भारत ही है....—

if there is one place on the face of earth where all the dream of living men have found a home from the very earliest days when man began the dream of existence,it is India..



आज भारतीयों की मनःस्थिति ही ऐसी हो गयी कि अपना लोग कितना भी कोछ बोल ले उसपर तब तक प्रभाव नहीं पड़ता है जबतक कि बाहर वाला उसका समर्थन ना कर दे भले ही वो बाहर वाला हमारे अपने की तुलना में कितना ही कम अनुभवी या ज्यानी क्यों ना हो इसलिए इन विदेशियों का उदाहरण देना पडा़....


जिस तरह हरेक के लिए दिन के बाद रात और रात के बाद दिन आता है वैसे हमलोगों के १२०० सालों से ज्यादा रात का समय कट चुका है अब दिन निकल आया है...इसका उदाहरण देख लो मित्र कि झारखण्ड राज्य की जनसँख्या ३ करोड़ की नहीं है और यहाँ ४००० करोड़ का घोटाला हो जाता है फ़िर भी ये राज्य प्रगति कर रहा है..इसलिए अपने पराधीन मानसिकता से बाहर बाहर आओ,डर को निकालो अपने अंदर से.हमें किसी दूसरे का सहारा लेकर नहीं चलना है..खुद हमारे पैर ही इतने मजबूत हैं कि पूरी दुनिया को अपने पैरों तले रौंद सकते हैं हम..हम वही हैं जिसने विश्वविजेता का सपना देखने वाले सिकंदर का दम्भ चूर-चूर कर दिया था गौरी को १६ बार अपने पैरों पर गिराकर गिड़गिडा़ने को मजबूर किया और जीवनदान दिया जिस प्रकार बिल्ली चूहे के साथ खेलती रहती है वैसे ही,,ये तो दुर्भाग्य था हमारा जो शत्रु के चंगुल में फ़ँस गए क्योंकि उस चूहे ने अपने ही की सहायता ले ली पर हमने उसे छोडा़ नहीं,अँधा हो जाने के बावजूद भी उसे मारकर मरे... जिसप्रकार जलवाष्प की नन्हीं-नन्हीं पानीं की बूँदे भी एकत्रित हो जाने पर घनघोर वर्षा कर प्रलय ला देती है,अदृश्य हवा भी गति पाकर भयंकर तबाही मचा देता है,नदी-नाले की छोटी लहरें नदी में मिलकर एक होती हैं तो गर्जना करती हुई अपने आगे आने वाली हरेक अवरोधों को हटाती हुई आगे बढ़ती रहती है वैसे ही मैं अभी भले ही जलवाष्प की एक छोटी सी बूँद हूँ पर अगर आपलोग मेरा साथ दो तो इसमें कोई शक नहीं कि हम



भारतीय फ़िर से इस दुनिया को अपनी चरणों में झुका देंगे........



और मुझे पता है दोस्त,,, मेरे जैसे करोडो़ बूँदें एकीकृत होकर बरसने को बेकरार हैं इसलिए अब और ज्यादा विलम्ब ना करो और मेरे हाथ में अपना हाथ दो मित्र............



Why is there a Poison Warning on Toothpaste?

source of DATA:  http://www.fluoridealert.org/toothpaste.html

Fluoride Action Network




January 2005
Don't Swallow Your Toothpaste



As of April 7th, 1997, the United States FDA (Food & Drug Administration) has required that all fluoride toothpastes sold in the U.S. carry a poison warning on the label. The warning cautions toothpaste users to:


"WARNING: Keep out of reach of children under 6 years of age. If you accidentally swallow more than used for brushing, seek professional help or contact a poison control center immediately."

Why the Need for a Warning?


One of the little-known facts about fluoride toothpaste, is that each tube of toothpaste - even those specifically marketed for children - contains enough fluoride to kill a child.

As detailed below, most "Colgate for Kids" toothpastes - with flavors ranging from bubble gum to watermelon - contain 143 milligrams (mg) of fluoride in each tube. This dose of fluoride is more than double the dose (60 mg) that could kill the average-weighing 2 year old child. It is also greater than the dose capable of killing all average weighing children under the age of 9.

Fortunately, however, toothpaste-induced fatalities have been rarely reported in the US. In a review of Poison Center Control reports between 1989 and 1994, 12,571 reports were found from people who had ingested excess toothpaste. Of these calls, 2 people - probably both children - experienced "major medical outcomes", defined as "signs or symptoms that are life-threatening or result in significant residual disability or disfigurement" (SOURCE: Shulman 1997).



Toothpaste could Kill your Child
"Colgate for Kids"toothpaste which, if swallowed, could Kill***

Age of Child   Average Weight   Colgate for Kids      * Dose of Fluoride Percent of


2 years          ~12 kg              60 mg                ~42% of tube

3 years          ~15 kg             75 mg                 ~53% of tube

4 years          ~16 kg             80 mg                 ~56% of tube

5 years         ~ 18 kg             90 mg                  ~63% of tube

6 years          ~20 kg             100 mg                ~70% of tube

7 years          ~22 kg             110 mg                ~77% of tube

8 years          ~25 kg             125 mg                ~87% of tube

9 years         ~28 kg              140 mg                ~98% of tube

*Average weight data obtained here

** Potentially fatal dose = 5 mg of fluoride per kg of bodyweight. This is "the minimum dose that could cause toxic signs and symptoms, including death, and that should trigger immediate therapeutic intervention and hospitalization... This does not mean that doses lower than 5.0 mg F/kg should be regarded as innocuous." (SOURCE: Journal of Dental Research 1987; 66:1056-1060.)

*** The fluoride concentration in Colgate for Kids toothpaste is 1,100 ppm. At 130 grams of paste in the average tube, this equals 143 milligrams of fluoride.



Other problems with fluoride toothpaste

As common sense might indicate, death is not the only concern with fluoride toothpaste. Other potential problems with fluoride toothpaste include:

Gastric Problems

Ingestion of fluoride has been documented to produce symptoms of gastrointestinal discomfort at doses at least 15 to 20 times lower (0.2-0.3 mg/kg) than the doses which can kill (SOURCE: Gessner 1994; Akiniwa 1997). Thus, a 2 year old child may experience gastrointestinal ailments if they ingest a mere 2 to 3 percent of the bubble-gum flavored paste.

Between 1989 and 1994, over 628 people - mostly children - were treated at health care facilities after ingesting too much fluoride from their toothpaste. Gastrointestinal symptoms appear to be the most common problem reported (SOURCE: Shulman 1997).

Moreover, ingestion of fluoride toothpaste may damage the lining of the gastrointestinal tract - even in the absence of symptoms (e.g. nausea). This was revealed by a carefully conducted study on healthy adult volunteers which found that damage to the gastrointestinal wall occurred - in the absence of symptoms - after a single ingestion of just 3 mg of fluoride (SOURCE: Spak 1990). Undoubtedly, some children will periodically ingest 3 mg of fluoride, or more, from toothpaste in single sittings, especially if they have access to the bubble-gum flavored varieties (which are still being heavily marketed for children).

Dental Fluorosis

One of the most visible and well-recognized side-effects of ingesting fluoride toothpaste is a discoloration of teeth called dental fluorosis. Fluoride produces dental fluorosis by damaging the cells (ameloblasts) which produce the tooth's enamel. The resulting discoloration of teeth can range from white spots in the mild forms of the disorder to brownish and black stains in the the moderate and severe forms. (See pictures here)

Children with dental fluorosis - particularly those with the moderate or severe kinds - can experience significant esteem problems from the perceived unattractiveness of their teeth. As one young girl with dental fluorosis told British television:


"When I first saw that my teeth were discolored, I was teased quite a lot, especially in the middle school by people. They used to say, 'oh you don't clean your teeth or anything' and they used to call me 'shit teeth' which did upset me, even though I knew it was fluorosis."

Being that dental fluorosis is such a visible and tangible effect of over-exposure to fluoride, toothpaste companies are becoming increasingly vulnerable to litigation as public awareness of dental fluorosis increases. As a possible harbinger of what lies ahead for the industry, a family in England won a settlement from Colgate to pay for the costs of treating the dental fluorosis which their toothpaste caused.

Increasing Children's Daily Intake of Fluoride beyond Recommended Levels

Since young children do not have well-developed swallowing reflexes, they tend to swallow a large percentage of the toothpaste placed on their brush. In fact, one of the more consistent findings in the recent dental literature, is that some children - even children living in unfluoridated communities - ingest more fluoride from toothbrushing alone than is recommended as the total daily exposure. As noted by Dr. Steven Levy, of the University of Iowa:



"Virtually all authors have noted that some children could ingest more fluoride from dentrifice alone than is recommended as a total daily fluoride ingestion" (SOURCE: Levy 1999).

It is clear therefore that fluoride toothpaste represents a very important source of ingested fluoride for children. The use of fluoride toothpaste may thereby contribute to the various health risks (e.g. dental fluorosis, bone fractures, bone cancer, neurotoxicity) associated with systemic fluoride exposure.


Allergic Reactions

Among some 'hypersensitive' individuals, the use of fluoride toothpaste may produce canker sores and skin rashes in and around the mouth. The evidence pointing to this possibility is compelling, but has received scant attention from the dental community.

Periodontal Disease?

Another potential side effect of fluoride toothpaste has only recently come to light. Research conducted in the 1990s from the US pharmaceutical company Sepracor indicated that the levels of fluoride in toothpaste may be sufficient to cause or contribute to periodontal bone loss. Sepracor's finding is serious because periodontal bone loss is the #1 cause of tooth loss among adults. According to the scientists at Sepracor who conducted the study:



"We have found that fluoride, in the concentration range in which it is employed for the prevention of dental caries, stimulates the production of prostaglandins and thereby exacerbates the inflammatory response in gingivitis and periodontitis.... Thus, the inclusion of fluoride in toothpastes and mouthwashes for the purpose of inhibiting the development of caries [cavities] may, at the same time, accelerate the process of chronic, destructive periodontitis."

Europe: Taking a More Cautious Approach than U.S.

As with water fluoridation, continental western Europe has taken a more precautionary approach with fluoride toothpaste than has so far been the case in the United States.

Due to concerns about children ingesting too much fluoride from toothpaste, many European countries are now utilizing children's toothpastes with significantly lower levels of fluoride (250 - 500 ppm) than adult brands (1,000 ppm+). In the US, meanwhile, the vast majority of children's toothpastes continue to have the same concentration of fluoride (1,000 ppm+) as adult toothpastes (1,000 ppm+).

Interestingly, "despite" the fact that the vast majority of western Europe does not fluoridate its water, and despite the fact that children's toothpaste with lower fluoride levels are more common, Europe's tooth decay rates are as low - if not lower - than the tooth decay rates in the heavily fluoridated United States.

References:

Akiniwa, K. (1997). Re-examination of acute toxicity of fluoride. Fluoride 30: 89-104.



Gessner BD, et al. (1994). Acute fluoride poisoning from a public water system. New England Journal of Medicine 330:95-9.



Levy SM, Guha-Chowdhury N. (1999). Total fluoride intake and implications for dietary fluoride supplementation. Journal of Public Health Dentistry 59: 211-23.



Spak CJ, et al. (1990). Studies of human gastric mucosa after application of 0.42% fluoride gel. Journal of Dental Research 69:426-9.

Shulman JD, Wells LM. (1997). Acute fluoride toxicity from ingesting home-use dental products in children, birth to 6 years of age. Journal of Public Health Dentistry 57: 150-8.

Whitford GM. (1987). Fluoride in dental products: safety considerations. Journal of Dental Research 66: 1056-60.



Fluoride Action Network
802-338-5577
info@fluoridealert.org


                                              Pictures of Dental Fluorosis



















शोभा सिंह और शादीलाल


sir shadi lal



                                                               sir shobha singh

“अंकल जाओ ना” ! कभी गुस्से में वह बोल देती है, जब मेरा दिमाग नहीं चलता तो उस लड़की से पूछता हूँ, उससे ही दिमाग चलने लगता है । एक बार उसने चाय पिलाई – मुझे वह लड़की बहुत पसंद है इसका कोई गलत अर्थ न ले जब तक कुछ नहीं होता उसी से मुझे प्रेरणा मिलती है, इस प्रेरणा के भी बड़े अलग अलग नियम है बहुत सारी लड़कियों से ‘प्रेम करने’के बाद भी मैं चरित्रहीन नहीं रहा , चलिये एक दृश्य का किस्सा सुन लीजिये दिल्ली की एक प्रमुख कवियित्रि से मेरा प्रेम चल रहा था कि मैं दिल्ली गया । जनपथ होटल में ठहरा उसने दिल्ली के सारे पाँच सितारा होटलों में खाना खिलाया, नाश्ता कराया, कॉफी पिलाई, अच्छी वकील भी थी वह । एक बार दिल्ली कोर्ट मे हत्या के केस में खड़ी हुई । मुझे बहस सुनाने के ले गई, जहां मैं सो गया । उसकी एक सहेली आई, मैं भी बैठा हुआ था, उसके दो भतीजे और एक भांजा पढ़ने जा रहे थे । सहेली ने ऐसे ही पुंछ लिया किस स्कूल में पढ़ते है ये दोनों ? उसने बड़े गर्व से बताया ‘सर शोभा सिंह स्कूल में’ ।


उसकी सहेली कि आँखें आश्चर्य से फटी रह गई । उसने पूछा तुम्हें मालूम है सर शोभा सिंह कौन थे और उनका नाम के आगे अँग्रेजी‘सर’ कैसे लगा ? मेरी प्रेमिका ने बताया सर शोभा सिंह खुशवंत सिंह के पिता थे तब उसने बताया सर शोभा सिंह वह आदमी थे जिन्होने श्री सरदार भगत सिंह के विरुद्ध गवाही दी थी उसने गाड़ी मैं बैठे बच्चो को बुलाया और कहा “आज से तुम उस स्कूल में झांकना भी मत, दूसरे स्कूल में होगा तुम्हारा प्रवेश, नहीं होगा तो भी उस स्कूल मे झांकना भी मत ।

सर शादीलाल और सर शोभा सिंह, भारतीय जनता कि जनरों मे घृणा के पात्र थे अब तक है सोचिए भारतीय जनता किस तरह कि है ? खुशवंत सिंह ने भी अपने पिता के बारें मे अधिक नहीं लिखा है बस उनका जिक्र किया है खुशवंत सिंह को अच्छी तरह पता था भारतीय जनता कि नजर में उनके पिता घृणा के पात्र थे आज कनौट प्लेस में सर शोभा सिंह स्कूल में कतार लगती है बच्चो को प्रवेश नहीं मिलता है श्यामली का शक्कर (शराब) का कारखाना उत्तर प्रदेश मे ‘नंबर 1’ है, क्योंकि जनता को नहीं पता है कि भगत सिंह के खिलाफ विरुद्ध गवाही देने वाले यही दो व्यक्ति थे । ;बाकी कोई हिंदुस्थानी तैयार नहीं था, लेकिन अंग्रेज़ सरकार नई दो गद्दार पैदा कर लिएमेरी आँखें भर आई, वह सहेली रोने लगी हम तीनों चुपचाप बैठे रहे दो घंटे, फिर मुझे ध्यान आई सन 73-74 कि एक घटना । एक बार मुझे बागपत जिले के श्यामली के पास कहीं जाना था बहन के लिए लड़का देखने, लड़का मामा जी ने बताया था, बागपत में कोई गाँव था जहां उसके पिता रहते थे उन्होने श्यामली के शक्कर (शराब) के कारखाने में रुकने कि व्यवस्था कर दी । हम श्यामली गाँव पहुंचे, वहाँ

शक्कर (शराब) के कारखाने में जिस तरह हमारा स्वागत हुआ वह अभूतपूर्व था , हम और मामाजी बहुत चमत्कृत थे दूसरे दिन सुबह 5 बजे निकालना था सुबह 4 बजे चाय और नाश्ता मिल गया हमें नाश्ता क्या पूरा खाना था दोपहर बाद हम लौटे थके थकाए, सारे बेयरों में खलबली मच गई बेयरों ने आकर कहा यहाँ नाई है, उसने आकर पैर दबाये । संध्या को जरा सी फुर्सत मिली, हम टहलने के लिए निकले एक चाय के ढाबे पर ।

चाय वाला बहुत बातुनी था, बोला – साहब किसके यहाँ रुके है ? हमने कहा शक्कर (शराब) के कारखाने में ? उसकी आँखों मे वही भाव था जो मेरी प्रेमिका कि सहेली कि आँखों मे था – आश्चर्य, घृणा, अवहेलना के मिले-झूले भाव । आपको पता है किसका कारख़ाना है श्यामली में ? बनियो ने “सर शादीलाल’के मरने पर कफन तक बेचना मना कर किया था उसके लड़के कफन तक दिल्ली लेने गए थे” भगत सिंह के;विरुद्ध गवाही देने वाला यह दूसरा व्यक्ति था, दोनों को ही सर कि उपाधि मिली अंग्रेज़ो से । दोनों को ही बहुत सारा पैसा मिला, लेकिन भारतीय जनता में कफन तक उन्हें नहीं बेचा गया असेंबली में भगत सिंह के बम फेंकने के समय यह दो गवाह थे । शादीलाल सर शादीलाल और सर शोभा सिंह, भारतीय जनता कि नजरों मे घृणा के पात्र थे अब तक है सोचिए भारतीय जनता कि तरह कि है ? खुशवंत सिंह ने भी अपने पिता के बारें मे अधिक नहीं लिखा है बस उनका जिक्र किया है खुशवंत सिंह को अच्छी तरह पता था भारतीय जनता कि नजर में उनके पिता घृणा के पात्र थे आज कनौट प्लेस में सर शोभा सिंह स्कूल में कतार लगती है बच्चो को प्रवेश नहीं मिलता है श्यामली का शक्कर (शराब) का कारखाना उत्तर प्रदेश मे ‘नंबर 1’ है, क्योंकि जनता को नहीं पता है कि भगत सिंह के खिलाफ विरुद्ध गवाही देने वाले यही दो व्यक्ति थे । ;बाकी कोई हिंदुस्थानी तैयार नहीं था, लेकिन अंग्रेज़ सरकार नई दो गद्दार पैदा कर लिए, हम लोगो ने तुरंत रिक्शा मंगवाया और ‘गेस्ट-हाउस’रवाना ओ गए । वेटर पूछते रह गए “सर आप तो कल जाने वाले थे ?” हमने कुछ नहीं सुनी, एक जगह रात काटी, सुबह बस पकड़ कार आ गए । आज मैं अपनी उस प्रेमिका को याद करता हूँ उसका नाम बताने में कोई परेशानी नहीं लेकिन …..

वह भी सरदार थी, वह भी पाकिस्तान से आई थी, वह भी खुशवंत सिंह के गाँव के पड़ोस से थी इसलिए उसके भतीजो और भाँजो को

सर शोभा सिंह के स्कूल मे प्रवेश मिला यह‘धुंध’भी क्या क्या करवा लेती है । इतिहास कि यह धुंध देश भक्त गोपाल शर्मा को सर शादी लाल के शराबखाने में रुकने को बाध्य कर देती है राजनीति कि धुंध ऐसे बुरी तरह छाई है कि साफ नजर ही नहीं आता राजनीति, इतिहास, संस्कृति सब को इस तरह धुंध में डुबो दिया गया है कि सही गलत करने का फैसला करना बड़ा मुश्किल होता है । मेरी पत्नी ने ‘टाइड’ साबुन खरीदा घर आकर पता चला वह तो अमेरिका कि प्रोक्टर एंड गेम्बल का साबुन है अपनी देश भक्ति से काफी परेशान हूँ कहीं कहीं स्थानो पर चाय पीजिए तो आईटीसी (ITC) कि मिलती है या अमेरिकन कंपनी हिंदुस्तान यूनिलीवर की ।सर शोभा सिंहएक एक चीज में अमेरिका इतना घुला हुआ है की पता ही नहीं चलता आप इस धुंध मे अंजाने ही साम्राज्यवादी शक्तियों की मदद कर बैठते है, अरे चाय पियो तो सोसायटी, आसामी, टाटा, गिरनार की पियो । काजू बादाम करीदो तो बहुत सारी अमेरिकन कंपनियाँ बेचती है, तब बहुत परेशान हो जाता हूँ जब यह धुंध हटती नहीं मैं इस देश का रहने वाला हूँ इसी देश की चीजे खरीदना चाहता हूँ जैसे जापानी करते है और मेरे देश के ही तंत्र ने मुझसे यह सुविधाए छिन ली है मेरे हाथो से । सुबह उठता हूँ तो ‘जहरीले’कॉलगेट की जगह डाबर लाल मंजन करता हूँ मैं मैसूर सेंडल साबुन या गौशाला के देसी साबुन से नहाता हूँ, हर चीज को आजकल खोज-खाज कर खरीदता हूँ । लेकिन इतनी धुंध छोड़ दी गई है की हमें पता ही नहीं चलता कहाँ से साम्राज्यवादी घुस रहे है परेशान हो जाता हूँ ‘राष्ट्र’और‘देश’मे फर्क बताने वाले लोग मेरी तरह परेशान हो जाते है मैं देश द्रोही तो हो ही नहीं सकता ।

मेरा सपना है डेरा इस्माइल खां के पास सिंध नदी के किनारे मैं नहा सकु जहां मेरे पूर्वज भारद्वाज ऋषि ने वेद की पहली ऋचाएँ गाई थी मेरा सपना है की डेरा इस्माइल खां के पास उस प्राचीन एतिहासिक गोमल दर्रे को देख सकु, मेरा सपना है की मुल्तान के पास मालबा में जाकर रहूँ ;जहां मालवीय ब्राह्मण होते थे मेरा सपना है की मुल्तान के पास जोहराबाद में जाकर देखूँ वहाँ यौधेयगणो की कुछ स्मृतियाँ तो बाकी होती ही , इतिहास पर इतनी धुंध बिखरी हुई है की उसका कोई उत्तर नहीं है संस्कृति पर इतनी धुंध बिखरी है की असंभव यह तय करना क्या सही है राजनीति में तो धुंध ही धुंध है इस धुंध को हटा दो तो सब स्पष्ट नजर आएगा, लेकिन मेरे ये सपने सिर्फ सपने ही रह जाएंगे जब तक शोभा सिंह और शादीलाल जैसे चरित्र जिंदा है और आज भी कई शादीलाल और शोभा सिंह है भारत सरकार के मंत्रिमंडल मे इन्हें भी कभी सर की उपाधि तो नहीं मिलेगी लेकिन एक भारत रत्न जरूर मिल जाएगा ! राजीव गांधी को भी मिला था जबकि स्विस बेंकों मे उनके खातो की बात किसी से नहीं छिपी है , भारत का भगवान ही मालिक है







When the reward is great, the effort to succeed i...s great, but when government takes all the reward away, no one will try or want to succeed.


Is this man truly a genius? Checked out and this is true...it DID happen!

An economics professor at a local college made a statement that he had never failed a single student before, but had recently failed an entire class. That class had insisted that Obama's socialism worked and that no one would be poor and no one would be rich, a great equalizer.

The professor then said, "OK, we will have an experiment in this class on Obama's plan". All grades will be averaged and everyone will receive the same grade so no one will fail and no one will receive an A.... (substituting grades for dollars - something closer to home and more readily understood by all).

After the first test, the grades were averaged and everyone got a B. The students who studied hard were upset and the students who studied little were happy. As the second test rolled around, the students who studied little had studied even less and the ones who studied hard decided they wanted a free ride too so they studied little.

The second test average was a D! No one was happy.

When the 3rd test rolled around, the average was an F.

As the tests proceeded, the scores never increased as bickering, blame and name-calling all resulted in hard feelings and no one would study for the benefit of anyone else.

To their great surprise, ALL FAILED and the professor told them that SOCIALISM would also ultimately fail because when the reward is great, the effort to succeed is great, but when government takes all the reward away, no one will try or want to succeed.

It could not be any simpler than that. (Please pass this on)

Remember, there IS a test coming up. The 2012 elections.

These are possibly the 5 best sentences you'll ever read and all applicable to this experiment:

1. You cannot legislate the poor into prosperity by legislating the wealthy out of prosperity.

2. What one person receives without working for, another person must work for without receiving.

3. The government cannot give to anybody anything that the government does not first take from somebody else.

4. You cannot multiply wealth by dividing it!

5. When half of the people get the idea that they do not have to work because the other half is going to take care of them, and when the other half gets the idea that it does no good to work because somebody else is going to get what they work for, that is the beginning of the end of any nation.

Can you think of a reason for not sharing this? Neither could I.

BRAND Archetypes through lens -Indian-Brands

There has been so much already written about brand archetypes and this is certainly not one more of those articles. In fact, this is rather ...